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सम्पादकीय

by
May 9, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 May 2004 00:00:00

संस्कृत भाषा और संस्कृत साहित्य का अध्ययन यथेष्ट मात्रा में न चलता रहा तो हिन्दू धर्म का नाश हो जाएगा। मौजूदा शिक्षा-पद्धति की कमियों के कारण ही संस्कृत सीखना कठिन मालूम होता है; असल में वह कठिन नहीं है। लेकिन कठिन हो तो भी धर्म का आचरण और ज्यादा कठिन है। इसलिए जो धर्म का आचरण करना चाहता है, उसे अपने मार्ग की तमाम सीढ़ियों को, चाहे वे कितनी भी कठिन क्यों न दिखाई दें, आसान ही समझना चाहिए।-महात्मा गांधी (यंग इंडिया, 13-5-1926)वित्त विधेयक और चर्चा-विहीन संसदलगभग पांच लाख करोड़ रु. का वित्त विधेयक बिना चर्चा के पारित कर दिया गया। यह दुर्भाग्यजनक स्थिति सरकार और विपक्ष दोनों की तनातनी के कारण पैदा हुई। सत्ता पक्ष का कहना था कि विपक्ष अपने जितने भी मुद्दे हैं, वे संसद में रखकर संसद चलने दे। दूसरी ओर राजग इस बात पर अड़ा हुआ था कि पोर्ट ब्लेयर में वीर सावरकर के अपमान तथा तिरंगा लहराने के आरोप में उमा भारती को जेल का जब तक निराकरण नहीं होता, उसके सदस्य संसद की कार्यवाही में भाग नहीं लेंगे। हालांकि श्री अटल बिहारी वाजपेयी सदैव इस मत के रहे हैं कि कारण कोई भी हो, संसद की कार्यवाही चलने देनी चाहिए। परंतु इस बार वे भी क्षुब्ध दिखे। संसद का बहिष्कार, शोर मचाना, यह सब उन्हें भाता नहीं फिर भी अंतत: उन्हें कहना पड़ा- यह सरकार विपक्ष का सहयोग लेना ही नहीं चाहती और यदि सहयोग की कुछ इच्छा प्रकट भी करती है तो वह भी अपनी कीमत पर। संसदीय लोकतंत्र के लिए यह स्थिति हताशाजनक है। जिस चर्चा से भारत के अर्थसंकल्प का भविष्य जुड़ा हो और जिसके माध्यम से चिदम्बरम के बजट में प्रस्तुत किए गए कथित फर्जी आंकड़ों की भयावहता को भी बेनकाब किया जा सकता था, वह चर्चा हुई ही नहीं और अब कांग्रेस की मूर्खतापूर्ण कार्यवाहियों के कारण पूरे देश का ध्यान उमा भारती के तिरंगा अभियान पर केन्द्रित हो गया है।कई बार लगता है कि डा. मनमोहन सिंह सहानुभूति के पात्र हैं। जब से वे प्रधानमंत्री बने हैं, संसद का सत्र पूरी तरह से लगभग चला ही नहीं, उन्हें राष्ट्रपति के अभिभाषण का उत्तर देने का भी अवसर नहीं मिला और न ही वित्त विधेयक की चर्चा में भाग ले सके, क्योंकि चर्चा हो ही नहीं सकी, जबकि एक अर्थशास्त्री होने के नाते इसमें वे अच्छा योगदान दे सकते थे। इसलिए उनका चिड़चिड़ा होना स्वाभाविक ही है। एक ओर विपक्ष और दूसरी ओर अपनी ही पार्टी के अर्जुन सिंह, लालू यादव और मणिशंकर जैसे लोग उनकी विवशताओं का भरपूर “लाभ” उठा रहे हैं। सब जानते हैं कि यह ऐसी स्थिति है जिसमें मनमोहन सिंह कुछ कर नहीं सकते। लेकिन विपक्ष का कहना है कि वह इन तमाम खामियों को सिर्फ इसलिए नजरअंदाज नहीं कर सकता, क्योंकि डा. मनमोहन सिंह अच्छे, पर बेबस प्रधानमंत्री हैं।चीन की लम्बी छलांगयह सच है कि आज दुनियाभर में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की धाक है। इस क्षेत्र में अभी तक जो उपलब्धियां हुई हैं वे असाधारण हैं। लेकिन क्या यह स्थिति बहुत दिन तक ऐसी ही रहने वाली है? स्वतंत्र विशेषज्ञों का कहना है कि चीन जिस गति से आगे बढ़ रहा है, उसे देखते हुए वह शीघ्र ही भारत को बहुत पीछे छोड़ देगा। वहां चाहे माइक्रोसोफ्ट हो या इंटेल- प्रत्येक कम्प्यूटर कंपनी का लघुवर (सोफ्टवेयर) चीनी भाषा में मिलता है। इस समय चीन सूचना प्रौद्योगिकी पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का 1.8 प्रतिशत खर्च कर रहा है, जबकि भारत मात्र 1.2 प्रतिशत। इसका अर्थ है कि जहां चीन सूचना प्रौद्योगिकी पर 17.4 अमरीकी डालर प्रति व्यक्ति खर्च करता है तो भारत का यह खर्च मात्र 6 डालर है। सन् 2002 में चीन में 1 करोड़, 21 लाख कम्प्यूटरों की बिक्री हुई थी जबकि भारत में मात्र 20 लाख। चीन में जहां प्रति हजार व्यक्ति पर 28.1 कम्प्यूटर हैं, वहीं भारत में 7.7 हैं। और इस हिसाब से चीन में जहां इस समय 3 करोड़ 60 लाख कम्प्यूटर हैं वहीं भारत में 81 लाख।जिस समय चीन में सामान्य स्तर पर अंग्रेजी भाषा में अधिकार और कामकाज में निपुणता बढ़ जाएगी, उस समय इस क्षेत्र में चीन का बढ़ना कल्पनातीत होगा। चीन के हर गली-मोहल्ले और विद्यालय में इस समय अंग्रेजी पढ़ने और पढ़ाने का जो अभियान जैसा चल रहा है वह उसकी इस आकांक्षा को ही दर्शाता है कि साधन कोई भी हो मगर पीछे नहीं रहना।6

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