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ये कौन हैं?वामपंथी- दामपंथी-सलामपंथीडा. हरि जोशीमेरे वामपंथी लेखक मित्रों की संख्या कम नहीं है, किन्तु जिस प्रकार वे लामपंथी होकर, दामपंथी हो जाते हैं, उससे मुझे उनके षड्यंत्रों का आभास हो जाता है। वह वामपंथी, कांग्रेसी ही नहीं भाजपा के मंत्री के चरणों में इसलिए गिर जाता है, क्योंकि उसे किसी विश्वविद्यालय में कुलपति का पद चाहिए या कोई “फैलोशिप।” वह निराला जी की जय बोलता है, स्वयं को मुक्तिबोध का अनुगामी बताता है, लेकिन किसी न किसी महत्वपूर्ण पद पर बने रहना चाहता है, ताकि उसके चार समर्थक (जो उसके अधीनस्थ कर्मचारी हैं) उसे साहित्य का महाबली मानते रहें। वह पुरस्कारों की निर्णायक समिति का सदस्य बने रहना चाहता है। चाहता है कि पुस्तकों की खरीद में उसकी भूमिका हो, ताकि उसे लाभ मिलता रहे, अच्छे प्रकाशक उसके चक्कर काटते रहें। पद पर बने रहने या आर्थिक लाभ के लेन-देन में उसका कचरा लेखन भी दुर्लभ प्रकाशन गृहों से प्रकाशित हो जाए। भले ही शीर्ष साहित्यकार को प्रकाशक “रायल्टी” न दे, किन्तु वही प्रकाशक अपने श्वसुर, भाई या अन्य संबंधी को अच्छी रायल्टी देता है, क्योंकि पद पर बैठकर उसके प्रकाशन संस्थान की पुस्तकों की खरीद कराने में वह महती भूमिका निभाता है।राजनीति में जैसी साख बाहुबलियों की है, वैसी ही साहित्य में अनेक वामपंथियों की है। वे जिसे चाहें, उसे पुरस्कृत कर दें, जिसे चाहें उसे साहित्य का मसीहा घोषित कर दें। प्रचार माध्यम, मकड़जाल और संगठन उनके पास हैं। नया लेखक बेचारा पुरस्कार, चर्चा और प्रकाशन के मोह में उनके झंडे तले पहुंच जाता है। उनके निर्देश पर गाली-गलौजयुक्त रचनाएं तक लिखने लगता है।साहित्य में वामपंथियों का वर्चस्व है। अधिकांश प्रकाशन गृहों, पुरस्कारों की ठेकेदारी, पाठक मंचों पर चर्चा में उनकी नियामक और अधिकृत पैठ है। शायद इसीलिए प्राय: प्रत्येक नया लेखक, कवि या तो प्रगतिशील खेमे में अथवा तथाकथित जनवादी समूह में प्रवेश ले लेने में ही अपनी भलाई समझता है। अन्यत्र कुछ भी तो नहीं है? प्रभावी राष्ट्रीय स्तर के किसी भी अन्य साहित्यिक संगठन के अभाव में इनकी मनमानी, स्वेच्छाचारिता चलती है। सामने के संगठन भू लुंठित रहेंगे तो ऐसा ही होगा।प्रश्न उठता है आखिर वर्षों से साहित्य में वामपंथियों का वर्चस्व क्यों है? एक कारण तो यह रहा कि कांग्रेसी सरकारें ही देश पर और अधिकांश प्रदेशों पर दीर्घकाल तक शासन करती रहीं, जिन्हें तथाकथित साम्प्रदायिकता और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध करने के लिए कुछ बड़बोले लोग चाहिए थे, जो सहस्रों मुखों से लिखकर, बोलकर, प्रचार करके सत्ता-विरोधी विचारों को नेस्तनाबूद कर सकें। भोंपू बन जाने के कारण पैसा, तमगे, सम्मान पाते रहें तथा चारण बने रहें। इन्हीं लेखकों की पुस्तकें शासन द्वारा खरीदी जाएं। दूसरे, वामपंथ के विरोध में खड़े होने में सक्षम किसी भी समूह ने इस दिशा में कोई प्रयास ही नहीं किया। यदि सोवियत लैंड पुरस्कार या अन्य कम्युनिस्ट विचारधारा वाले देशों द्वारा भारतीय लेखकों के लिए घोषित पुरस्कारों, सम्मानों, अलंकारों सरीखे कुछ प्रोत्साहन वामपंथेतर खेमे में भी होते, तो शायद इस समूह में भी लेखकों की संख्या में अभिवृद्धि होती। अभी तक वामपंथ के विरोध में खड़ा हुआ लेखक सिर्फ पिटता ही रहा है। यदि वह कांग्रेस शासक वाले प्रदेश में शासकीय सेवा में है तो प्रताड़ित होते रहना ही उसकी नियति है। प्रतिभाएं, क्षमताएं इधर भी कम नहीं हैं, बल्कि उनसे ज्यादा ही हैं किन्तु वामपंथेतर खेमा असंगठित, उपेक्षित तथा किंकत्र्तव्यविमूढ़ है।20
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