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अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग से कुछ वरिष्ठ भाजपा नेता

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Feb 5, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Feb 2004 00:00:00

भाजपा के साथ सर्वाधिक अनूसूचित जाति एवं जनजातीय प्रतिनिधिमाटी की गंध, केसरिया के संगभाजपा की विचारधारा के विरोधी अक्सर इस बात का दुष्प्रचार करते नहीं अघाते कि भाजपा के साथ समाज के पिछड़े, वंचित एवं जनजातीय वर्ग के लोग आते ही नहीं हैं। इससे बढ़कर कोई झूठ हो ही नहीं सकता। भाजपा की राष्ट्रीयता और व्यापक हिन्दुत्व की अवधारणा देश के पिछड़े एवं वंचित वर्गों को ही सर्वाधिक अपना बनाती है। हालांकि भाजपा के मीडिया प्रबंधक इस बात का प्रचार करने में असफल रहे हैं कि देश में अन्य सभी राजनीतिक दलों की तुलना में भाजपा के साथ अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के सर्वाधिक जनप्रतिनिधि हैं। परन्तु छत्तीसगढ़ हो या पूर्वाञ्चल अथवा गुजरात और मध्य प्रदेश के अनुसूचित जाति प्रभावी क्षेत्र, वहां समाज का पिछड़ा वर्ग केसरिया रंग के साथ ही अपनी पहचान जोड़ता है। इस बार भी इन क्षेत्रों में भाजपा अपनी स्थिति बेहतर करने की आशा में है।-रमेश पतंगेसम्पादक, साप्ताहिक विवेक एवंसंस्थापक सचिव, सामाजिक समरसता मंच (महाराष्ट्र)भारत में आरक्षण नीति के अंतर्गत राजनीति, शिक्षा तथा प्रशासकीय सेवा, इन तीन क्षेत्रों में मिलने वाले आरक्षण पर विचार किया जाता है। सामान्यत: शिक्षा तथा प्रशासकीय सेवा में उपलब्ध आरक्षण के संदर्भ में ही बहस होती है। आरक्षण के आलोचक और समर्थक दोनों गुटों की भावनाएं इस विषय पर अत्यंत तीव्र होती हैं। शिक्षा क्षेत्र में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए 22.5 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध है। मंडल आयोग के अंतर्गत आने वालीअन्य पिछड़ी जातियों के लिए भी 27 प्रतिशत आरक्षण है। पर यहां शिक्षा तथा प्रशासकीय सेवा में उपलब्ध आरक्षण के बारे में चर्चा न कर राजनीतिक क्षेत्र में दिए गए आरक्षण का विश्लेषण करते हैं।लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 79 अनुसूचित जातियों तथा 40 अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। इसी प्रकार राज्यों की विधान सभाओं में भी अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को उस राज्य में जातियों की संख्या के अनुपात में आरक्षण प्राप्त है। राज्यों की विधानसभाओं में भी कुल मिलाकर अनुसूचित जातियों के लिए 561 और अनुसूचित जनजातियों के लिए 536, कुल 1097 सीटें आरक्षित हैं। यह संख्या अपने आप में विशेष महत्व रखती है, क्योंकि संसदीय प्रजातंत्र में केवल एक मत से भी सरकार गिराई जा सकती है।संसद तथा विधायिका के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 330, 332 के अंतर्गत लोकसभा तथा विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए उनकी संख्या के अनुपात में स्थान आरक्षित है। इस प्रावधान के मूल में “पूना पैक्ट” है। 1932 में पूना के येरवडा कारागृह में महात्मा गांधी और डा. बाबासाहब अम्बेडकर के बीच समझौता हुआ था। इस समझौते के अंतर्गत डा. बाबासाहब अम्बेडकर ने स्वतंत्र मतदान संघ (अलग मतदान) की मांग को छोड़ दिया और दलितों के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र को स्वीकृति दी। इस समझौते द्वारा प्रांतीय विधानसभाओं के लिए 140 स्थानों पर दलितों को आरक्षण प्राप्त हुआ। गांधी-अम्बेडकर समझौता एक राष्ट्रीय आवश्यकता थी। इसको संविधान सभा ने भी स्वीकृत किया।