|
हरियाया सावनडा. दयाकृष्ण विजयवर्गीय “विजय”जब प्रत्यक्ष छोड़ जीता है, सपनों में जन-मन,तपता ज्येष्ठ मास भी लगता हरियाया सावन।तड़की-तड़की शुष्क सरित भी दिखती बाढ़ भरी,लम्बे रेतीले सागर में तिरती दिखे तरी;नागफनी का वन भी लगता गंधाया उपवन।तपता ज्येष्ठ मास भी लगता हरियाया सावन।मिला शब्द से शब्द बोलते द्वार टंगे तोते,झूठ-मूठ जागे भी कहते हम तो थे सोते;जुड़कर शिल्प अलंकृत करता संवेदित भावन।तपता ज्येष्ठ मास भी लगता हरियाया सावन।27
टिप्पणियाँ