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मंथनअपने ही लाक्षागृह में फंसे शकुनि मामा-देवेन्द्र स्वरूपकलियुगी शकुनि मामा अभी भी द्वापर युग में जी रहे हैं। वे भूल गए हैं कि द्वापर के लाक्षागृह में पांडव घिरे थे पर इस लाक्षागृह में तो शकुनि मामा स्वयं घिर गए हैं। द्वापर में तो पांडवों को निकल भागने के लिए सुरंग मिल गयी थी किन्तु इस बार शकुनि मामा की रक्षा के लिए सुरंग बनाने वाला कोई नहीं है। और, इस आत्मघात के लिए कोई और नहीं, शकुनि मामा स्वयं ही जिम्मेदार हैं। 90 साल की उम्र में पहुंचने और 60-65 साल पहले पहने माक्र्सवादी विचारधारा के कपड़े तार-तार हो जाने के बाद भी शकुनि मामा तोड़फोड़ की नकारात्मक राजनीति से बाज नहीं आ रहे हैं। चस्का जो लग गया है। कभी वे विचारधारा के लिए जिन्दा रहने की बात करते थे, अब वे विचारधारा का इस्तेमाल अपने को जिन्दा रखने के लिए कर रहे हैं। वे जानते हैं कि माक्र्सवादी विचारधारा पूरी दुनिया में मर चुकी है। चीन जैसे देश उस विचारधारा को अपने यहां एक दलीय अधिनायकवाद के आवरण के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। कहने को तो चीन अभी भी स्वयं को “कम्युनिस्ट गणतंत्र” कहता है, वहां का सत्तारुढ़ दल स्वयं को “कम्युनिट पार्टी” बताता है और पुराने कम्युनिस्ट झंडे को लहराता है। यानी बोतल पुरानी है, मगर अन्दर का पानी पूरी तरह बदल चुका है। माक्र्सवाद की जगह बाजारवाद और पूंजीवाद ले चुका है। अभी पिछले सप्ताह चीन की सरकार ने अपने संविधान में सम्पत्ति पर निजी स्वामित्व का प्रावधान करके माक्र्सवाद को दफना देने की अधिकृत घोषणा भी कर दी है। किन्तु भारत में दर्जनों गिरोह “कम्युनिस्ट पार्टियों” का बिल्ला लगाये आपस में लड़ते-झगड़ते दिखाई दे रहे हैं। प्रत्येक गिरोह अपने को सच्चा माक्र्सवाद बता रहा है और दूसरों को झूठा।खुसर-पुसर90 साल के बूढ़े शकुनि दरवाजे-दरवाजे भटक रहे हैं। राजनीतिक नेताओं के “ड्राईंगरूम” में झांक रहे हैं, उनके कानों में खुसर-पुसर कर रहे हैं। उनके चेहरे पर घबराहट है, परेशानी है, हताशा और निराशा छायी हुई है। वे देश को बचाने के लिए बेताब हैं, मगर देश उनकी बेताबी समझने को तैयार नहीं है। उनकी सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इस बार पाण्डव पक्ष से लड़ने के लिए उन्हें दुर्योधन नहीं मिल रहा, अगर किसी को उन्होंने दुर्योधन की जगह बैठाने का अपना मन बना लिया है तो भी सब कौरव उन्हें दुर्योधन की कुर्सी पर बैठाने को तैयार नहीं उनके पीछे एकजुट होने को तैयार नहीं। इससे भी बड़ी परेशानी की बात यह है कि पाण्डव पक्ष के “भारत उदय” और “यतो धर्मस्ततो जय:” जैसे प्रेरक नारों की काट करने वाले नारे शकुनि मामा को खोजे नहीं मिल रहे। माक्र्सवाद का नारा गैर कम्युनिस्ट नेताओं को तो दूर रंगबिरंगी कम्युनिस्ट पार्टियों को जोड़ने में भी नाकाम सिद्ध हो गया है। अब बचा “सेकुलरिज्म” बनाम साम्प्रदायिकता का नारा। बेचारे शकुनि मामा अभी