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राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की भूमिका संदेहास्पद
कश्मीर में आतंकवादियों के विरुद्ध मुकदमा चलाए जाने की मांग पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग महीनों से चुप, पर गुजरात की इस घटना के दो ही दिन में प्रदेश सरकार से 6 हफ्ते में रपट मांग गई।
कांग्रेस और राकांपा के नेताओं ने तथ्य परखे बिना छातियां पीटनी क्यों शुरू कर दीं?
-भारतेन्दु प्रकाश सिंहल
सांसद, राज्यसभा खतरनाक मंसूबों के साथ अमदाबाद पहुंचे आतंकवादी पुलिस मुठभेड़ में यूं ढेर हो गए
अमदाबाद में चार आतंकवादियों (दो पाकिस्तानी आतंकवादियों सहित) का मारा जाना और उस पर गुजरात पुलिस तथा राज्य सरकार के विरुद्ध “सेकुलर ब्रिगेड” की बयानबाजी बेहद शर्मनाक है। मैं इसे राष्ट्रभक्ति पर (राजनीति के) घुन जैसा मानता हूं। यह घुन राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रभक्ति के भाव को लीलता जा रहा है।
इस पूरे प्रकरण में एक संवैधानिक संस्था माने जाने वाले राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की भूमिका अत्यंत निदंनीय रही है। यही वह आयोग है जो बेस्ट बेकरी मामले पर पूरी तत्परता दिखाते हुए उसे सर्वोच्च न्यायालय ले गया था। जहां मोदी सरकार और गुजरात के तमाम लोगों के विरुद्ध लांछनों की बौछार हुई। लेकिन दूसरी ओर जब कश्मीर से एक व्यक्ति ने आकर आयोग के सामने गुहार की कि “जम्मू-कश्मीर प्रदेश में 14 मामलों में पोटा के तहत आरोपपत्र दाखिल किए जा चुके हैं, जिनमें 32 आतंकवादियों के विरुद्ध मामला चलाए जाने की अनुमति राज्य सरकार को देनी है। लेकिन न तो राज्य सरकार अनुमति दे रही है और न ही अनुमति देने से इनकार कर रही है। कृपया आप सक्रियता दिखाते हुए इस मामले को भी सर्वोच्च न्यायालय में ले जाएं।” इस पर आयोग का जवाब था- “आप क्यों हमारे कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहते हो?”
लेकिन गुजरात के ताजा मामले में घटना के दो ही दिन के भीतर अखबारों में छपी खबरों और अफवाहों को आधार बनाकर इसी मानवाधिकार आयोग ने फरमान जारी कर दिया कि छह हफ्ते में पूरी रपट दो। कानूनी तौर पर आयोग को “सुओ मोटो” कार्रवाई करने की छूट है, पर उसका कोई आधार तो होना चाहिए, अखबारों की रपट कैसे आधार हो सकती है?
यहां मैं उल्लेख करना चाहता हूं कि ऐसे एक नहीं, कई उदाहरण हैं जिनमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह लगता है।
दोगला रवैया क्यों?
गोधरा कांड में 58 हिन्दुओं (महिलाओं, बच्चों सहित) को निर्ममतापूर्वक जलाकर मार डाला गया। उसकी प्रतिक्रियास्वरूप गुजरात में दंगे हुए। क्यों आज ढाई साल बाद भी गोधरा की प्रतिक्रिया को लेकर हाहाकार मचाया जाता है पर मूल घटना पर चुप्पी साधी जाती है? दूसरे, 6 दिसम्बर, 1992 को बाबरी ढांचा ढहा था। जिसकी प्रतिक्रिया में पिछले 12 साल से हाहाकार मचाया जा रहा है। यह उलटा चलन कैसे? एक घटना में प्रतिक्रिया प्रमुख मानकर घटना गौण कर दी जाती है, जबकि दूसरे मामले में मूल घटना पर हाहाकार मचाया जाता है।
उ.प्र. सरकार ने अक्तूबर, 1986 में दोशीपुरा में दो मजारें हटाने की आज्ञा दी थी और सर्वोच्च न्यायालय ने भी उसकी संस्तुति की थी। लेकिन अदालत के आदेश का पालन नहीं हो पाया। क्योंकि मजार हटाने का मतलब था मुस्लिम वर्ग की नाराजगी मोल लेना, जो किसी भी सेकुलरवादी को स्वीकार्य नहीं था। उस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का अनुपालन नहीं किया गया, क्यों? राज्य सरकार ने भी 10 साल का समय मांगा, जो न्यायालय ने दे दिया। लेकिन 10 साल बाद भी मामला जस का तस क्यों है? सर्वोच्च न्यायालय और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग जैसे संवैधानिक संस्थानों द्वारा यह पक्षपातपूर्ण व्यवहार क्यों होता है? क्या हिन्दू सहिष्णु हैं, उदारमना हैं, अत: उनके विरुद्ध जो चाहे निर्णय तुरन्त कर देना ही इन संस्थानों का कार्य है? क्या इस देश के तथाकथित सेकुलर राजनीतिक दलों को हिन्दुओं पर चोट करने की खुली छूट है? क्या इस देश में हिन्दुओं को रहने का अधिकार नहीं है? गुजरात की ताजा घटना पर वापस लौटें तो यह समझ लेनी चाहिए कि कोई भी मुठभेड़ बिना प्रमाणों के नहीं होती। गुप्तचर संस्थाएं बहुत बारीकी से सूत्रों के जरिए सूचनाएं एकत्र करती हैं। जैसे तथ्य सामने आए हैं उनसे मारे गए चारों आतंकवादियों की असलियत सामने आती जा रही है। लेकिन घटना के तुरन्त बाद से ही कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी वालों ने और मुंब्रा के निवासियों ने इशरत और जावेद को जिस तरह मासूमियत का जामा पहनाने की कोशिश की, वह इस देश के लिए एक खतरनाक संकेत है। इससे यह संदेश जाता है- “खबरदार, हमारे लड़कों-लड़कियों पर संदेह किया तो तुम्हारे लिए मुसीबत खड़ी कर देंगे।” देशवासी समझ लें कि अब “सेकुलरिज्म” का मतलब राष्ट्रदोह होता जा रहा है। (वार्ताधारित)
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