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देवेन्द्र स्वरूप
अमरीका, पाकिस्तान और भारत
पाकिस्तान सचमुच भाग्यशाली है कि उन क्षणों में जब उसके अस्तित्व पर ही संकट आ गया था, उसे परवेज मुशर्रफ के रूप में एक चतुर सैनिक प्रशासक प्राप्त हुआ। अपने व्यक्तिगत कूटनीतिक चातुर्य से जनरल मुशर्रफ ने संसार के सबसे शक्तिमान राष्ट्रपति जार्ज बुश के साथ जो व्यक्तिगत मित्रता स्थापित की है, वह स्पृहणीय है। पिछले चार वर्षों में मुशर्रफ को बुश से आठ बार लंबी एकांत वार्ताएं करने का अवसर मिला। यहां तक कि राष्ट्रपति बुश ने कैंप डेविड में मुशर्रफ को अपने निजी आतिथ्य का भी सम्मान दिया। पिछली भेंट में बुश ने मुशर्रफ पर प्रशंसा की बौछार कर दी। मुशर्रफ को विश्वनेता बताते हुए जार्ज बुश ने फरमाया कि मुशर्रफ से मेरा रिश्ता ऐसा है कि मैं अपने इस मित्र से फिलिस्तीन राज्य की स्थापना जैसी अंतरराष्ट्रीय समस्याओं को सुलझाने में सहयोग की अपेक्षा कर सकता हूं। पाकिस्तान में लोकतंत्र की स्थापना के मुशर्रफ के प्रयत्नों की सराहना करते हुए बुश बोल गए कि पाकिस्तान के उदाहरण से विश्व यह मान सकता है कि मुस्लिम देश भी लोकतांत्रिक व्यवस्था अपना सकते हैं। क्या बुश की दृष्टि में एक ही व्यक्ति में प्रधान सेनापति और राष्ट्रपति के पदों का केंद्रीयकरण लोकतंत्रीय व्यवस्था है? क्या वे सैनिक लोकतंत्र को ही आदर्श समझते हैं? कैसी विचित्र स्थिति है कि एक ओर तो पाकिस्तान की जनता परेशान है कि जनरल मुशर्रफ ने दिसम्बर, 2005 तक प्रधान सेनापति पद त्यागने के अपने वचन को तोड़कर चालाकी से अपने को सन् 2007 तक सुरक्षित कर लिया है, दूसरी ओर विश्व के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र का मुखिया उसकी पीठ थपथपा रहा है।
जार्ज बुश ने कहा कि “पाकिस्तान के साथ हमारे सम्बंध अच्छे हैं, सुदृढ हैं और वे हमेशा ऐसे ही रहेंगे।” मुशर्रफ की इस अंधी प्रशंसा को अमरीकी मीडिया भी नहीं पचा पाया। लास एंजिल्स टाइम्स ने उसकी कड़ी आलोचना की।
राष्ट्रपति बुश के इस अनुकूल रुख का स्वाभाविक परिणाम हुआ कि Ïक्लटन प्रशासन ने सन् 1999 में मुशर्रफ के कारगिल आक्रमण और सैनिक तख्तापलट से क्षुब्ध होकर पाकिस्तान को शस्त्रास्त्र आदि की सप्लाई पर जो प्रतिबंध लगाए थे, उन्हें अमरीकी कांग्रेस ने दो वर्ष के लिए हटा दिया और पाकिस्तान को 3 अरब डालर की आर्थिक सहायता का द्वार खोल दिया। इनमें से डेढ़ अरब डालर के आधुनिक शस्त्रास्त्र पाकिस्तान को दिए जा रहे हैं। कहा गया है कि हथियारों की यह सप्लाई “आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई” के लिए दी जा रही है। किन्तु हथियारों का बड़ा हिस्सा नौसेना और वायुसेना के लिए है। कौन-सा आतंकवादी गिरोह है जो नौसेना और वायुसेना का उपयोग करने की स्थिति में है? यदि नहीं है तो भारत के अतिरिक्त कौन-सा देश है जिसके विरुद्ध पाकिस्तान को वायुसेना और नौसेना का उपयोग करने की आवश्यकता पड़ सकती है? यदि जनरल मुशर्रफ और जार्ज बुश की दोस्ती का मुख्य आधार आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष है तो इस संघर्ष में भारत से अधिक विश्वसनीय और दृढ़ मित्र कौन हो सकता है? 11 सितम्बर, 2001 के बाद जिस आतंकवाद से अमरीका त्रस्त व भयभीत है उस आतंकवाद को भारत अनेक रूपों में 1300 साल से झेलता आ रहा है और उसकी धार को कुंठित करने में समर्थ भी हुआ है। भारत उस आतंकवाद की नस-नस से वाकिफ है।
क्या पाकिस्तान बदल गया?