भी साम्प्रदायिकता के विरुद्ध सेकुलर मोर्चे का नारा लगा रहे हैं पर वे परेशान हैं यह देखकर कि इस बार उनका “सेकुलरिज्म” का अर्थ “अल्पसंख्यकवाद” और “मुस्लिम संप्रदायवाद” से आगे कुछ नहीं है। प्रचार के मोर्चे पर हिन्दू बहुसंख्यकवाद का काल्पनिक हौवा खड़ा करके स्वयं को “मुस्लिम अल्पसंख्यकों” का एकमात्र रक्षक घोषित करने को ही शकुनि मामा “सेकुलरिज्म” कहते आये हैं। उनके लिए वही दल सेकुलर है जो भाजपा से जब तक दूर है। किन्तु अब लक्षण दिखायी दे रहे हैं कि इस झूठे मिथ्या सेकुलरिज्म को बेनकाब करने की पांडव पक्ष की कोशिशें सफलता की ओर बढ़ रही हैं। शकुनि मामा और कौरव पक्ष के द्वारा खड़ी की गयी साम्प्रदायिक घृणा और विद्वेष की दीवारों को ढहाने में पाण्डव पक्ष को काफी सीमा तक सफलता मिल रही है।पाण्डव पक्ष की पहल से ही भारत-पाक सम्बंधों में मधुरता पैदा हुई है, पन्द्रह साल बाद भारत की क्रिकेट टीम को पाकिस्तान की धरती पर मैच खेलने का साहस हुआ है, जम्मू-कश्मीर में शांति का वातावरण बना है, अयोध्या विवाद को सुलझाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम संतों के बीच संवाद आगे बढ़ रहा है। शकनि मामा के प्रचारतंत्र ने राजग पर भाजपा, भाजपा पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नियंत्रण का जो मिथक गढ़ा था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अल्पसंख्यक विरोधी राक्षस की जो छवि आरोपित की थी वह छवि सूर्य के सामने अंधेरे की तरह विलीन होने लगी है। एक ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने विभिन्न मुस्लिम और ईसाई संप्रदायों के नेताओं से सीधा संवाद प्रारंभ करके शकुनि मामा के झूठे प्रचार की कलई खोल दी है, दूसरी ओर मुस्लिम और ईसाई नेतृत्व भी शकुनि मामा के असली चेहरे को पहचानकर राष्ट्रीय एकता के महायज्ञ में आहुति देने के लिए आगे बढ़ रहा है। बड़ी संख्या में मुस्लिम समाज कौरव शिविर को छोड़कर पाण्डव शिविर की ओर आ रहा है। झूठे प्रचार का कुहांसा छंट रहा है, राष्ट्रीय एकता और सच्ची पंथनिरपेक्षता का सूर्योदय हो रहा है। बेचारे शकुनि मामा बहुत परेशान हैं इस दृश्य को देखकर कि उनके दिन-रात गुजरात के नरमेध का राग अलापने के बाद भी गुजरात में मुस्लिम समाज बड़ी संख्या में भाजपा के आंगन में जा रहा है, कभी समाचार आता है कि सूरत में डेढ़ सौ मुसलमान गाजे-बाजे के साथ भाजपा में आ गए, कभी अमदाबाद में। बेचारे शकुनि मामा शोर मचाते रह गये कि आडवाणी की रथयात्रा को रोको वरना अल्पसंख्यकों पर साम्प्रदायिक दंगों का कहर टूट पड़ेगा पर उनकी रथयात्रा हजारों किलोमीटर पार कर चुकी है। कोई साम्प्रदायिक दंगा कहीं नहीं भड़का, उल्टे केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश आदि सब जगह बड़ी संख्या में मुसलमान और ईसाई समाजों ने उनका अभिनंदन किया। ऐसे में शकुनि मामा करें तो भी क्या? अपने सेकुलरिज्म को बचायें तो कैसे? अब उनके पास केवल एक ही रास्ता बचा है कि वे दिल्ली काउन्सिल, जमाते-इस्लामी, मुस्लिम लीग जैसी संस्थाओं को अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए “सेकुलरिज्म” का झंडा थमा दें, उनसे अपील निकलवाएं कि सेकुलर पार्टियां” एकजुट हों। कुछ मुल्ला-मौलवियों को खोजकर उनसे फतवे जारी कराएं। अयोध्या-संवाद को विफल करने के लिए केवल न्यायालयी निर्णय को मानने का हठ करें।