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आख्यान

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Jan 8, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jan 2004 00:00:00

नरेन्द्र कोहली

(18 जुलाई, 2004 में प्रकाशित अंश से आगे)

मुकदमा और ईश्वर-2

“मेरी ओर से इस प्रकार का प्रस्ताव होने पर उनकी उद्दंडता को और भी अधिक बल मिलेगा। उनके सम्मुख हम अपने सम्मान की रक्षा नहीं कर पाएंगे।”

“सम्मान!” नरेन्द्र ने जैसे हुंकार भरी, “यह भी अहंकार का ही दूसरा नाम है मां! जिसकी आड़ में मनुष्य अनेक प्रकार की मानसिक और शारीरिक हिंसा करता है।”

“मैं तो समझती थी कि दक्षिणेश्वर के साधु ने तेरी मति विवाह इत्यादि से ही विमुख की है….”

“क्या देख रही हो मां?” नरेन्द्र मुस्करा रहा था।

“उसने तेरी मति ऐसी भ्रष्ट कर दी है कि तुझे न अपनी धन-संपत्ति की चिंता है, न अपने सम्मान और स्वाभिमान की।” भुवनेश्वरी बोली, “ऐसे क्या जीवन चलता है?”

“ऐसे जीवन तो चलता है, संसार नहीं चलता।” नरेन्द्र गंभीर हो गया, “मेरा स्वाभिमान और सम्मान नष्ट नहीं हुआ है। हां! अहंकार कुछ अंशों में विगलित अवश्य हो गया है। अहंकार प्रेम का शत्रु है। उसके रहते हम अपने विपक्षी और विरोधी से प्रेम नहीं कर सकते हैं।

भुवनेश्वरी को लगा, उसका मुख विस्मय से खुल गया है। उसने नरेन्द्र का विद्रोही रूप देखा था, वह उद्दंड और स्वतंत्र हो सकता था, वह अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए तर्क कर सकता था। किन्तु यह अहंकार के विलगन की बात…. विरोधी से प्रेम करने की बात….।

“तुम्हें असुविधा हो तो मैं बात करता हूं।” नरेन्द्र बोला “किन्तु यदि बात करने मैं गया तो मुझे ठाकुर मां से नहीं, काका से बात करनी पड़ेगी।”

“नहीं! नहीं!! मैं ही जाऊंगी।” भुवनेश्वरी बोली, “स्त्रियों में समझौता होना फिर भी सरल है। पुरुषों में तो तकरार की ही अधिक संभावना है।”

भुवनेश्वरी ने झूठ नहीं कहा था; किन्तु एक और बात जो उसके मन में थी, उसे वह छुपा गई थी।… यदि नरेन्द्र वहां बात करने गया और उसकी त्याग-भावना कुछ अधिक मुखर हो गई, संधि की इच्छा अधिक प्रबल हो गई, तो संभव है वह सब कुछ उन्हीं को दे आए। उसे तो बस जीवन चलाना है, संसार नहीं चलाना। पता नहीं, जीवन भी कब तक चलाना है।

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“क्या हुआ मां!” भुवनेश्वरी के घर में प्रवेश करते ही नरेन्द्र ने पूछा।

“होना क्या है रे!” भुवनेश्वरी का स्वर भर्रा आया था, “तेरी ठाकुर मां कहती है कि उसने तुम्हारे अनाथ पिता का पालन-पोषण किया, हम उसका आभार तो मानते नहीं, उल्टे उससे जायदाद छीनना चाहते हैं।”

“अर्थात् भगवान कृष्ण का संधि-प्रस्ताव भी दुर्योधन ने अस्वीकार कर दिया?”

भुवनेश्वरी कुछ चमत्कृत हुई; उसके जाने से पहले भी नरेन्द्र ने पांडवों द्वारा पांच ग्राम मांगे जाने की चर्चा की थी, अब वह कृष्ण के संधि-प्रस्ताव की बात कह रहा है। सच ही वही तो बात है। पाण्डु साधना के लिए वन गया तो धृतराष्ट्र ने उसका राज्य हड़प लिया। यहां श्वसुर जी के संन्यासी होते ही काली काका ने संपत्ति हथिया ली, किन्तु वास्तविक धृतराष्ट्र तो काकी है। काकी तो धृतराष्ट्र, गांधारी और दुर्योधन का सम्मिलित रूप है।

“हां, पुत्र! तो अब युधिष्ठिर युद्ध-सज्जित हो।” भुवनेश्वरी बोली।

“बाध्य होकर लड़ना तो पड़ेगा ही मां!” नरेन्द्र बोला, “ठीक है! मैं निमाई काका के पास जा रहा हूं। वहीं से बलराम बसु के घर चला जाऊंगा।”

“बलराम बसु के घर क्या है?” भुवनेश्वरी के स्वर में चिंता भी थी और विरोध भी।

“वहां ठाकुर आए हुए हैं।” नरेन्द्र बोला, “उनसे भेंट कर लूंगा।”

“दक्षिणेश्वर का वह साधु?” भुवनेश्वरी ने पूछा।

“हां, मां!” नरेन्द्र बोला, “ठाकुर अर्थात् दक्षिणेश्वर के साधु-श्री रामकृष्ण देव। लोग उन्हें परमहंस देव भी कहते हैं।”

नरेन्द्र के स्वर ने ही भुवनेश्वरी को बहुत कुछ समझा दिया था। वह उस साधु की जितनी ही अवमानना करती थी, नरेन्द्र उतना ही अधिक सम्मान देकर उनकी चर्चा करता था।

“तू दोनों काम कैसे करेगा नरेन?” भुवनेश्वरी कुछ खीझकर बोली, “वकील से मिलकर मुकदमा लड़ेगा और साधु से मिलकर वैराग्य की चर्चा करेगा?”

“तुम्हारे लिए मुकदमा जीतूंगा।” नरेन्द्र बोला, “अपने लिए ईश्वर।”

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