भारत को बहलाने के लिए अमरीकी रक्षा मंत्री डोनाल्ड रम्सफील्ड दिल्ली पधारे। उन्होंने भारत को भी अनेक नए शस्त्रास्त्र बेचने की पेशकश की। भारत स्थित अमरीकी राजदूत डेविड मलफोर्ड ने कहा कि पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान देने पर अभी कोई अन्तिम फैसला नहीं हुआ है। पर पाकिस्तान ने स्पष्ट कर दिया कि एफ-16 विमानों की सप्लाई से भारत-पाक मैत्री संवाद की प्रक्रिया पर कोई असर नहीं पड़ेगा। क्योंकि इन विमानों की सप्लाई का अर्थ भारत से शत्रुता नहीं है। क्या अमरीका और पाकिस्तान चाहते हैं कि हम भारत के प्रति पाकिस्तान की पिछले 57 साल की शत्रुतापूर्ण नीति को भूल जाएं? भारत पर पाकिस्तान द्वारा थोपे गए पांच युद्धों को भुला दें? घृणा और पृथकतावाद की जिस विचारधारा में से पाकिस्तान का जन्म हुआ था, क्या अब उसने पूरी तरह त्याग दी है? पूरा विश्व जिस इस्लामी आतंकवाद से त्रस्त है, क्या उस आतंकवाद की जड़ें इस्लामी विचारधारा में से निकाल फेंकने के लिए पाकिस्तान में कोई गम्भीर विचार मंथन एवं आत्मालोचन हुआ है? क्या कोई ऐसा संकेत विद्यमान है कि मुस्लिम मन को जिहाद के रास्ते पर धकेलने वाली सातवीं शताब्दी की विचारधारा में मौलिक परिवर्तन करने का कोई संकल्प लिया गया है? यदि ऐसा कोई विचार-मंथन और संकल्प होता तो उसके लक्षण भारतीय मुसलमानों में दिखायी देने चाहिए थे, किन्तु दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि भारत में मुस्लिम राजनीति अभी भी विभाजन पूर्व पृथकतावादी दिशा में ही बढ़ रही है।
ऐसी स्थिति में पाकिस्तान को शस्त्र देने का अर्थ है उसे भारत पर आक्रमण के लिए प्रोत्साहित करना और चिन्तित भारत को शस्त्र बेचने का लालच दिखाने का अर्थ है कि अमरीका विश्व शांति के उपासक से अधिक शस्त्रों का लालची व्यापारी मात्र है।
हित की चिंता
पाकिस्तान को आर्थिक और सामरिक सहायता देने पर ही बात नहीं रुक जाती है। पिछले सप्ताह अमरीकी कांग्रेस ने एक नया अधिनियम पारित किया है जिसे 9/11 आयोग की सिफारिशों का क्रियान्वयन अधिनियम कहा जा रहा है। इस अधिनियम को गुप्तचरी सूचना सुधार एवं आतंकवाद निरोधक अधिनियम जैसा नाम भी दिया गया है। इस अधिनियम के अनुच्छेद 1703 में पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बारे में जो अनेक निर्णय लिए गए हैं वे भारत के भविष्य को सीधे-सीधे प्रभावित करते हैं। इस अनुच्छेद में कहा गया है कि-
आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में पाकिस्तान की अहम भूमिका है।
पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति, प्राकृतिक रचना एवं सामाजिक दशा चरमपंथियों को सहज ही आकर्षित करती है।
इस क्षेत्र की स्थिरता के लिए स्थिर और उदार पाकिस्तान का अस्तित्व आवश्यक है।
अत: कांग्रेस प्रस्ताव करती है कि अमरीका को
पाकिस्तान के उज्ज्वल, स्थिर एवं सुरक्षित भविष्य के लिए प्रयास करना चाहिए।
उसके पड़ोसियों के साथ पुराने विवादों को सुलझाने में मदद करनी चाहिए।
पाकिस्तान को अपनी समूची भूमि और सीमाओं पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने में सहयोग देना चाहिए।
उसे अधिक प्रभावी व जनसहयोग वाले लोकतंत्र के रास्ते पर बढ़ाना चाहिए।
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को आधुनिकीकरण और विश्व बाजार में अधिक सहभाग के लिए सहायता करनी चाहिए।
सामूहिक संहार के शस्त्रों के विस्तार को रोकने के लिए सभी कदम उठाने चाहिए।
पाकिस्तान में शिक्षा के सुधार और प्रसार की प्रक्रिया को बल प्रदान करना चाहिए।
इसके अतिरिक्त पाकिस्तान को आर्थिक सहायता की समयावधि को 2009 से आगे अनिश्चित काल के लिए बढ़ा दिया गया।
इस अधिनियम का अनुच्छेद 4082 भारत के लिए विशेष चिन्ताजनक है। उसमें कहा गया है कि “अमरीकी सरकार पाकिस्तान को उसके पड़ोसी मुल्कों के साथ लंबित मामलों, समस्याओं के समाधान में मदद करेगी”। यह अनुच्छेद स्पष्टतया कश्मीर समस्या की ओर इशारा करता है, क्योंकि पाकिस्तान की अब तक की विदेशनीति और रक्षानीति का वही केन्द्रबिन्दु रहा है। 1947 से अब तक की प्रत्येक पाकिस्तान सरकार और वर्तमान मुशर्रफ प्रशासन का प्रत्येक प्रवक्ता केवल कश्मीर की ही बात करता है। मुशर्रफ ने भी अपनी पिछली विदेश यात्रा में अमरीका, ब्रिाटेन व फ्रांस में कश्मीर समस्या से अन्तरराष्ट्रीय हस्तक्षेप का राग अलापा। अनुच्छेद 4082 कश्मीर समस्या में अमरीकी हस्तक्षेप का मार्ग प्रशस्त करता है। स्पष्ट है, यह 1971 के शिमला समझौते में इस समस्या का द्विपक्षीय हल निकालने के पाकिस्तानी वचन का उल्लंघन है। अमरीकी कांग्रेस द्वारा पारित अधिनियम के उपरोक्त प्रावधानों से स्पष्ट है कि अमरीका ने पाकिस्तान के आंतरिक विकास व सीमाओं की सुरक्षा का पूर्ण दायित्व अपने कंधों पर संभाल लिया है।
यह कैसा अनुराग?