भोज-राज की नीतिकिन्तु ये सब कोशिशें शकुनि मामा को इस बार शतरंज के खेल में विजय नहीं दिला पा रही है। सबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि कौरव पक्ष का ही शकुनिमामा पर से विश्वास उठ गया है। वे शकुनि मामा के बार-बार आह्वान करने पर भी शकुनि मामा के पीछे खड़े नहीं हो रहे। शकुनि मामा बहुत पहले समझ चुके थे कि पाण्डवों को हराना उनके अपने बूते की बात भी नहीं है। उसके लिए संयुक्त मोर्चा तो बनाना ही होगा। किन्तु संयुक्त मोर्चे का नेता कौन हो शकुनि मामा ने सोचा कि पाण्डव पक्ष का नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी रूपी धर्मराज युधिष्ठिर कर रहे हैं तो कौरव पक्ष का नेतृत्व करने का सामथ्र्य दूसरे बड़े दल कांग्रेस में ही हो सकता , कांग्रेस के पास इटली पुत्री सोनिया के अलावा दूसरा कोई नेता नहीं है। इसलिए शकुनि मामा ने अपने ज्योति बसु और हरकिशन सुरजीत नामक दोनों मुखों से घोषणा कर दी कि कौरव पक्ष का नेतृत्व सोनिया करेंगी, सब कौरव भाई और समर्थक दल सोनिया के सेकुलर मोर्चे में सम्मिलित हों। शकुनि मामा ने इसके लिए भोज-राज की नीति चलायी। अपने नेता सोमनाथ चटर्जी के घर पर भोज रचाया, फिर सोनिया के घर पर भोज रचवाया। नेतागण आये, खूब खाया-पिया, फोटो खिंचवाये और चले गए। “सेकुलर मोर्चा आगे नहीं बढ़ा”।शकुनि मामा भौंचक्के रह गये यह देखकर कि सोनिया को दुर्योधन की जगह देने के लिए कोई दल तैयार नहीं है। इसलिए शकुनि मामा ने रणनीति बदली। उन्होंने कहना शुरूकिया कि प्रधानमंत्री पद का मसला चुनावों के बाद तय होगा अभी सिर्फ लड़ने के लिए मोर्चा बनाना है। शकुनि मामा की सलाह पर सोनिया ने भी पैंतरा बदला। वे त्याग की मूर्ति बन गयीं। कहने लगीं कि मेरे मन में प्रधानमंत्री बनने की कोई आकांक्षा नहीं है, मैं तो सिर्फ “आदर्शों” के लिए लड़ रही हूं। किन्तु उनके मन का चोर अंग्रेजी दैनिक “हिन्दू” में प्रकाशित एक साक्षात्कार में प्रगट हो ही गया जब उन्होंने स्वीकार किया कि 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद वे चाहतीं तो वे प्रधानमंत्री बन सकती थीं अर्थात् उन्होंने ही नरसिंह राव को प्रधानमंत्री की कुर्सी भीख में दे दी थी। किन्तु प्रधानमंत्री के रूप में अपने को उभारने के लिए वे एड़ी-चोटी का जोर लगा रही हैं। प्रत्येक राज्य में “रोड शो” के द्वारा अपनी लोकप्रियता को प्रदर्शित कर रही हैं। कांग्रेस के पास चुनाव प्रचार के लिए सोनिया, प्रियंका और राहुल के अलावा कोई नेता नहीं है इस सत्य को रेखांकित कर रही हैं। कांग्रेस प्रवक्ताओं के पास केवल एक ही मुद्दा रह गया है कि “सोनिया जी को फलाने ने यह कहा, फलाना उसके लिए माफी मांगे।” एक प्रवक्ता तो यहां तक बोल गये कि यदि सोनिया जी के बारे में कुछ भी कहा गया तो वैसा ही महाभारत अब होगा जैसा द्वापर में द्रौपदी के लिए हुआ था। इन महाशय ने अपनी वकील बुद्धि का इस्तेमाल करके विदेशी मूल के मुद्दे को “नारी सम्मान” का मुद्दा बना दिया।