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भानुप्रताप शुक्लअपराध को राजनीतिक शरणराजनीति और अपराध भले ही दो अलग-अलग विषय हो, पर आज की परिस्थिति में दोनों एक-दूसरे के पर्यायवाची बन रहे हैं। कार्यपालिका में अपराध की घुसपैठ इतने गहरे तक हो गई है कि उसे दूर करने का हर प्रयास बौना दिखाई देता है। न्यायपालिका या चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थानों में समय-समय पर राजनीति की गंदगी साफ करने की भरसक कोशिश की है, लेकिन नीति-निर्धारकों ने हमेशा उसको नजीर बनने से रोका है। सरकारे आती हैं, चली जाती हैं, लेकिन इस मुद्दे का हल दूर-दूर तक होता दिखाई नहीं देता। राजनीति के बियावान में यह विषय आजादी के बाद से लगातार भटक रहा है। यह वही भारत है, जहां अनुशासन और मर्यादा पर हजारों ग्रंथ लिख गए हैं, आज भी कुछ लोग हैं, जो सामाजिक एवं राष्ट्र जीवन में इन दोनों तत्वों को समाहित एवं संस्कारित करते आ रहे हैं। पर ये दोनों तत्व कहीं विलुप्त हुए हैं तो वह क्षेत्र राजनीति का है।एक जमाना वह भी था, जब राजा आदर्श स्थापित करने के लिए व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन को भी न्योछावर कर देता था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के महज एक आरोप पर सीतामाता का त्याग कर दिया। एक जमाना यह भी है कि लोग स्वहित के लिए राष्ट्रहित तक की बलि चढ़ा दे रहे हैं। कभी बमुश्किल अपराधियों का राजनीति में प्रवेश होता था, आज बमुश्किल राजनीति में अच्छे लोग मिलते हैं। अपराध को राजनीतिक शरण मिलते ही कानून बंदी हो जाता है। लोकतंत्र के सभी स्तंभ खामोश और लाचार से नजर आते हैं।जनता डर या लालच से संचालित न हो तो अपराध जगत का एक भी व्यक्ति संसद की दहलीज तक नहीं पहुंच सकता। लेकिन अपराधी संसद तक पहुंच रहे है और लगातार उनकी संख्या बढ़ रही है। कहीं न कहीं डर या लालच जनमानस पर हावी है। इस डर या लालच को दूर करने का दायित्व किस पर है? समाज पर या सरकार पर। सवाल घूमकर पुन: वही आ जाता है-राजनीति में आई इस संड़ाध को कौन दूर करेगा? अभी तक प्रयास किस स्तर पर हुआ? अड़चनें कहां आईं? किसने अंड़गा लगाया?” जवाब राजनीतिक गलियारों से ही घूमकर पुन: सवाल में बदल जाता है। राजनीति के अपराधीकरण का मुद्दा आज उत्पन्न नहीं हुआ। शिबू सोरेन, लालू प्रसाद यादव था। तस्लीमुद्दीन जैसे लोग हमेशा से सरकार और संसद के अंग रहे हैं। ये सिर्फ प्रतीक भर ही हैं। वास्तविकता तो यह है कि अपराध चुनाव तंत्र का अनिवार्य अंग बन गया है। अपराधी लगभग सभी राजनीतिक दलों की मजबूरी बन गए हैं। कोई इससे अछूता नहीं है। बहस सिर्फ इस बात पर होती है कि किस दल में कितने अपराधी हैं और किसका अपराधी नेता किससे बड़ा और किससे छोटा है। इसलिए राजनीतिक दल इसका इलाज नहीं ढूंढ पाएंगे। वैसे कोई ढूंढने की कोशिश भी नहीं करता। प्रयास छलावे के लिए किया जाता है, ताकि नैतिकता शब्द को राजनीति से जोड़ा रखा जाए, दूसरों पर अंगुली उठाई जा सके, जनता को बरगलाया जा सके, न्यायपालिका को भ्रमित रखा जा सके, आयोग पर अंकुश लगाया जा सकते। यह दिखावा भी तभी किया जाता है जब कोई बड़ा अपराधी राजनीति को हिचकोले खिलाने लगता है या बड़ा नेता खुद इस दल-दल में धसने लगता है। जैसे वाजपेयी शासनकाल में एक कोशिश की गई। हल्की और बेमन से। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर चुनाव आयोग द्वारा कार्रवाई किए जाने के बाद। अपराधियों को चुनाव से दूर रखने के प्रावधान से बचने के लिए कहने को तो सर्वदलीय बैठक बुलाई गई, चुनाव आयोग तक को पक्ष बनाया गया, लेकिन इस कवायद का कोई परिणाम नहीं निकलना था इसलिए नहीं निकला। इस बहाने सबने खुद को धवल दिखाने की भरपूर कोशिश की। कुछ लोग ऐसे भी थे जो प्रयास के छलावे में भी शामिल नहीं हुए। वे वाजपेयी के कमजोर प्रस्ताव को भी गिराने पर अड़ गए। मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव सरीखे लोग, जिनकी राजीतिक शैली में अपराधियो का हमेशा से बोलबाला रहा है। यह परिपाटी कमोबेश सभी ने अपना ली है। हर राजनीतिक दल में अपराधियों की भीड़ बढ़ती चली जा रही है।