यह एकपक्षीय अनुग्रह है। पाकिस्तान ने इसके लिए किसी प्रकार का कोई आश्वासन या वचन अमरीका को नहीं दिया है, बल्कि वह अपने रास्ते पर ही बढ़ रहा है।
अमरीका के बार-बार आह्वान करने पर भी पाकिस्तान ने इराक युद्ध में सेनाएं नहीं भेजीं।
ओसामा बिन लादेन की गिरफ्तारी के सवाल पर मुशर्रफ लगातार बयान बदलते रहे हैं और अमरीका को भुलावे में रखते रहे हैं। आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष में उनका एकमात्र योगदान कुछ लोगों को अलकायदा के नाम पर गिरफ्तार करके अमरीका को लौटाने तक सीमित है। पाकिस्तान सरकार का दावा है कि उन्होंने ओसामा को पकड़ने के लिए सी.आई.ए. को अपने यहां प्रवेश नहीं करने दिया है।
उल्टे, मुशर्रफ पश्चिम के आतंकवाद विरोधी संघर्ष को पथभ्रष्ट व निरर्थक बताते हैं। वे सगर्व घोषित करते हैं कि पाकिस्तान ही इस्लाम का अंतिम रक्षा दुर्ग है।
अब यह प्रमाणित हो चुका है कि पाकिस्तान ने ही परमाणु शस्त्रों का रहस्य ईरान, लीबिया आदि देशों को दिया। इसके लिए जिम्मेदार पाकिस्तानी वैज्ञानिक अब्दुल कादिर खान के विरुद्ध मुशर्रफ ने अन्तरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की। उसे जनरल मुशर्रफ का व्यक्तिगत संरक्षण प्राप्त है।
पाकिस्तान ने अपनी परमाणु शक्ति को न केवल ज्यों का त्यों सुरक्षित रखा है बल्कि उसे बढ़ाने के लिए नए-नए उपाय खोज रहा है। आज ही के समाचारों के अनुसार पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शौकत अजीज ने 16 दिसम्बर को बीजिंग में चीन सरकार से चास्मा अणुशक्ति संयंत्र के लिए डेढ़ अरब डालर की आर्थिक सहायता प्राप्त की है। कैसी विचित्र स्थिति है कि चीन को अमरीका का मुख्य स्पर्धी कहा जा रहा है पर पाकिस्तान दोनों से सहायता बटोर रहा है।
जनरल मुशर्रफ खाकी वर्दी उतारने की अपनी घोषणा से पीछे हट रहे हैं, जिसका अर्थ है सच्चे लोकतंत्र की हत्या।
कश्मीर प्रश्न पर उन्होंने अब तक कोई लचीला रुख नहीं दिखाया है। अमरीकी कांग्रेस द्वारा पारित इस अधिनियम के विरुद्ध कई प्रभावशाली अमरीकी सीनेटरों ने राष्ट्रपति बुश को पत्र लिखा है। पर भारत की भावनाओं और अमरीकी विरोध की चिन्ता किए बिना राष्ट्रपति बुश ने अपने हस्ताक्षर देकर इस अधिनियम को अंतिम रूप देने का निश्चय कर लिया है।
कहां है भारतीय कूटनीति?
अमरीका में मुशर्रफ की यह अप्रत्याशित सफलता भारतीय कूटनीति की भारी पराजय है। इसके लिए भारत स्वयं जिम्मेदार है। मुशर्रफ ने बार-बार अपने राष्ट्रीय हितों को स्पष्ट शब्दों में घोषित किया, 9/11 के बाद जब अमरीका ने अफगानिस्तान पर आक्रमण करने का निर्णय ले लिया, जिससे पाकिस्तान के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया, तो मुशर्रफ ने तुरंत अमरीका से दोस्ती कर ली और निम्नलिखित राष्ट्रहित घोषित किए-
भारत को अमरीका से दोस्ती गहरी करने का अवसर न देना
कश्मीर पर पाकिस्तान की स्थिति को कमजोर न होने देना
पाकिस्तान की सीमाओं को सुरक्षित रखना
पाकिस्तान की अणुशक्ति को नष्ट होने से बचाना
पाकिस्तान के लिए अमरीकी आर्थिक सहायता प्राप्त करना
पाकिस्तान को इस्लाम का अंतिम दुर्ग बनाना