खैर, जो भी हो शकुनि मामा को अपनी यह चाल फिलहाल वापस लेना पड़ी है। किन्तु असली बात तो “सेकुलर मोर्चा” कैसे बने? मोर्चा बनाने के लिए प्रत्येक दल को थोड़ा-बहुत तो त्याग करना ही होगा। शकुनि मामा के सेकुलर मोर्चे में सबसे बड़ा दल कांग्रेस है तो दूसरे क्रम पर शकुनि मामा का अपना वाम मोर्चा है। इसलिए पहले इन दोनों के बीच मेल होना चाहिए। यहां शकुनि मामा ने अपने को विषम स्थिति में फंसा पाया। शकुनि मामा का अपना आधार जिन तीन राज्यों -प. बंगाल, केरल और त्रिपुरा में है, वहां तीनों जगह कांग्रेस उनकी मुख्य प्रतिद्वन्द्वी है। कांग्रेस के साथ मोर्चा बनाने का मतलब है इन तीन राज्यों में कांग्रेस के साथ सीटों का बंटवारा करना। किन्तु यह कीमत देने की बात तो शकुनि मामा ने कभी सोची ही नहीं थी। इसलिए उन्होंने नया नारा दिया। अखिल भारतीय गठबंधन चुनावों के बाद, अभी केवल राज्य स्तर पर गठबंधन हो। इस नारे के साथ ही पहला काम शकुनि मामा ने किया कि प. बंगाल और केरल की सभी सीटों को वाम मोर्चा में बांटकर अपने प्रत्याशियों के नाम सबसे पहले अर्थात् फरवरी में ही घोषित कर दिये। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। अपने हितों के बारे में शकुनि मामा कितने जागरूक हैं, यह सामने आ गया जब कोलकाता की एक सीट के लिए लालू यादव के अनुरोध को उन्होंने यह कहकर निर्ममतापूर्वक ठुकरा दिया कि वहां हमारी जीत सुनिश्चित है। कांग्रेस के लिए उन्होंने एक सीट नहीं छोड़ी। हां, गनी खान चौधरी, प्रणव मुखर्जी और प्रियरंजन दासमुंशी जैसे नेताओं के विरुद्ध कमजोर उम्मीदवार खड़े करके उन्हें अलग-अलग खरीद लिया है। कांग्रेसी सांसद अधीर चौधरी बिकने को तैयार नहीं थे इसलिए उन पर शकुनि मामा की कृपा नहीं हुई उल्टे शकुनि मामा अपनी मुख्य और अजेय प्रतिद्वन्द्वी ममता बनर्जी के विरुद्ध कांग्रेस के कंधों का इस्तेमाल कर रहे हैं। वामपंथी रुझान की पूर्व विश्व सुंदरी नफीसा अली को कांग्रेस के टिकट पर ममता के विरुद्ध मैदान में उतारने का जुगाड़ शकुनि मामा बैठा रहे हैं।लोमड़ी राजनीतिसंयुक्त मोर्चा बनाने में विफल होने पर शकुनि मामा ने नया गणित लगाया, नयी रणनीति बनायी। उन्होंने सोचा कि पिछली लोकसभा में हमारे पास 52 सीटें थीं, अगर इस बार यह संख्या बढ़कर 70 हो जाए और कांग्रेस की घटकर हमसे कम रह जाएं तो हो सकता है अगली मोर्चा सरकार का नेतृत्व हम ही करें। 