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मंथन

by
Apr 7, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 07 Apr 2004 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूप

जाग्रत नैतिक लोकशक्ति ही लोकतंत्र का प्राण

सन् 1950 में स्वाधीन भारत ने ब्रिटिश संसदीय लोकतंत्र के अनुकरण पर एक संवैधानिक ढांचा अपनाकर अपनी यात्रा आरम्भ की। यह राजनीतिक प्रणाली वयस्क मताधिकार पर आधारित चुनाव की धुरी पर घूमती है। चुनावों में जय-पराजय को ही लोकतंत्र की सफलता की कसौटी माना जाता है। इस कसौटी पर भारत गर्व के साथ सर उठाकर कह सकता है कि वह विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और एशिया में एकमात्र ऐसा देश है जहां लोकतंत्र का दीपक समस्त झंझावातों के बीच भी अखण्ड टिमटिमा रहा है। 1975-1976 में आपातस्थिति देश पर थोपने वाली अधिनायकवादी प्रवृत्ति की भारी पराजय को इस लोकतंत्र की अन्तर्शक्ति के प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या अनेक दलों के बीच सत्ता की कशमकश और चुनावों में जय-पराजय अथवा सत्ता-परिवर्तन को ही लोकतंत्र की सफलता की एकमात्र कसौटी माना जा सकता है?

लोकतंत्र या राजतंत्र

राजतंत्र और लोकतंत्र में क्या अन्तर है? राजतंत्र “राजा” केन्द्रित होता है। वहां नेतृत्व ऊपर से आता है, वंशानुगत होता है। राजतंत्र के बारे में कहा जाता है “यथा राजा तथा प्रजा” एवं “राजा कालस्य कारणम्”। जबकि लोकतंत्र “लोक” केन्द्रित होता है। वहां नेतृत्व नीचे से ऊपर जाता है, वह जनजीवन से सीधे जुड़कर जन सेवा के माध्यम से क्रमश: ऊपर उठता है। लोकतंत्र का नियामक सूत्र है “यथा प्रजा, तथा राजा” एवं “प्रजा कालस्य कारणम्”। लोकतंत्र में प्रत्येक मतदाता अपने कत्र्तव्यों एवं अधिकारों के प्रति जागरूक होता है। कत्र्तव्य भावना से अपने मताधिकार का प्रयोग करता है। शत-प्रतिशत मतदान ही जाग्रत और जीवन्त लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। भारतीय लोकतंत्र इस दृष्टि से आगे बढ़ रहा है या पीछे हट रहा है? नेतृत्व नीचे से उभर रहा है या वंशवाद के रास्ते पिछले दरवाजे से आ रहा है? क्या हम क्रमश: राजतंत्र की ओर बढ़ रहे हैं? क्या नेतृत्व जमीनी स्तर पर प्रत्यक्ष जन-सम्पर्क एवं जन-सेवा के माध्यम से ऊपर उभर रहा है अथवा जाति, क्षेत्र, पंथ आदि संकुचित निष्ठा वाले थोक वोटों की ठेकेदारी कर रहा है? वह उन थोक वोटों को अपनी बपौती समझता है और अपनी व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा की पूर्ति के लिए धड़ाधड़ दल-बदल करता है। उसके लिए सिद्धान्त और आदर्शवाद का कोई मूल्य नहीं है। जब तक वे थोक वोट उसकी जेब में हैं, उसका व्यक्तिगत राजनीतिक भविष्य सुरक्षित है। क्यों हमारी चुनाव राजनीति में फिल्मी कलाकारों, बाहुबलियों और धनपतियों की संख्या एवं वर्चस्व बढ़ता जा रहा है? क्यों बड़े-बड़े राजनीतिक दल निर्लज्जता के साथ धनपतियों को राज्यसभा का टिकट देते हैं? क्यों नहीं उन्हें जनता के बीच काम करके जन-भावनाओं और जन-आकांक्षाओं के साथ एकात्म होकर ऊपर आना चाहिए? उन्हें टिकट देने की राजनीतिक दलों की क्या मजबूरी है? क्या इसलिए कि पूरी चुनाव-प्रणाली धन-बल केन्द्रित हो गई है? जिसके पास पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं हैं वह या तो चुनाव मैदान में उतर नहीं सकता, और यदि उतरे भी तो जीत नहीं सकता। अगर धोखे से जीत जाए तो आगे नहीं बढ़ सकता। राजनीतिक नेता दिखावे के लिए चाहे जितना शोर मचाए, धन शक्ति का महत्व तो बढ़ता ही जा रहा है। ऐसा क्यों होता है कि हमारे लोकतंत्र में सच्चे मन से जनसेवा करने वाले सज्जन लोग चुनाव हार जाते हैं और बाहुबली लोग जेल में बंद रहते हुए भी जीत जाते हैं? क्या यह स्थिति लोकतंत्र की प्रगति का परिचायक है?

