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दिशादर्शन

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Apr 7, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Apr 2004 00:00:00

तरुण विजयमुम्बई के बाद भाजपा की डगरहिन्दू आन्दोलन और “सेकुलर” चुनौतीमुम्बई का भाजपा के जन्म और तत्वदर्शन से गहरा सम्बन्ध रहा है। यहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ अपने सम्बंधों के मुद्दे पर पूर्व जनसंघ के सदस्यों ने जनता पार्टी छोड़कर 1980 में भाजपा को जन्म दिया था। यहीं स्वामी चिन्यमयानंद मिशन में 1964 में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना हुई थी। उसी स्थान के बगल में बने रेनेसां होटल में पवई झील के किनारे भाजपा ने विचारधारा का साथ पुन: थामा। मुम्बई में सम्पन्न भाजपा कार्यकारिणी के फैसले पार्टी के भविष्य और कार्यकर्ताओं के मनोबल को गहराई से प्रभावित करेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। पार्टी नेतृत्व ने बड़ी स्पष्टता से संगठन की कमजोरियों, भूलों तथा वैचारिक भटकाव को स्वीकार करते हुए फिर से हिन्दुत्व के आधार पर अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प व्यक्त किया। भाजपा कार्यकारिणी द्वारा पारित प्रस्ताव एवं वहां हुए उद्बोधनों से कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार होगा, ऐसी आशा करनी चाहिए।यद्यपि कार्यकारिणी के तीनों दिन पार्टी अध्यक्ष श्री वेंकैया नायडू, पूर्व अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी के प्रेरक एवं दिशाबोधक उद्बोधनों की खासियत वाले रहे। लेकिन इसके साथ ही केशुभाई पटेल और काशीराम राणा जैसे वरिष्ठ नेताओं द्वारा गुजरात के बारे में दिए गए बयानों एवं अटल जी द्वारा निर्दोष भाव से एक समारोह में मराठी में “आता बारी नको, पुष्कल झाला” (अब दूसरी बारी नहीं, बहुत हो चुका) जैसे कथन भी मीडिया में छाए रहे।कार्यकारिणी बैठक के बाद आपसी सहयोग, समन्वय और भविष्य-दृष्टि के प्रति जागरूकता का सन्देश गया- जो भरोसा दिलाता है। अटलजी के प्रति सबका प्रेमानुराग और सम्मान स्वाभाविक और स्वत:स्फूत्र्त रूप में प्रकट हुआ-अटलजी भी अपनी आंखें नम होने से न रोक सके। पूरा जीवन जिस आन्दोलन के साथ बिताया, वह उनके साथ होना ही चाहिए। जिस कवि ने “रग-रग हिन्दू मेरा परिचय” और “गगन में लहरता है भगवा हमारा” पंक्तियां लिखकर लाखों स्वयंसेवकों को ऊर्जा दी, उसे वैचारिक विभ्रम के इर्द-गिर्द भी देखना, स्वयं को आहत करना है, यह समझकर ही कुछ कहने को आगे आना चाहिए। वे हमारे हैं, हम उनके, यही भाव हमारे “परिवार” का भाव पुष्ट करने वाला है।पार्टी का अधिवेशन वर्तमान राजनीतिक संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है। एक ओर छद्म सेकुलरवादी तत्व भाजपा और उसके वृहद् वैचारिक परिवार पर इसलिए आघात कर रहे हैं क्योंकि वह हिन्दुत्वनिष्ठ पार्टी मानी जाती है। यह एक विडम्बना ही है, जिसका जिक्र श्री लालकृष्ण आडवाणी ने अपने भाषण में किया। इस कारण जिन महान उद्देश्यों और आदर्शों को लेकर जनसंघ और फिर भाजपा की स्थापना की गई थी उनसे पार्टी की विमुखता का आरोप उभर कर सामने आया। हाल ही में हुए चुनावों में कार्यकर्ताओं की उदासीनता एवं विफलता इसी दोष का एक परिणाम मानी जा रही है।लेकिन इससे भी बढ़कर क्षति समग्र हिन्दू आंदोलन की एकता तथा वैचारिक प्रभविष्णुता को हो रही थी। कुछ नेताओं के व्यवहार से ऐसा लग रहा था मानो हिन्दुत्व उनके सर पर बोझा हो गया है, वह हट जाए तो वे विश्व-विजय कर सकते हैं।कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के मावलंकर सभागार में भाजपा विधायकों और सांसदों के एक राष्ट्रीय सम्मेलन में अटल जी ने कहा था कि कार्यकर्ता जब भी मंत्री जी, विधायक जी या सांसद जी से मिलने उनके यहां जाता है तो अक्सर जवाब मिलता है कि “वे हैं नहीं, बाद में आना”। उन्हें पानी पिलाना तो दूर, कोई बैठने के लिए भी नहीं कहता और ऐसा महसूस कराया जाता है मानो अवांछित लोग जबरदस्ती सर पर चढ़ आए हों। काम हो या ना हांे, व्यवहार तो ठीक रहना चाहिए।