1996 की ऐतिहासिक भूल का परिमार्जन हो सकेगा। पर वे 70 सीटें आयें कहां से? इसके लिए शकुनि मामा ने अपनी पुरानी लोमड़ी- राजनीति का खेल शुरू किया। यानी प्रत्येक राज्य में सेकुलर मोर्चा के नाम पर उस राज्य में जनाधार वाले बड़े दल से अपने लिए अधिक से अधिक सीटें पाने की कोशिश करना। लोमड़ी राजनीति का मतलब ही है किसी शेर के हाथ शिकार करवाना और उसके फेंके टुकड़ों से अपना पेट भरना। अब शकुनि मामा ने शेर ढूंढे- तमिलनाडु में करुणानिधि की द्रमुक, आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस और तेलंगाना राष्ट्र समिति, बिहार में लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी, उड़ीसा में कांग्रेस पार्टी। शकुनि मामा ने हर शेर के सामने बढ़ाचढ़ा कर अपनी मांगें पेश करना आरंभ किया। यहां शकुनि मामा के अपने घर में भी भारी छीना झपटी है। ए.बी.वर्धन की भाकपा शकुनि मामा की माकपा से अपने को छोटा मानने को तैयार नहीं। वह हर शेर से अलग सौदेबाजी कर रही है। तमिलनाडु में माकपा ने दो सीटें पा लीं। आन्ध्र प्रदेश में कांग्रेस अभी घास नहीं डाल रही है तो माकपा ने जयपाल रेड्डी और रेणुका चौधरी के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा करने की धमकी दे डाली। कांग्रेस दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को लोकसभा में 1-1 और विधानसभा में 8-8 से अधिक सीटें देने को तैयार नहीं। महाराष्ट्र में सोनिया और पवार ने सीटें नहीं दीं इसलिए शकुनि मामा वहां तीसरा मोर्चा बनाने की जुगत में है। बिहार का रंग अलग है। लालू यादव ने कोलकाता की सीट पर अपना दावा छोड़कर और भागलपुर की सीट देकर माकपा को तो खरीद लिया पर माकपा को भाव नहीं दिया तो उसने तैश में आकर चार सीटों पर अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर डाली। पर लालू पर कोई असर नहीं। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने दोनों पार्टियों को एक सीट नहीं दी। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने बनारस और कानपुर से अपने उम्मीदवार खड़ा करने की एकतरफा घोषणा कर दी। भाकपा ने तो चार सीटों पर लड़ने का दावा किया है, माले अलग सीटें मांग रही है।शकुनि मामा के लिए सेकुलर मोर्चे का एक ही अर्थ है कि वह उनको लाक्षागृह से बाहर निकालने के लिए सुरंग खोदने का काम करे। पर अब हर शेर को लोमड़ी का चरित्र दिखाई दे गया है, कोई सुरंग खोदने को तैयार नहीं है। ऐसे में क्या शकुनि मामा लाक्षागृह से बाहर निकल पाएंगे? उधर, सभी विपक्षी दलों की गुहार सुनकर चुनाव आयोग ने प. बंगाल में निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव कराने वाले तंत्र में आधे कर्मचारी राज्य के बाहर से भेजने का आश्वासन दिया है। यदि सचमुच बंगाल में निष्पक्ष चुनाव हो सके तो क्या शकुनि मामा की लुटिया उनके अपने दुर्ग में ही नहीं डूब जाएगी? अरे! कोई है जो शकुनि मामा को बचायेगा? शकुनि मामा भूल गये हैं कि द्वापर का शकुनि स्वार्थी नहीं था, अपने लिए सत्ता नहीं चाहता था। (19-3-2004)2क्या “99 का इतिहास दोहराएगी दिल्ली?