क्यों अब राजनीतिक दल चुनाव प्रचार के लिए फिल्मी कलाकारों का अधिकाधिक उपयोग करने लगे हैं? क्यों कोई भी फिल्म कलाकार पहली बार में ही किसी अनजाने चुनाव क्षेत्र में जाकर चुनाव जीत जाता है? रामपुर से आन्ध्र प्रदेश की जयप्रदा और जोधपुर से धर्मेन्द्र की जीत का रहस्य क्या है? लम्बे समय से मुम्बई की जनता से जुड़े राम नाईक के विरुद्ध पहली बार चुनाव मैदान में कूदे गोविंदा को विजय क्यों मिली? कांग्रेस पार्टी ने भी राम नाईक के विरुद्ध किसी पार्टी कार्यकर्ता को खड़ा करने की बजाय “हीरो नं. 1” को ही मैदान में क्यों उतारा? इस स्थिति का दायित्व किस पर है जनता पर, दलों पर या स्वयं चुनाव-प्रणाली पर? चुनाव-प्रणाली के मुख्य औजार हैं प्रेस, प्लेटफार्म और प्रदर्शन या “प्रोटेस्ट”। तीनों का ही लक्ष्य होता है मीडिया के माध्यम से जनता के सामने अपनी लुभावनी छवि को उभारना। टेलीविजन के बाद तो इसका महत्व और अधिक बढ़ गया है कि आप दीखते कैसे हैं, जनमानस में आपकी छवि कैसी बनती है। इसका आपके चरित्र से, आपकी बुद्धि से, जनसेवा के आपके लम्बे अनुभव से कोई सम्बन्ध नहीं है। अब आप “रोड शो” करिए, रथयात्रा निकालिए, मंच पर कैसा भाषण देते हैं, नाटकीयता का कितना प्रदर्शन कर पाते हैं…। इस दृष्टि से देखें तो हमारा लोकतंत्र आगे बढ़ रहा है या पीछे हट रहा है?

लोकतंत्र का सूत्र

लोकतंत्र का एक नियामक सूत्र है कि जैसा समाज होगा, वैसा ही नेतृत्व वह चुनकर ऊपर भेजेगा? अर्थात् लोकतंत्र में सत्ता और नेतृत्व समाज के चरित्र को प्रतिबिम्बित करते हैं। अत: यह जानना बहुत आवश्यक है कि हमारे लोकतंत्र की 50-55 वर्ष लम्बी यात्रा में से कैसा लोकजीवन विकसित हुआ है, हमारे समाज की चारित्रिक स्थिति आज कैसी है? क्या इन पचास वर्षों में हमारी इतिहासप्रदत्त संकुचित निष्ठाओं का भावनात्मक अध्ययन हुआ है? अखिल भारतीय राष्ट्रीयता का भाव बढ़ा है या घटा है? क्या व्यापक राष्ट्रहित में अपने तात्कालिक संकुचित स्वार्थों के त्याग की भावना प्रबल हुई है? हमारा आदर्श था, “कुल के लिए व्यक्ति, ग्राम के लिए कुल, जनपद के लिए ग्राम और आत्मा अर्थात् मानव के लिए पृथ्वी तक को त्याग देना चाहिए।” इन पचास वर्षों में हम इस आदर्श की ओर आगे बढ़े हैं या पीछे हटे हैं? यदि बाहुबली और दागी नेता यह गर्वोक्ति करें कि आप हमारी नैतिकता पर उंगली उठाने वाले कौन होते हैं, हमें जनता ने चुनकर भेजा है, हम एक ही चुनाव क्षेत्र से बार-बार जीतकर आ रहे हैं, जिसका अर्थ है कि जनता हमें पसंद करती है, वह हमें अपना प्रतिनिधि मानती है, हम पर उंगली उठाकर क्या आप जनमत का अनादर नहीं कर रहे हैं? आखिर लोकतंत्र में जनमत का निर्णय ही अंतिम होता है। इस तर्क का आपके पास क्या उत्तर है?

यह सत्य तो अब हमें स्वीकार कर ही लेना चाहिए कि हमारे लोकतंत्र की पचपन वर्ष लम्बी यात्रा में से जो समाज जीवन विकसित हुआ है वह भ्रष्टाचार का आकंठ बंदी बना हुआ है। उसका यह भ्रष्टाचारी चरित्र सभी प्रशासनिक, न्यायिक, शैक्षणिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में प्रतिबिम्बित हो रहा है। सेना और पुलिस आदि सुरक्षाबलों में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानियां भी अब आये दिन प्रकाश में आने लगी हैं। तो कौन किसके भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाएगा? हरेक का एक हाथ दूसरे की जेब में है और हरेक अपने सिवाय सब पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहा है।