भाजपा ने आगामी कार्य सम्बंधी जो वृत्त प्रकाशित किया है वह इस ओर ध्यान देता प्रतीत होता है। कार्यकर्ता नेताओं को सर आंखों पर बिठाता है। उन्हें देवतुल्य, पूजनीय और प्रात: स्मरणीय तक मानता है। जब आडवाणी जी की रथयात्रा निकली थी तो इन्हीं कार्यकर्ताओं ने वाहन के पहिए तक पूजे थे। यह इसलिए होता है क्योंकि कार्यकर्ता नेताओं को अपनी विचारधारा का श्रेष्ठ ध्वजवाहक और अपने सपनों का साझीदार मानता है। हमारे कार्यकर्ताओं की आंखों में इन नेताओं की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं होती क्योंकि वे अत्यन्त धनी, बड़े ऐश्वर्य सम्पन्न, किसी नामी खानदान से हैं। इन नेताओं के बारे में जब कार्यकर्ता चर्चा करते हैं तो उनकी इच्छा यह कहने को होती है कि “देखिए वे इतने बड़े और महान हैं, फिर भी कितनी सादगी से रहते हैं, जब मिलते हैं तो कितनी आत्मीयता से मिलते हैं, उन्हें मैंने चिट्ठी लिखी तो उन्होंने उसका जवाब दिया। काम भले ही न हुआ हो, उन्होंने मेरा पत्र पढ़ने का समय तो निकाला।”लेकिन अगर कार्यकर्ताओं को रूखापन और तिरस्कार मिले, व्यवहार में ऐश्वर्य और पैसे का वैभव टपक-टपक कर दिखता रहे और कार्यकर्ताओं की नमस्ते तक का जवाब वे इस प्रकार से दें मानो किसी दूसरे ग्रह से आए फरिश्ते मेहरबानी कर रहे हों तो कार्यकर्ता क्यों न कहेगा कि “तुम अपनी जगह खुश रहो मैं अपने घर खुश।”कार्यकर्ता चाहता है कि कश्मीर का प्रश्न हल होना चाहिए, पूर्वांचल में ईसाई साम्राज्यवाद-प्रेरित आतंकवाद, जिसका ईसा मसीह की करुणा और प्रेम से कोई सम्बंध नहीं है, पराभूत किया जाए। भारतीयता और देशभक्ति का बोलबाला हो, हिन्दू जनजातियों के सम्मान और धन की रक्षा की जाय। वह तब विभ्रमित होता है जब एक ओर नेता कहते हैं कि मदरसे आतंकवाद फैलाने वाले केन्द्र हैं और दूसरी ओर कहते हैं कि जितनी उन्होंने इन मदरसों को सहायता दी उतनी कांग्रेस ने भी कभी नहीं दी थी। जो नेता धारा 370 और कश्मीर के झण्डों के बारे में जीवनभर विरोध प्रकट करते रहे, जब वही कश्मीर में दो झण्डों को ठीक मानने लगें और 370 को ठीक बताने लगें तो भ्रम तो पैदा होंगे ही। राष्ट्र जीवन के विभिन्न अंगों और उपांगों को स्पर्श और प्रेरित करने वाला है क्रांतिकारी हिन्दू आन्दोलन, इसे प्रारंभ से लेकर अब तक ब्रिटिश इस्लामी और वामपंथी झुकाव वालों का विरोध सहना पड़ा। यह स्वाभाविक ही है कि देश की माटी से जुड़ी कोई भी बात उन्हें स्वीकार्य नहीं हो सकती। पर यही तो हमारा संघर्ष पथ है।जरूरी है लोगों को अपनी विचारधारा के प्रति शिक्षित करना, जो आज विरोधी हैं उन्हें अपना बनाने की कोशिश करना और पारिवारिक एकता को कायम रखने का प्रयास करना। सब लोग अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रहे हैं, पर मंजिल तो एक ही है। भाजपा के जो मंत्री विचारधारा के अन्य संगठनों को दफ्तर में बैठकर सबके सामने गालियां देते थे उन्हें कोई यह समझाने वाला क्यों नहीं मिला कि ये सब हमारे अपने हैं, उनके बारे में व्यक्तिगत लाभालाभ से ऊपर उठकर सोचो?इस आन्दोलन की प्रकृति का एक विशिष्ट गुण है कि तैरना हो तो एकजुटता जरूरी है, डूबना हो तो अलग-अलग स्वरों में बोलना शुरू कर दीजिए। सिर्फ भाजपा ही नहीं, बाकी संगठनों को भी सोचना होगा। घर की बातों का टी.वी. पर कभी समाधान न हुआ है, न होगा।पूरा हिन्दू आन्दोलन एक बड़ी सेकुलर चुनौती का सामना कर रहा है। ऐसा माहौल बना दिया गया है कि हिन्दू की जान की कोई कीमत नहीं और गैरहिन्दू, वह चाहे आतंकवादी ही क्यों न हो, सबसे सहानुभूति बटोर लेता है। इस पूरी परिस्थिति के पीछे हिन्दू बनाम हिन्दू ही ज्यादा दिखता है। इतिहास साक्षी है कि हिन्दू अपनी कमजोरियों और एकजुटता की कमी से हारा, विधर्मी-विदेशी आघातों से कम। कम-से-कम वह इतिहास न दोहराया जाए, इसकी जिम्मेदारी तो कुछ नेताओं को अपने हाथ में लेनी चाहिए। भले ही उसके लिए हलाहल ही क्यों न पीना पड़े। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोगों और कार्यकर्ताओं को यह महसूस न हो कि जब भाजपा के लोग सत्ता में रहते हैं तो हिन्दुत्व उनके गले का पत्थर और जब सत्ता के बाहर आ जाते हैं तो उसी को नाव बनाने की कोशिश करते हैं।4

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