पर भारत, जिसके पास इस्लामी पृथकतावाद एवं विस्तारवाद के जिहादी संघर्ष का 1300 वर्ष लंबा अनुभव है, उसका नेतृत्व तुच्छ सत्ता की वोट बैंक राजनीति का बंदी बन गया है। वह मुस्लिम पृथकतावाद के तुष्टीकरण में लगा है और उसने राष्ट्रवाद को अपना शत्रु घोषित कर दिया है। जिस देश का नेतृत्व राष्ट्रहितों का अपने व्यक्तिगत एवं दलीय स्वार्थों के लिए बलि देने को तैयार हो, जिस देश का विदेश मंत्री विदेशी धरती पर अपने ही देश की अणु शक्ति की दलीय भावना से निन्दा करे, वह देश विश्व में ठोकरें खाता रहे तो क्या आश्चर्य! स्वार्थी, अदूरदर्शी नेतृत्व, विभाजित समाज और विखण्डित राजनीति ही भारत का मुख्य संकट है। 17.12.2004
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हमने अपने वैचारिक
समर्थकों की ओर
ध्यान नहीं दिया
श्रीलालकृष्ण आडवाणी द्वारा राष्ट्रीय कार्यकारिणी के समक्ष 23 जून को दिए गए भाषण के मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं-
भाजपा ने हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि केवल सामूहिक प्रयासों से ही सफलता पायी जा सकती है। इसी प्रकार, असफलता की स्थिति में हम सामूहिक जिम्मेदारी में विश्वास करते हैं।
इसके बावजूद सामूहिक जिम्मेदारी का अर्थ यह नहीं कि हम अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी से मुक्त हो गए हैं। जहां तक मेरा सम्बंध है मैं स्वीकार करता हूं कि चुनाव परिणामों के लिए मैं भी किसी प्रकार से जिम्मेदार हूं। दिल्ली में अपनी पहली पत्रकारवार्ता में मैंने अपनी भारत उदय यात्रा की कुछ कमियों की ओर इंगित किया था।
राष्ट्रीय कार्यकारिणी की यह बैठक उसी आत्ममंथन की प्रक्रिया का अंग कही जा सकती है जो तब शुरू हुआ था जब 13 मई के पूर्वत: अप्रत्याशित चुनाव परिणामों ने हमें स्तब्ध कर दिया था। हममें से प्रत्येक अपने अपने तरीके से आत्ममंथन और कारणों की तलाश कर रहा है जो मुम्बई से हमारे लौटने के बाद भी जारी रहेगी।
फिर भी यह पहली बार है कि हमें इकट्ठा बैठने और अपने विचार बांटने का अवसर मिला है। यह सही है कि चुनाव परिणामों की गहरी और समग्र समीक्षा के लिए निर्वाचन क्षेत्र तक से प्राप्त सभी सम्बंधित तथ्यों पर आधारित एक भिन्न तथा व्यवस्थित पद्धति की जरूरत होगी, इसीलिए हमें यह दायित्व एक लघु समिति को सौंपा है। यह समिति न केवल चुनावों में हमें मिले धक्के के कारणों की समीक्षा करेगी बल्की भविष्य के लिए समाधान कारक उपाय भी सुझाएगी। इस समिति की रपट और उस पर राष्ट्रीय कार्यकारिणी में विचार के साथ ही चुनाव परिणामों पर मंथन की प्रक्रिया पूरी मानी जाएगी।
इस बैठक में आपके समक्ष अपने आत्ममंथन के मुख्य बिन्दु रखना चाहूंगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि हमारे लिए पुन: जनादेश प्राप्त करने हेतु बहुत अनुकूल माहौल था।
राजग सरकार के छह वर्षों ने देश को हर मोर्चे पर आगे बढ़ते देखा। हमें श्री अटल जी के नेतृत्व का आशीष मिला, जो कि सारी दुनिया में भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्रियों में से एक के नाते प्रशंसा हुई। पूरे देश में कहीं भी सरकार विरोधी मन का आभास तक न था। वास्तव में जो माहौल था, उससे यही प्रकट होता था कि लोग आमतौर पर श्री अटल जी की सरकार को एक और नया जनादेश देने के पक्ष में हैं।
सच पूछें तो यही जन-मन और माहौल को देखकर हमने चुनावों को छह महीने पहले कराने का फैसला किया। तब हम क्यों अपेक्षित संख्या में लोकसभा स्थानों पर नहीं जीत पाए?