कुल और समाज की मर्यादाएं अब उपहास का विषय बन गयी हैं। सेक्स, सुरा और वैभव प्रदर्शन को ही प्रगति का मापदंड मान लिया गया है। सामाजिक मर्यादाओं और नैतिक मूल्यों का आग्रह करने वालों की “कल्चरल पुलिस” कहकर हंसी उड़ायी जाती है। आर्थिक विषमता का दृश्य भयावह होता जा रहा है। एक ओर अंधाधुंध विलासिता और वैभव प्रदर्शन, दूसरी ओर गरीबी में डूबे, भूख से व्याकुल, छत से वंचित करोड़ों देशवासी। उनकी यह गरीबी भी राजनीतिज्ञों की सत्ताकांक्षा पूर्ति का हथियार बन गयी है। नेताजी वातानुकूलित सिनेमा घर में अश्लील फिल्म देखकर, पांच सितारा होटल में मुर्ग-मुसल्लम खाकर और वातानुकूलित कार में बैठकर सभास्थल पर आते हैं और गरीबी का ऐसा नाटकीय हृदय-विदारक वर्णन करते हैं कि श्रोतागण आंसू बहाते हैं, नेताजी की जय-जयकार करते हैं और उनको अपना एकमात्र उद्धारक समझने लगते हैं। यानी हमारे सार्वजनिक जीवन में कथनी और करनी में कोई मेल नहीं रह गया है। शब्द खोखले हो गए हैं, मंच पर अभिनय ही जनता को लुभाने का प्रमुख माध्यम बन गया है।

समाज का उत्थान या पतन

जब समाज के सामने आदर्श आचरण का उदाहरण नहीं रहता, केवल सेक्स, समृद्धि और वैभव प्रदर्शन ही समाज में प्रतिष्ठा की कसौटी बन जाती है, तो समाज अपने संकुचित स्वार्थ को सर्वोपरि मानने लगता है। मानव एकता तो दूर, वह राष्ट्रीय एकता को भी अपने संकुचित स्वार्थों का शत्रु मानने लगता है। वह राष्ट्र से ऊपर जनपद, जनपद से ऊपर गांव, गांव से ऊपर अपने परिवार और परिवार से ऊपर अपने निजी सुख और स्वार्थों को महत्व देने लगता है। वोट बैंक राजनीति ने पिछले पचास वर्षों में राष्ट्रीय एकता की भावना को शिथिल करने और जाति, क्षेत्र, पंथ की संकुचित निष्ठाओं को अधिकाधिक उभारने और पुष्ट करने का कार्य किया है। फलस्वरूप आज हमारा समाज जीवन जड़-मूल तक विखंडित हो गया है। प्रत्येक राजनीतिज्ञ पर किसी न किसी जाति, क्षेत्र या पंथ की छवि आरोपित कर दी गई है। वह भी इस छवि में अपनी राजनीतिक ताकत देखने लगा है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है कि प्रधानमंत्री पद के लिए मनमोहन सिंह के चयन को एक अर्थ विशेषज्ञ और कुशल प्रशासक के चयन के रूप में देखने की बजाय सिख पंथ की विजय के रूप में प्रस्तुत किया गया। उनके प्रधानमन्त्री बनने पर गुरुद्वारों में रोशनी की गई, सड़कों पर लड्डू बांटे गए। इसमें सन्देह नहीं कि मनमोहन सिंह का जन्म सिख परिवार में होने के कारण वे एक निष्ठावान सिख हैं, किन्तु साथ ही वे भारतीय हैं, पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करते हैं। व्यक्तियों को छोटा करने की यह प्रवृति बढ़ती जा रही है। फलत: समाज जड़-मूल तक विखंडित हो गया है। और यह सामाजिक विखंडन राजनीतिक बिखराव में प्रगट होने लगा है। अब लोग यह मान बैठे हैं कि अखिल भारतीय राष्ट्रीयता के आधार पर किसी एक दल का अब पूर्ण बहुमत में आना असंभव है। इसलिए छोटे-छोटे दलों और राजनीतिज्ञों की व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा की जोड़तोड़ को “गठबंधन धर्म” के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है।

