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हिन्दू भूमि

by
May 9, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 May 2004 00:00:00

सुरेश सोनीउपनिषद्: जीव, जगत औरपरमात्मा का वैज्ञानिक विश्लेषणउपनिषदों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- “उपनिषदों की भाषा और भाव की गति सरल है। उनकी प्रत्येक बात तलवार की धार के समान, हथौड़े की चोट के समान साक्षात् ह्मदय में आघात करती है। उनका अर्थ समझने में कोई भूल होने की सम्भावना नहीं। उस संगीत के प्रत्येक सुर में शक्ति है, और वह ह्मदय पर पूरा असर करती है। उनमें अस्पष्टता नहीं, असम्बद्ध कथन नहीं, किसी प्रकार की जटिलता नहीं जिससे दिमाग घूम जाए। उनमें अवनति के चिन्ह नहीं हैं। अन्योक्तियों द्वारा वर्णन की भी ज्यादा चेष्टा नहीं की गयी है। उपनिषदों का प्रत्येक पृष्ठ मुझे शक्ति का संदेश देता है। यह विषय विशेष रूप से स्मरण रखने योग्य है। समस्त जीवन में मैंने यही महाशिक्षा प्राप्त की है। उपनिषद् कहते हैं, हे मानव! तेजस्वी बनो, वीर्यवान बनो, दुर्बलता को त्यागो।”उपनिषदों में जीव, जगत् व परमात्मा का वैज्ञानिक विश्लेषण है। विज्ञान एकत्व की खोज का नाम है तथा खोज की दिशा में जब एकत्व को पा लिया जाता है तो खोज का अंत हो जाता है। यह निष्कर्ष सभी विज्ञानों पर लागू होता है। चाहे वह जीव विज्ञान हो, भौतिक विज्ञान हो या रसायन विज्ञान। उपनिषदों में अंतिम एकत्व का प्रतिपादन किया गया है। इस एकत्व की खोज में चले मानव मन के प्रश्नों को उन्होंने पहले खड़ा किया। महान वैज्ञानिक नील्स बोर कहते थे कि मैं उपनिषदों के उत्तरों की बजाय उनमें उठाये गये प्रश्नों की गहराई और व्यापकता से प्रभावित हूं।मुण्डक उपनिषद् में शौनक ऋषि की इस जिज्ञासा पर कि “वह कौन सा ज्ञान है जिसे जानने पर सब कुछ जान लिया जाता है?” महर्षि अंगिरा उत्तर देते हैं कि, “दो प्रकार की विद्यायें हैं- एक है परा व दूसरी है अपरा। अपरा विद्या के अन्तर्गत सभी प्रकार की विद्यायें, कला, संगीत, भौतिक, रसायन, जीव, वनस्पति विज्ञान आदि सब कुछ आ जाते हैं। इन सभी विद्याओं द्वारा जीव और जगत् का विश्लेषण तो सम्भव है, परन्तु इससे अंतिम तत्व जिससे यह सारा अस्तित्व अभिव्यक्त हुआ है, नहीं जाना जा सकता। अत: जो विद्या उस अंतिम तत्व का प्रतिपादन करे, यह परा विद्या है।अपरा विद्या के विश्लेषण में जीव और जगत का विश्लेषण होता है। यह भिन्न-भिन्न उपनिषदों में प्रतिपादित किया गया है। उसका सार यह है कि एक तत्व है उसमें इच्छा हुई, मैं एक से बहुत हो जाऊं “एकोऽहं बहुस्याम्।” इस एक से बहुत होने की प्रक्रिया का वर्णन छान्दोग्योपनिषद्, प्रश्नोपनिषद्, माण्डूक्योपनिषद् आदि में किया गया है। उन सबका सार यह है कि परमात्मा के ईक्षण से रयि और प्राण इन दो तत्वों का स्पन्दन होता है और जगत बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। जगत तीन स्तरों वाला है। एक स्थूल जगत जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। दूसरा सूक्ष्म जगत जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं तथा तीसरा कारण जगत जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है। जीव इस जगत में आता है और इसमें फंस जाता है। इसका वर्णन करते हुए कठोपनिषद् में यमराज नचिकेता से कहते हैं, “दो मार्ग हैं- एक श्रेय का, दूसरा प्रेय का। प्रेय का मार्ग बंधन में डालता है तथा श्रेय का मार्ग मुक्ति की ओर ले जाता है।”मनुष्य दुनिया में आकर इस तत्व को क्यों नहीं जान पाता? वह कौन सी बात है जिसके कारण वह अंतिम सत्य की खोज में न लगकर दुनिया के भोगों में फंस जाता हैमन, प्राण, बुद्धि का नियमन कर ध्यान योग का आश्रय ले जब मनुष्य अन्तरतम की गहराइयों में उतरता है तब वह सब कारणों के कारण उस एक तत्व को जान पाता है। इसका वर्णन श्वेताश्वतर उपनिषद् में आता है।वह तत्व कैसा है इसका वर्णन बृहदारण्यक उपनिषद् में आता है। जैसे मकड़ी में से जाल के तन्तु नि:सृत होते हैं, जैसे अग्नि में से स्फुलिंग नि:सृत होते हैं, उसी प्रकार इस आत्मतत्व से सभी प्रकार के प्रण, सभी प्रकार के लोक, सभी प्रकार के देव तथा सम्पूर्ण भूत समुदाय नि:सृत होते हैं। उसके पास जाओ वह सत्य का भी सत्य है। प्राण सत्य है, पर यह प्राण का भी सत्य है। ज्ञान प्राप्त हुआ तो दृष्टि कैसी होगी इसका वर्णन ईशावास्य उपनिषद् के प्रथम मंत्र में आता है।(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित, पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार)19

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