-डा. रवीन्द्र अग्रवालजगमोहन, साहिब सिंह और विजय कुमार मल्होत्रा (ऊपर), स्मृति ईरानी मल्होत्रा, विजय गोयल, लालबिहारी तिवारी और डा. अनिता आर्यसज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, अजय माकन, संदीप दीक्षित, कृष्णा तीरथ, कपिल सिब्बल और आर.के. आनंदडा. हर्षबद्र्धनदिल्ली उन गिने-चुने राज्यों में से एक है जहां से कांग्रेस कुछ उम्मीद लगाए बैठी है। 1998 में “प्याज” के नाम पर दिल्ली में सत्तारूढ़ हुई कांग्रेस अगले वर्ष हुए लोकसभा चुनाव में चारों खाने चित्त हो गयी थी और विधानसभा चुनाव में बुरी तरह मात खा चुकी भाजपा ने सातों सीटों पर कब्जा कर सबको चौंका दिया था। भाजपा एक बार फिर वही इतिहास दोहराना चाहती है।जहां भीषण गर्मी में बिजली-पानी का मुद्दा कांग्रेस को परेशान किए है, वहीं टिकटों के बंटवारे में हुई नाइंसाफी कई वर्गों को कचोट रही है। टिकटों को लेकर नाराजगी वैश्य समाज और मुसलमानों में भी है। किसी वैश्य को टिकट न मिलने से नाराज वैश्यों का कहना है कि कांग्रेस के लिए वैश्यों की अहमियत केवल चंदावसूली तक है। मुसलमान भी कांग्रेस की पंथनिरपेक्षता को खोखला बता रहे हैं। उनका सवाल है कि दिल्ली के लगभग 15 प्रतिशत मुसलमानों के लिए कांग्रेस के पास क्या एक टिकट भी नहीं?कुछ वर्ग जहां टिकट न मिलने से नाराज हैं तो एक वर्ग ऐसा भी है जो सज्जन-टाइटलर की जोड़ी को टिकट दिए जाने से नाराज है। इन दोनों को टिकट देकर कांग्रेस ने सिख समुदाय के बीस साल पुराने घावों को हरा कर दिया है। 1984 के दंगों को सिख समुदाय भूला नहीं है। टिकट बंटवारे को लेकर ऐसी नीतियां उनके घावों को सूखने नहीं दे रही हैं। ऐसा नहीं कि कांग्रेस उच्च कमान इससे अनभिज्ञ था, सिख फोरम ने पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को इस सम्बन्ध में पत्र भी लिखा था। सोनिया गांधी ने उन्हें आश्वासन भी दिया था परन्तु यह आश्वासन कोरा कांग्रेसी आश्वासन ही सिद्ध हुआ। सज्जन-टाइटलर की जोड़ी को टिकट दिए जाने का खामियाजा कांग्रेस को सातों सीटों पर भुगतना पड़ सकता है। सिख फोरम ने कांग्रेस को हराने की मुहिम जो छेड़ दी है।इनके अतिरिक्त कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो स्थानीय स्तर पर कांग्रेसी उम्मीदवारों की परेशानी का कारण बने हैं। बाहरी दिल्ली में भाजपा के साहिब सिंह का मुकाबला कांग्रेस के सज्जन कुमार से है। जिस बात के लिए सज्जन कुमार की चर्चा है, उसकी बात न भी करें तो दिल्ली सरकार का एक निर्णय उनके गले की हड्डी बना है। दिल्ली में किसान यदि कहीं हैं तो वह है बाहरी दिल्ली। जमीन से पानी निकाले बिना खेती हो नहीं सकती और दिल्ली सरकार ने पानी निकालने पर भारी कर लगा दिया। अगर किसान पानी नहीं निकाल सकता तो सज्जन कुमार के लिए कांटे की टक्कर वाली यह सीट निकालना भी मुश्किल है।