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सेकुलर आंदोलनदीनानाथ मिश्रजब कांसीराम ने उनके घर में जबरदस्ती घुस आए पत्रकारों की पिटाई की, तब बाकायदा पत्रकारों का आंदोलन चल पड़ा था। अयोध्या आंदोलन के दौरान जब कुछ पत्रकारों की पिटाई हो गई थी, तब तो पत्रकारों का सुनियोजित ढंग से देशव्यापी आंदोलन खड़ा हो गया था। कुछ महिला पत्रकारों ने कैमरे के सामने आकर अपने शरीर की तरफ इशारा कर-करके यह कहा था कि कारसेवकों ने किस तरह की बदतमीजी की। आंदोलन, युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज होता है। झूठ बोलना भी। जो बात प्रेम पर लागू है, वही बात नफरत पर भी। मुझे याद है, एक बार शिवसेना पर मुम्बई के महानगर नामक अखबार के पत्रकार की पिटाई का आरोप लगाया गया था। इसके खिलाफ आंदोलन लम्बा चला। धरने पर बैठने के लिए मुम्बई से बाहर के भी बड़े-बड़े पत्रकार गए थे। पत्रकारों को पुलिस कड़ाई से रोक दे, तो वह भी समाचार हो जाता है और कोई पीट दे तो वह भी। पत्रकारों को “बजरंगी” पीट दें तो वह बड़ा समाचार बन जाता है। लेकिन समाचार-प्रथा का एक सेकुलर अवपाद है।अभी इसी हफ्ते मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मैंने डा. रफीक जकारिया की नव प्रकाशित पुस्तक “भारतीय मुसलमान से गलती कहां हुई” की एक समीक्षा पढ़ी। यह समीक्षा मुम्बई के “मिड डे” में 5 सितम्बर को प्रकाशित हुई। समीक्षा की है आकार पटेल ने। आकार पटेल जाने-माने सेकुलर बुद्धिजीवी हैं। वह गुजरात दंगों के बाद सम्पादकों के उस दल के सदस्य के रूप में वहां गए थे, जिसे अखिल भारतीय सम्पादक संगठन ने भेजा था। पुस्तक की समीक्षा की शुरुआत में उन्होंने एक घटना लिखी है। यह घटना मैं उन्हीं के शब्दों में रख रहा हूं-“दो हफ्ते पहले एक ऐसी घटना घटी, जिससे हम सब लोगों को चितिंत होना चाहिए। महानगर हिन्दी संस्करण के साजिद रशीद को उनके माहिम के दफ्तर में छुरा घोंप दिया गया। क्योंकि एक उर्दू अखबार में उन पर पैगम्बर-निन्दा का आरोप लगाया गया था। उर्दू टाइम्स ने लिखा कि “साजिद रशीद के पैगम्बर मोहम्मद का अपमान”, शीर्षक में ऐसे शब्दों के साथ लगाया, जिसका उपयोग मोहम्मद बिन तुगलक के साथ किया जाता है। इस्लाम में पैगम्बर-निन्दा का एक ही दण्ड विधान है-मौत। पिछले दो दशकों में पाकिस्तान में पैगम्बर-निन्दा के अपराध में 200 से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। उर्दू अखबार ने कोई प्रायश्चित नहीं किया बल्कि साजिद पर हुए हमले को न्यायोचित बताया, साथ ही शीर्षक फिर छापा। गलत विश्लेषण के साथ। उसके पुन: प्रकाशन से फिर घृणा की उत्तेजना फैली। यह अखबार ऐसा इसलिए कर सका, क्योंकि उसे पक्का भरोसा था कि पाठक उससे सहमत होंगे। भारत के मुसलमानों की समस्या यहां पर है।” आकार पटेल ने शायद अंतिम पंक्ति डा. रफीक जकारिया के लिए लिखी है।अब देखिए मीडिया की महिमा। कम से कम एक दर्जन अखबार रोजाना पढ़ने वाला मेरे जैसा आदमी इतनी बड़ी घटना को 16 सितम्बर तक नहीं जान पाया। भारत जैसे देश में पैगम्बर-निन्दा पर सम्पादक की हैसियत रखने वाले साजिद रशीद को छुरा घोंप दिया जाए और देश को इसकी खबर तक न मिले। हो सकता है कि मुम्बई के कुछ अखबारों में छपा हो फिर दबा दिया गया हो। एक बलात्कारी और हत्यारे धनंजय की फांसी-कथा दो हफ्तों तक चलती रही। पैगम्बर-निन्दा की सजा पाकिस्तान में आमतौर पर है लेकिन भारत में 21वीं सदी में इस तरह की घटना हो और मीडिया के कान पर जूं तक न रेंगे, यह कैसे सम्भव हुआ। मैंने जानकारी प्राप्त की कि सजिद रशीद कैसे आदमी थे और आकार पटेल की सुनें तो उर्दू टाइम्स ने शीर्षक का तोड़-मरोड़ कर विश्लेषण किया है, ताकि उसे पैगम्बर-निन्दा का अपराधी बनाया जा सके। सलमान रुश्दी पर तो इस्लाम-प्रवक्ता अयातुल्ला खुमैनी ने एक फतवा जारी किया था। यह अलग बात है कि साजिद रशीद के खिलाफ कोई फतवा जारी नहीं हुआ। किसी मौलाना या उलेमा ने कोई शिकायत नहीं की। महज उर्दू टाइम्स ने उस पर पैगम्बर-निन्दा का आरोप लगाया और किसी ने सजा दे डाली। सेकुलर प्रेस ने उसे पूरी तरह से दबा दिया, ताकि मुसलमानों और उर्दू अखबारों की छवि न बिगड़े।35
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