मेरे लिए न तो यह संभव है न ही जरूरी कि उन बहुविध कारणों पर नजर दौड़ाऊं, जिन्होंने हमारी इस स्थिति को बनाया। फिर सच यह भी है कि चुनावों का पूरा परिणाम विभिन्न राज्यों के अलग-अलग प्रकार के परिणामों का एक योग है।
पर मैं आपके साथ एक उस प्रमुख बात को बांटना चाहूंगा जो मेरे दिलो दिमाग पर छायी हुई है। और वह यह है कि क्या हम शासन और राजनीति के मध्य सूत्रहीनता के शिकार हो गए? सरकार चलाने और विकास के मोर्चे पर हमारा कामकाज बहुत अच्छा था। लेकिन शायद हमारी राजनीतिक रणनीति विवेकपूर्ण नहीं रही।
यह बात मैं अपने दो प्रकार के समर्थक क्षेत्रों की उपेक्षा के सन्दर्भ में समझाना चाहूंगा। एक क्षेत्र तो निश्चय ही वह भौगोलिक निर्वाचन क्षेत्र है जिसकी प्रत्येक सांसद को देखभाल करनी पड़ती है और पार्टी ने पुन: उसे टिकट दिया तो वहां से चुनकर आने की अपेक्षा होती है। यह तथ्य कि हमारे 50 प्रतिशत से अधिक चुने गए सांसद चुनाव हार गए, यह बताता है कि उनके अपने काम में कमियां रहीं उनकी हार के कुछ अन्य कारण भी हो सकते हैं, पर कुछ समय से सांसदों और विधायकों के उचित राजनीतिक व्यवहार की कमी चुनाव में हार का मुख्य कारण उभर कर सामने आ रहा है।
संभवत: इन (हारे हुए) अनेक सांसदों ने अपने निर्वाचन क्षेत्रों की ठीक प्रकार से देखभाल नहीं की। उनका अपने क्षेत्र में विभिन्न वर्गों के साथ उचित व्यवहार नहीं रहा। इसी के साथ इतनी ही महत्वपूर्ण यह बात है कि शायद उन्हें स्थानीय पार्टी इकाइयों व कार्यकर्ताओं के साथ उचित समन्वय के साथ काम नहीं किया।
संभवत: यही वह कार्य था कि इन निर्वाचन क्षेत्रों में पार्टी कार्यकर्ताओं में उत्साह तथा उम्मीदवार जिताने के सामूहिक संकल्प की कमी दिखी।
इसी के साथ हमने यह भी देखा कि इस बार एक और महत्वपूर्ण समर्थक क्षेत्र था जिसमें हमारे उम्मीदवार को जिताने के एकजुट संकल्प और उत्साह की कमी थी। वह क्षेत्र है हमारी विचार-धारा के समर्थकों का क्षेत्र।
मैं इसे अपना “वोट बैंक” नहीं कहता क्योंकि हम वोट बैंक राजनीति में विश्वास नहीं करते।
मैं यह भी बताना चाहूंगा कि भारतीय समाज की विशिष्ट प्रकृति के अनुसार प्रत्येक राजनीतिक दल का एक अलग “समर्थक-क्षेत्र” होता है। कोई भी पार्टी किसी ऐसे आदर्श समर्थक-क्षेत्र का निर्माण नहीं कर सकती जिसमें वह चुनावी राजनीति में अपने उद्देश्य हासिल करने के लिए काम करना चाहती है। हर पार्टी के किसी भी आसन्न परिस्थिति में अनिवार्यत: एक खास समर्थक क्षेत्र के साथ ही काम करना पड़ता है।
