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कांग्रेस के लिएहुबली का पासा उलटा पड़ सकता है”अगर दोस्त ऐसे हों तो दुश्मन की क्या दरकार।” सोनिया गांधी और उनकी पार्टी इस पुरानी कहावत को नई सदी की नजर से सुधारने का बीड़ा उठाए दिखती है। कहावत को उनका दिया नया स्वरूप इस प्रकार है : “ऐसे दुश्मन हों तो दोस्त जरूरी हैं क्या?”सब जानते हैं कि 14वीं लोकसभा के चुनाव परिणाम भाजपा और उसके सहयोगी दलों के लिए एक करारे झटके की तरह थे। भाजपा और उसके साथी दलों को कुछ कहते नहीं बन रहा था, शब्द ही जैसे खो गए थे। लेकिन अब उन्हें कांग्रेस का धन्यवाद देना चाहिए कि उसने फिर से उनके पटरी पर आने का रास्ता खोल दिया है। उत्साह में उछलते कांग्रेसी विपक्ष को मुद्दे-काल्पनिक “आम आदमी” की जेब पर चोट करने वाले और कहीं ज्यादा महीन भावनात्मक पहलू वाले, दोनों- उपहार की तरह थमाने में लगे हैं।क्या इतना पर्याप्त नहीं था कि मुद्रास्फीति इतनी बढ़ चुकी है जितनी पिछले चार साल में कभी नहीं रही, कि मणिपुर में उबलता गुस्सा पूरे पूर्वांचल को धधकाने की ओर बढ़ रहा है और कि पाकिस्तान के साथ चली शांति प्रक्रिया में रोड़े अटक गए हैं? आखिर मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह पर कौन सा भूत सवार हुआ था कि प्रचार की दमक में वे इतिहास की पुस्तकें दुबारा लिखवाने को उतावले हो गए? अथवा पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर- जिनके पास कच्चे तेल के रोजाना बढ़ते दामों के बीच करने को और बहुत कुछ था- सावरकर का अपमान कर बैठे? (और यह भी तब किया जा रहा है कि जब इस बात की पूरी जानकारी है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में कुछ ही हफ्ते बचे हैं!) और अभी हाल में, कर्नाटक के मुख्यमंत्री धरम सिंह ने अचानक उमा भारती को सुर्खियों में ला खड़ा करने का फैसला किया। मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री के विरुद्ध उनके इस कदम के परिणामों के बारे में धरम सिंह के मन में जरा भी शंका नहीं रही होगी। अब यह भी सामने आया है कि एच.डी.देवगौड़ा ने कर्नाटक के अपने गठबंधन सहयोगी को इस तरह की कोई भी मूर्खतापूर्ण कोशिश के विरुद्ध खासतौर पर चेताया था। (यह बात रपटों में आ गई, इस तथ्य से ही यह साफ संकेत उभरता है कि जनता दल (सेकुलर) खुद को इस कदम के नतीजों से दूर कर रहा है।) देवगौड़ा जानते थे कि वे किस बारे में बात कर रहे थे; दस साल पहले खुद उन्होंने ही- जब उन्होंने बंगलौर में मुख्यमंत्री की कुर्सी सम्भाली ही थी- “ईदगाह मैदान” में ध्वजारोहण से जुड़े विवाद का निपटारा करने की पहल की थी।एक बात तो साफ है, वह मैदान “ईदगाह मैदान” नहीं है (भले ही भारतीय मीडिया की साझी समझ कुछ उलटा ही सोचती हो) ; नगर पालिका के दस्तावेजों के अनुसार यह कित्तूर रानी चेनम्मा मैदान है। इसका मूल स्वामित्व स्विट्जरलैण्ड के बेसिल मिशन के पास था, जिसे नगर पालिका ने सभी प्रकार की सार्वजनिक गतिविधियों की अपनी जाहिर मंशा के साथ खरीदा था। अंजुमन-ए-इस्लाम ने किसी तरह शहर के मठाधीशों को फुसलाकर एक रुपए सालाना के हिसाब से 999 साल के पट्टे पर वह जमीन ले ली! 1971 में उस संस्था ने वहां बाजार बनाने का लाइसेंस प्राप्त कर लिया। इस बात पर एक जनहित याचिका दायर की गई, जिसमें कहा गया था कि निगम के पास उस जमीन को पट्टे पर देने का अधिकार नहीं है, इसके द्वारा किसी निजी पक्ष को व्यावसायिक उपयोग की आज्ञा दिए जाने की बात तो जाने ही दीजिए। तबसे, मुंसिफ अदालत, कर्नाटक उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने फैसले दिए हैं कि (1) मैदान सार्वजनिक संपत्ति बना रहेगा, जिसे बेचा नहीं जा सकता और (2) कि मुसलमानों को वहां साल में दो बार नमाज पढ़ने का अधिकार है। (हर “साल” न कि हर “दिन”।)लगभग 12 साल पहले तक यह बेढब मामला अंजुमन-ए-इस्लाम, हुबली नगर निगम और याचिका दायर करने वाले जागरूक नागरिकों के बीच सम्पत्ति के अधिकारों पर एक विवाद मात्र था। पता नहीं यह मुद्दा इतना अलग रूप कैसे ले बैठा कि उसके साथ साम्प्रदायिकता का पुट जुड़ गया। हर पक्ष की अपनी-अपनी कहानी है और यह सब बहुत अधिक उलझ भी गया है। न ही मैं 15 अगस्त, 1994 की घटनाओं की चर्चा करना चाहता हूं, क्योंकि यह मामला अदालत में है।हां, मैं यह जरूर जानता हूं कि 1994 के आखिर में वीरप्पा मोइली को हटाकर जैसे ही देवगौड़ा मुख्यमंत्री बने थे, उन्होंने तुरंत ही इस परिस्थिति को सुलझाने का प्रयास शुरू किया था। उन्होंने अपने सबसे विश्वासपात्र सहयोगी सी.एम. इब्रााहिम को सभी को चुप कराने को कहा था। इब्रााहिम अपने अभियान में इतने सफल रहे थे कि इसकी अब तक किसी को याद नहीं थी। अचानक धरम सिंह सरकार ने पुरानी भावनाएं भड़का दीं। परिणाम यह हुआ कि कित्तूर रानी चेनम्मा मैदान- जो लम्बे-चौड़े वाहन “पार्किंग” स्थल और प्रदर्शनी मैदान से ज्यादा कुछ नहीं है- आज राष्ट्रीय खबरों में छाया हुआ है।आखिर कांग्रेस क्या पाने की उम्मीद लगा रही है? मुझे लगता है कि दागी मंत्रियों के मामले पर विपक्ष के प्रहारों से दबी जा रही कांग्रेस भाजपा को बदले में वैसा ही कुछ जवाब देना चाहती थी। हालांकि, कुल मिलाकर वे इतना ही कर पाए कि उमा भारती को त्याग की प्रतिमूर्ति का ताज पहना दिया। इससे संप्रग सरकार में लालू प्रसाद यादवों और तस्लीमुद्दीनों की सूरतें अब ज्यादा बेशरमी से झांकती दिख रही हैं। (28.8.04)17
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