कही-अनकही घमासान बहस
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कही-अनकही घमासान बहस

by
Apr 1, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Apr 2004 00:00:00

द दीनानाथ मिश्रवहां घमासान बहस हो रही थी। विषय था लोकसभा के चुनाव कब होंगे? समय से पहले या समय पर अर्थात् सितम्बर में। एक-दूसरे की बातों को लोग कुछ इस तरह काट रहे थे जैसे यह कोई जिन्दगी और मौत का सवाल हो। समय से पहले चुनाव की भविष्यवाणी करने वाले लोगों के तर्कों में वजन था। हल्के से हल्के तर्क का वजन एक डेढ़ टन से कम नहीं होगा। उठाए नहीं उठता था। कह रहे थे अभी सब कुछ अच्छा-अच्छा लग रहा है। तीन राज्यों में चुनाव जीते हैं। जीत भी ऐसी-वैसी नहीं हुई है। जनता जब देती है तो छप्पर फाड़ कर देती है और दूसरी पार्टी को झाडू से बुहार देती है। भला ऐसे वातावरण में चुनाव में भाजपा देर क्यों करे? चन्द्रबाबू भी यही चाहते हैं। बजट तो चुनाव के बाद भी हो सकता है। अभी कामचलाऊ सरकारी खाते पर मतदान करके चुनाव में कूद जाएं। चट मंगनी पट ब्याह हो जाए। एक तर्क ज्योतिष का भी है। ज्योतिष वाले कहते हैं। भाजपा की जीत ग्रह-नक्षत्रों के अनुकूल होने के कारण हुई है। सितम्बर में ग्रह-नक्षत्र उतने अनुकूल नहीं हैं। अभी तो अर्थ-व्यवस्था का ग्राफ आकाश की तरफ बढ़ रहा है। इसमें अच्छे मानसून का भी योगदान है। अगला मानसून सितम्बर के पहले होगा। उस मानसून का मूड कैसा रहेगा, सिवाय इन्द्र देवता के कोई नहीं जानता?इस बहस का उत्पादन अटकल कारखाने में हुआ है। ये कारखाने चौबीस घंटे चलते हैं। इनका मुख्य धंधा अटकलपच्ची करते रहना ही है। अटल जी ने भाजपा संसदीय दल की बैठक में तीन राज्यों की विजय के बाद सांसदों को अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय होने की सलाह दी थी। ऐसी सलाह इस तरह की पार्टी बैठकों में अक्सर दी जाती है। मगर अटकल कारखाने ने इसका अपना अनुवाद कर लिया। चुनाव समय से पहले होने की अटकलबाजी चालू कर दी। मीडिया अटकल बेचती है, जनता इस पर बहस करती है। समाज के एक बड़े तबके को चोंच भिड़ाने की आदत होती है। भले ही वह अपना वोट डाले या न डाले, राजनीति से कोई रिश्ता हो या न हो, मगर अखबारी अटकलों की जुगाली करने में उन्हें मजा आता है। बार-बार इस अटकल का खण्डन किया गया। मगर बहस थमने की बजाय बढ़ती जा रही है। इसीलिए मैंने इसे घमासान बहस कहा है।एक सवाल यह है कि अटकलें पैदा क्यों होती हैं? जवाब बहुत साफ है। अखबार में विज्ञापन से जो जगह खाली बचती है, उसको भरने की चिंता पत्रकारों को करनी पड़ती है। यह उनकी रोजी-रोटी का सवाल है। कागज का पेट नहीं भरा तो मीडिया की गाड़ी वैसे ही रुकती है, जैसे पेट्रोल के बिना कार। खबर न हो तो अटकलपच्ची ही सही। अटकलपच्ची होती भी चटपटी है। लजीज खबरों से अखबार की बिक्री भी बढ़ती है। सपाट खबरों में वजन तो होता है मगर वह अटकलों जितना मजा नहीं देती। आप पढ़ते होंगे मंत्रिमण्डल में फेरबदल की खबरें। बड़ी मजेदार होती हैं। आम आदमी भी चटखारे लेकर ऐसी अटकली खबरों की चर्चा करता रहता है। जानता है कि वह मंत्री बनने नहीं जा रहा है। मगर मंत्रिमण्डल की फेरबदल पर टकटकी लगाए रहता है। मुझसे जब कोई पूछता है कि क्या मंत्रिमण्डल में फेरबदल होने वाला है, तो मैं उसी तरह चिढ़ जाता हूं जैसे यह पूछने पर कि क्रिकेट का स्कोर कितना है? रास्ता रोककर कर एक बार किसी ने क्रिकेट का स्कोर पूछ लिया था। अंदर से झुंझला गया मैं। मैंने कहा, साढ़े बारह बजे हैं।चुनाव समय से होंगे या सितम्बर में ही होंगे, यह सवाल मेरे सामने 23 दिसम्बर को 24 बार आया। मैंने इसका एक जवाब बना रखा था। मैं पूछ लेता था, क्या आपने एक दिसम्बर को हुए चुनाव में मतदान किया था? उसका जवाब लाचारी भरा था- मैं वोट नहीं दे सका, क्योंकि मुम्बई शेयर बाजार में छुट्टी नहीं थी। मैंने कहा- फिर आप अभी से चुनाव के लिए उतावले क्यों हो रहे हैं? होने दीजिए चुनाव को समय पर। जब मनोरंजक चुनावी दंगल होगा तब उसका मजा ले लीजिएगा। आपके मनोरंजन के लिए हर साल चुनाव होते हैं। अब क्या हर छह महीने में होने चाहिए?10

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