पहली लोकसभा चुने जाने के समय से ही यह आरक्षण उपलब्ध है। सांसद तथा विधायक चुनकर जाते भी हैं। लेकिन क्या वे दलितहितों का रक्षण कर पाने में समर्थ होते हैं? वास्तविकता यह है कि दलित उत्पीड़न की घटनाएं प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही हैं। वर्ष 1995 में देशभर में अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अपराध के 33,461 मामले दर्ज हुए। अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध 5019 आपराधिक मामले दर्ज किए गए। प्रतिवर्ष इन अपराधों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। वर्ष 1991 से भूमंडलीकरण का प्रयोग शुरू हुआ। भूमंडलीकरण के कारण सबसे अधिक हानि अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों को उठानी पड़ रही है। उनके पारंपरिक उद्योग और रोजगार के साधन तेजी से खत्म होते जा रहे हैं। फिर भी इसके विरुद्ध अनुसूचित जातियों और जनजातियों के सांसद एकजुट होकर संसद में आवाज नहीं उठाते हैं।ऐसे भी अनेक सांसद तथा विधायक हैं, जो स्वयं को दलित कहलाना पसंद नहीं करते, स्वयं को अपने ही समुदाय से अलग समझते हैं। वे अपने जाति-बांधवों से मिलना भी नहीं चाहते। उनका रहन-सहन और अन्य व्यवहार उच्चवर्गीयों जैसा होता जा रहा है। महाराष्ट्र में ऐसे लोगों को “दलितों में ब्राहृण” कहा जाता है। इस कारण विधायक-सांसद और सामान्य दलित आदमी के बीच एक खाई-सी बनी हुई है।कुल जनसंख्या में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों की संख्या 22.5 प्रतिशत है। लेकिन जनसंख्या के अनुपात में राजनीतिक क्षेत्र में जितना प्रभाव दिखना चाहिए, उतना प्रभाव दिखाई नहीं देता। विभिन्न दलों में बंटे रहना इसका एक प्रमुख कारण है। प्रभावी नेतृत्व का अभाव दूसरा कारण है। और तीसरा कारण है अखिल भारतीय स्तर के किसी एक प्रभावशाली राजनीतिक दल का न होना, जो प्रमुखता से अनुसूचित जातियों-जनजातियों के बारे में विचार करता हो। इसी कारण जनसंख्या है लेकिन बल नहीं, सांसद हैं लेकिन आवाज नहीं। भाजपा इस कमी को पूरा करेगी, यह आशा करना व्यर्थ न होगा और भाजपा ने यह किया भी है। आज देश में किसी भी अन्य दल के मुकाबले संसद में भाजपा के अ.जाति एवं जनजातीय प्रतिनिधियों की संख्या सर्वाधिक है (देखें तालिका)। भाजपा के साथ अ.जा. और जनजाति के लोगों के जुड़ाव का कारण है हिन्दुत्व और वनवासी क्षेत्रों में हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्य। देशभर के वनवासी अंचलों में वनवासी कल्याण आश्रम का कार्य है, हजारों, लाखों बच्चे एकल विद्यालयों से पढ़कर निकले हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी उनमें यह प्रभाव गहरा होता जा रहा है। इस कारण वे सब देश के साथ एक सूत्र में बंध रहे हैं, वरना सेकुलर खेमा और ईसाई मिशनरी उन्हें अपनी परम्पराओं से तोड़ने में जुटे हैं। वे उन्हें बहकाते हैं कि आप हिन्दू नहीं हैं, आप मूल निवासी हैं, यह बात उनके गले आसानी से नहीं उतरती, क्योंकि उनकी परम्पराएं, रीति-रिवाज, देवी-देवता और वांङ्मय सब हिन्दुत्व से जुड़ा है।1999 की तेरहवीं लोकसभा में विभिन्न दलों के अनुसूचित जाति व जनजाति के सांसदों की संख्यादल अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति भाजपा 25 21 कांग्रेस 8 9 माकपा 5 2 भाकपा 1 – ए.डी.एम.के. 2 – बसपा 6 – डी.एम.के. 3 – तेदेपा 5 2 राजद 1 – भा.रा. लोकदल 1 – हविपा 1 – बीजद 3 – एम.डी.एम.के. 1 – पी.एम.के. 1 – सपा 4 – लोकशक्ति 1 – आर.एस.पी. 2 1 ए.आई.एफ.बी. 1 – तृणमूल कांग्रेस 1 – रा.कां. पार्टी – 1 शिवसेना 1 – जद यू 5 – निर्दलीय 1 3 कुल 79 40 8

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