भ्रष्टाचार का आकंठ बंदी बने, नैतिक मूल्यों से शून्य और विखंडित समाज जीवन को खड़ा करने के लिए ही क्या हमने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए कई पीढ़ियों तक लम्बी लड़ाई लड़ी थी? क्या हमारे स्वातंत्र्य आंदोलन की यही मुख्य प्ररेणा थी? क्या ऐसे समाज जीवन का चित्र खड़ा करके भारत स्वयं को विश्वगुरु कहलाने का सपना देखता था? यदि नहीं तो स्वाधीन भारत का भटकाव कहां से शुरू हुआ? क्या इसका कारण यह नहीं है कि 1947 में सत्ता-परिवर्तन को ही हम राष्ट्र-निर्माण का एकमात्र उपकरण मान बैठे और सत्ता-राजनीति ही सम्पूर्ण सार्वजनिक जीवन का केन्द्रबिन्दु बन गयी। येन-केन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति ही जीवन की मुख्य प्रेरणा बन गयी। गांधी को हमने छोड़ दिया और नेहरू को अपना आदर्श मान लिया। जिस ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को हमने अपनाया उसमें सत्ता प्राप्ति का एकमात्र साधन है चुनाव जीतना। चुनाव जीतने के लिए थोक वोट चाहिए, वोटों को जुटाने के लिए कार्यकर्ता चाहिए, कार्यकर्ताओं को बटोरने के लिए आदर्शवाद और विचारधारा के साथ-साथ आर्थिक साधन चाहिए। राजनीतिज्ञों ने थोक वोटों के लिए जाति, क्षेत्र और मजहबी मतभेदों को पैदा करना, उभारना शुरू किया।

सांस्कृतिक चेतना के आधार

वस्तुत: “ब्रिटिश माडल” की यह राजनीतिक प्रणाली ही हमारे नेतृत्व को भ्रष्टाचारी बनाने और समाज को विखंडित करने का मुख्य कारण बनी। प्रत्येक जीवन-दर्शन को अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक अभिनव सामाजिक, आर्थिक, प्रशासनिक, शैक्षणिक, न्यायिक एवं राजनीतिक संचरना खड़ी करनी होती है। किन्तु स्वाधीन भारत ने पिछले पचास वर्षों में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा आरोपित संस्थाओं का ही “दिन-दूना, रात-चौगुना” विस्तार किया है। अब स्थिति यह है कि ये सब संस्थाएं अपनी अन्तर्शक्ति और प्रासंगिकता खो चुकी हैं, सब भ्रष्टाचार में लिप्त हैं और आपस में टकरा रही हैं। हम केवल निष्प्राण संस्थाओं का बोझ ढो रहे हैं। इस दु:स्थिति से बाहर निकलने का उपाय क्या है? इसका एकमात्र उपाय है नैतिक, जाग्रत लोकशक्ति का निर्माण। यह शक्ति वर्तमान राजनीतिक प्रणाली के माध्यम से खड़ी नहीं हो सकती। उसे राजनीति के समानान्तर, सत्ता-राजनीति से अलिप्त, आदर्शनिष्ठ मनीषियों की साधना से ही खड़ा किया जा सकता है। दयानन्द-बंकिम, विवेकानन्द-अरविन्द, तिलक-लाजपतराय और महात्मा गांधी तक महापुरुषों की मालिका के चिंतन और साधना में से ही वह सांस्कृतिक चेतना जगी, जिसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक धरातल पर स्वतंत्रता प्राप्ति के राष्ट्रीय आंदोलन के रूप में प्रगट हुई।

इस सांस्कृतिक चेतना को ही आजकल “हिन्दुत्व” नाम से अभिहित किया जाता है। हिन्दुत्व कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है जिसे कपड़ों के समान चाहे जब पहन लिया जाए, चाहे जब उतार दिया जाए। यह एक जीवन-दर्शन है, एक जीवन-पद्धति है, एक आस्था है, जो शब्दों से अधिक व्यक्तिगत जीवन शैली में प्रतिबिम्बित होनी चाहिए। 1915 में भारत आगमन के बाद गांधीजी अल्पकाल में ही भारतीय मानस को झंकृत करने में सफल हो सके, इसका एकमात्र कारण यह था कि उन्होंने अपनी दिनचर्या, जीवनशैली, भाषा एवं कार्यपद्धति के द्वारा भारतीय समाज की सांस्कृतिक चेतना के साथ स्वयं को एकरूप कर दिया। भारत के निर्धन, अनपढ़ ग्रामीण ने उनमें अपना सच्चा प्रतिनिधि देखा। पांच सितारा होटलों में बैठकर केवल शब्दाचार के द्वारा हिन्दुत्व की चेतना को जगाना संभव नहीं है। आज आवश्यकता है कि भारत के आध्यात्मिक आदर्शों के प्रति समर्पित, संस्कृतिनिष्ठ साधक नैतिक लोकशक्ति को खड़ा करने के लिए नयी कार्यपद्धति की खोज करें। जैसे मेलों, पर्वों उत्सवों और तीर्थाटन आदि परंपरागत सांस्कृतिक लोक संस्थाओं के माध्यम से लोक जागरण, लोक संग्रह और लोक व्यवस्था की वैकल्पिक कार्य पद्धति को युगानुरूप नैतिक, बौद्धिक अधिष्ठान प्रदान करें। जाग्रत नैतिक लोकशक्ति ही लोकतंत्र का प्राण होती है। (25-6-2004)

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