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डा. पंकज परिमलक्षमा करें, कुछ कर न सके सत्कार, पितर!तिल-जल का तर्पण कर लें स्वीकार पितर!अनुभव तुमने दिया, उमंगों में मैं हूंतुम थे खुली किताब, सुरंगों में मैं हूंहर झगड़े में तुमने बीच-बचाव कियादुनिया की भीषण अब जंगों में मैं हूं।शंकित हूं, क्या यही अंजुली अंतिम हैरोज तेज है शस्त्रों की झंकार, पितर!आज खण्डहर हुए भव्य वे भवन सभीकिए लोकमंगल को तुमने हवन कभीक्या मकान की कहें, शहर भी नहीं बचेहुए व्यर्थ इनकी रक्षा के जतन सभी।गीत खुशी का तुमने हमें सिखाया थापर मन-वीणा के विषण्ण हैं तार, पितर!चुप कर दीं बम ने वे चीखें भी कातरकौन करेगा कल को पितरों का आदरदेखो-देखो कल का समय भयंकर हैघेर रहे हैं नभ को विपदाओं के परअपने ही गम के घुन से नित घुना गयावंश-वृक्ष अब रहा नहीं छतनार, पितर!27
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