अपराध और राजनीति पर जब भी बहस होती है, ढेर सारे तर्क गढ़ लिए जाते हैं। अपराध की अलग-अलग परिभाषाएं दी जाती है। यहां तक कि चुनाव आयोग एवं न्यायपालिका को भी कोई सकारात्मक कदम उठाने से रोक दिया जाता है। सत्ता शीर्ष पर बैठे लोग भी अपराधियों के संरक्षण में नंगे पांव दौड़े चले आते हैं। शालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी नहीं चूकते। विदेश यात्रा से लौटते समय जब किसी ने उनसे इस विषय पर कुछ पूछा तो वे तपाक से बोले कि राजनीति में अपराधी कौन है? इसे तय करना बहुत मुश्किल है। उनके अनुसार लोगों की सरेआम हत्या कर देने वाले खूंखार अपराधियों एवं राजनीतिक आंदोलन चलाने वाले राजनीतिज्ञों के बीच भी कोई विशेष फर्क नहीं। उन्होंने उदाहरण देकर बताया कि अयोध्या में जिनके कारण बाबरी मस्जिद गिरी और उसके बाद देशभर में जो दंगे फैले और उसमें जो हत्याएं हुईं; उसके लिए जिम्मेदार लोग ज्यादा बड़े अपराधी हैं और चारा घोटाला, बैंक घोटाला या अन्य अपराध में शामिल लालू प्रसाद यादव जैसे लोग कम। बार-बार इसी तरह की परिभाषाएं आती हैं। कोई कहता है कि अगर मुकदमा दायर होने भर से किसी को चुनाव लड़ने से रोका गया तो देशभर में मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी। राजनीतिक दल चुनाव में हराने की बजाए अपने प्रतिद्वंद्वियों पर मुकदमें लादा करेंगे। कोई यह कहता हैं कि सजायाफ्ता को भी चुनाव लड़ने से रोका गया तो लोकतंत्र की मर्यादा कम होगी। ऐसे लोग यह तर्क देना भी नहीं चूकते कि भारत की न्यायपालिका ही पूरी तरह भ्रष्ट है और पैसे के बल पर किसी के खिलाफ भी फैसले कराए जा सकते हैं। कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि राजनीति में आकर बड़े-बड़े अपराधी भी सुधर जाते हैं। इसलिए किसी के लिए भी राजनीति में प्रवेश पर कोई रोक होनी नहीं चाहिए। इन्हीं सब दलीलों और तर्कों का परिणाम है मौजूदा लोकसभा में अपराधियों की बाढ़।यद्यपि न्यायपालिका सतर्क है। बीच-बीच में ऐसी टिप्पणी या ऐसे निर्देश जारी होते रहते हैं, जिससे उन राजनीतिक दलों की परेशानियां बढ़ जाती हैं जिनकी अपराधियों पर निर्भरता ज्यादा है। लेकिन तब सभी राजनीतिक दल चोर-चोर मौसेरे भाई की तरह नजर आते हैं जब मिल-जुलकर इकट्ठे बैठकर संसद से यह कानून पास करते हैं कि चुनाव प्रक्रिया पर या चुनाव सुधार पर बोलने का हक न्यायपालिका को नहीं है। किसी सरकार में इतना नैतिक बल नहीं होता कि वह धारा के विपरीत राजनीति का शुद्धीकरण कर सके। लोकसभा चुनाव के दौरान ही जब पटना उच्च-न्यायालय ने यह सवाल उठाया कि जेल में बंद अपराधी जब वोट देने का अधिकार नहीं रखते तो उन्हें चुनाव कैसे लड़ने दिया जाता है? चुनाव सम्पन्न हो गए, सरकार का गठन हो गया। सरकार को चलते दो महीने बीत गए न तो आयोग ने तो आयोग ने और न ही सरकार ने इस मामले में कोई पहल करे की जरूरत समझी।भारत में चुनाव पर्व की तरह आते रहते हैं। लोकसभा के बाद विधानसभा, विधानसभा के बाद पंचायत और बीच-बीच में उपचुनाव। लोकतंत्र में अपराधियों के आने-जाने का सिलसिला अनवरत चलता रहता है। इस सिलसिले को रोकने की आवश्यकता किसी एक चुनाव या उपचुनाव तक सीमित नहीं है। भारत को यह तय करना है कि लोकतंत्र के वाहक के रूप में कौन प्रतिस्थापित होगा? समाज का सृजन करने वाला या समाज का विंध्वस करने वाला।7
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