किसी भी अन्य पार्टी की तरह जो लोकतांत्रिक ढंग से बढ़ना चाहती है, भाजपा ने भी समझ बूझकर पिछले दशकों में अपना आधार बढ़ाने का प्रयास किया है। पर विस्तार तभी संभव है जब हम उसे बचा सकें जो हमारे पास है, न कि उसकी कीमत पर।
हमारे वैचारिक समर्थक क्षेत्र के तीन पहलू हैं- 1. हमारे कार्यकर्ता, 2. हमारा वैचारिक परिवार, 3. और हमारा सामाजिक समर्थक-आधार।
हमारी एक विचारधारा आधारित पार्टी है और पिछले कई दशकों से वस्तुत: भारतीय जनसंघ के … से ही हमारे समाज का एक वर्ग हमें अपने विचारों तथा उस हिन्दुत्व के आदर्श के कारण लगातार समर्थन देता
आ रहा है और बढ़ रहा है जिसके इस ध्वजवाहक रहे है।
हम आज जिस स्थिति में हैं, उस स्थिति तक लाखों समर्पिक कार्यकर्ताओं एवं अपने वैचारिक परिवार के शुभचिन्तकों के निष्ठावान प्रयासों के कारण पहुंचे हैं। उन्होंने हमें वर्तमान स्थिति तक पहुंचाने में कठिन परिश्रम किया है। और ऐसा इसलिए किया है क्योंकि उनका भाजपा से एक खास भावनात्मक रिश्ता है।
ऐसा लगता है कि गत छह वर्षों में हमारी राजनीतिक रणनीति और व्यवहार कार्यकर्ताओं, अपने वैचारिक परिवार या अपने सामाजिक समर्थक आधार को मजबूत बनाने तथा उन्हें उत्साहित करने के प्रति केन्द्रित नहीं था।
वास्तव में हमारे परिवार में एक पराएपन का अहसास था और अपने मूल समर्थक क्षेत्र से भावनात्मक जुड़ाव कमजोर हुआ।
इसका यह अर्थ नहीं है कि भाजपा को अपने मूल “समर्थक-क्षेत्र” के बाहर देखना नहीं चाहिए या वह देख नहीं सकती। ऐसा नहीं है। एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण वाले राजनीतिक दल के नाते प्रत्येक के प्रति ध्यान देना हमारा कत्र्तव्य है। हमारी विचारधारा हमें अपनी चिन्ताओं और देखभाल का क्षेत्र विस्तृत करने से नहीं रोकती क्योंकि न तो वह संकीर्ण है, न ही अपने को सबसे अलग रखने वाली।
ऐसी परिस्थिति में हमें शासन और विकास के साथ साथ एक समान रूप से अपने मूल समर्थक क्षेत्र पर भी लगातार ध्यान देना चाहिए था- विभिन्न स्तरों पर निरन्त संवाद के माध्यम से।
व्यक्तिगत तौर पर और सामूहिक रूप से हमने अपने मूल क्षेत्र के समर्थकों के प्रति कितना ध्यान देना चाहिए था, नहीं दिया।
हम, अपने वैचारिक-परिवार से अपने रिश्ते के प्रति कुछ भ्रमित से रहे। परिणामत: अजीत विडम्बना उभरी स्वदेश में हमारे विरोधी हमें “हिन्दुत्व सरकार” कहते रहे।
बाकी दुनिया ने हमें “हिन्दुत्व सरकार” के नाते पहचाना।
लेकिन सिर्फ दो ही ऐसी इकाइयां थीं जिन्होंने इस सरकार को उक्त दृष्टि से नहीं देखा-और वे थीं-हमारा वैचारिक परिवार और हम स्वयं।
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