पूर्वी दिल्ली बाहरी दिल्ली की तरह ही बहुत बड़ा संसदीय क्षेत्र है। यहां दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की प्रतिष्ठा दांव पर है। क्योंकि वह यहां से अपने बेटे संदीप दीक्षित को टिकट दिलाने के लिए अड़ गयी थीं। इसी कारण शीला दीक्षित पूर्वी दिल्ली तक सिमटती जा रही हैं। यहां उनका मुकाबला भाजपा के लाल बिहारी तिवारी से है। संदीप दीक्षित अपनी मां शीला दीक्षित की हार का बदला लेने की बात कर रहे हैं परन्तु राजनीति के अखाड़े में हेलीकाप्टर से उतारे गए इस पहलवान को जमीनी हकीकत को समझने में अभी समय लगेगा।देश का सबसे छोटा संसदीय क्षेत्र है चांदनी चौक। क्षेत्रफल मात्र 10.59 किमी.। यहां से कांग्रेस के महाबली प्रवक्ता कपिल सिब्बल और टी.वी. की लोकप्रिय कलाकार स्मृति ईरानी चुनाव मैदान में हैं। दोनों बाहरी हैं। इस कारण मतदाता नाराज हैं। यहां फैसले में लगभग डेढ़ लाख मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका महत्वपूर्ण है।दिल्ली सदर निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा ने विजय गोयल को उतारा है। विजय गोयल एक बार तो यहां से जीत चुके हैं। परन्तु पिछली बार चांदनी चौक से जीते थे और वहां अपने काम की चांदनी फैलायी। यहां से कांग्रेस ने टिकट दिया है सज्जन कुमार के साथी जगदीश टाइटलर को। इनके लिए 1984 का मुद्दा परेशानी का कारण बना है तो विजय गोयल अपने काम के आधार पर अपनी विजय का दावा कर रहे हैं।करोलबाग में भाजपा की निर्वतमान सांसद डा. अनीता आर्य और कांग्रेस की उम्मीदवार कृष्णा तीरथ में कांटे की टक्कर है। दिल्ली विधानसभा की उपाध्यक्ष कृष्णा तीरथ दिल्ली की समाज कल्याण मंत्री भी रह चुकी हैं। अंदरूनी राजनीति की शिकार हो चुकी कृष्णा तीरथ के लिए संसद की राह आसान नहीं।विधानसभा उपाध्यक्ष के साथ ही विधानसभा अध्यक्ष अजय माकन को भी कांग्रेस ने नई दिल्ली लोकसभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतारा है। जबकि भाजपा के प्रत्याशी हैं तीन बार से लगातार जीतते आ रहे केन्द्रीय मंत्री जगमोहन। यहां युवा जोश और अनुभव में कांटे की टक्कर है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इसी क्षेत्र की नई दिल्ली विधानसभा सीट का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस कारण यह सीट भी उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न है। दिल्ली के सौंदर्यीकरण की दिशा में बहुत कुछ कर दिखाने वाले, औरईमानदारी के लिए प्रसिद्ध जगमोहन के लिए यह सीट जीतना कोई मुश्किल काम नहीं है।दिल्ली की सम्भ्रान्त लोकसभा क्षेत्र है दक्षिण दिल्ली। संसद में भाजपा के प्रवक्ता विजय कुमार मल्होत्रा एक बार फिर यहां से चुनाव मैदान में हैं। वे दिल्ली के मुख्य कार्यकारी पार्षद रह चुके हैं और दिल्ली के विकास में एक नयी दिशा दिए जाने के लिए पहचाने जाते हैं। कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता आर.के. आनन्द को उतारा है। अदालत में 84 के दंगों के आरोपियों की पैरवी करने के कारण दंगों का भूत इनका भी पीछा कर रहा है। साथ ही क्षेत्र के लिए नया होना इन्हें भारी पड़ रहा है।3
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