|
गुणैरुत्तमतां याति, नोच्चैरासन-संस्थित:
प्रासादशिखरस्थोऽपि, काक: किं गरुडायते
मनुष्य गुणों से उत्तम बनता है, न कि ऊंचे आसन पर बैठा हुआ उत्तम होता है। जैसे ऊंचे महल के शिखर पर बैठ कर भी कौआ-कौआ ही रहता है, गरुड़ नहीं बनता।
-चाणक्यनीति
उस विश्वासघात की बरसी
23जुलाई को एक ऐसे दिन की याद की जानी चाहिए जब अंग्रेजों ने एक दुरभिसंधि के तहत भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से विश्वासघात करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी पर लगा प्रतिबंध हटा लिया था और 23 अप्रैल, 1942 को मुम्बई के गवर्नर सर रोजर ल्युमली को कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा दिया गया प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। यह प्रस्ताव था कि अगर ब्रिटिश सरकार कम्युनिस्ट नेताओं ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद, पी.सी.जोशी, जी.अधिकारी, पी.सुंदरैया, सोमनाथ लाहिड़ी और डी.एस.वैद्य के विरुद्व जारी गिरफ्तारी के वारंट वापस ले लेती है तो पार्टी कांग्रेस के भारत छोड़ो आंदोलन की सफलता में बाधा पहुंचाने के लिए लोगों का ध्यान ज्यादा से ज्यादा इस बात में लगाएगी कि वे मिलों में उत्पादन बढ़ाएं तथा बाकी सब बातों से खुद को दूर रखें।
उल्लेखनीय है कि 6 से 14 जुलाई, 1942 के मध्य वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में 9 अगस्त से भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव उभर कर आया, जिसके बाद देशभर में महात्मा गांधी तथा उनके अनुयायियों पर सरकारी दमन चक्र शुरू हुआ। और फिर पूरे देश में उपद्रव शुरू हो जाते हैं। लेकिन दूसरी तरफ कम्युनिस्ट नेताओं के विरुद्ध जारी वारंट रद्द कर दिए जाते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी को वैधता प्रदान की जाती है और इसके प्रकाशनों पर लगा प्रतिबंध 23 जुलाई, 1942 को हटा लिया जाता है। अंग्रेजों के साथ कम्युनिस्टों की इस मिलीभगत को नई दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में निम्नलिखित तीन विषयों से संबंधित फाइलों को देखकर पहचाना जा सकता है। 1- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत) द्वारा अंग्रेज सरकार को मदद की गुप्त पेशकश। 2- वायसराय की परिषद् के गृह सदस्य सर रेजिनाल्ड मेक्सवेल और अन्य ब्रिटिश गुप्तचर अधिकारियों के साथ कम्युनिस्ट नेताओं की गुप्त बैठकें। 3- कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा ब्रिटिश सरकार के पास जमा गुप्त प्रगति-विवरण, जिसमें बताया गया कि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन को तोड़ने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी ने कितना शानदार काम किया। यह प्रगति-विवरण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी.सी.जोशी द्वारा 15 मार्च , 1943 को सर मैक्सवेल को भेजा गया था। उसके साथ एक पत्र नत्थी किया गया था। उस पत्र में सर रेजिनाल्ड मैक्सवेल को “डियर सर” कहकर सम्बोधित किया गया था। उसमें निम्नलिखित तीन बिन्दु लिखे गए थे-
1. हमारा काम और प्रचार इतना प्रभावी हुआ कि कांग्रेस, समाजवादी और फारवर्ड ब्लाक के तत्व देशभर में पर्चे बांटकर कह रहे हैं कि उनकी लड़ाई के असफल होने की वजह कम्युनिस्टों की गद्दारी है। 2. हमने विद्रोह को संस्थागत तथा व्यावहारिक रूप से हर स्तर पर लड़ा, चाहे वह दिग्भ्रमित देशभक्तों द्वारा आयोजित किया गया था अथवा पंचमांगियों द्वारा। 3. जब देश के सबसे बड़े राजनीतिक संगठन ने देश में हड़ताल की मांग की तब भी हमने उत्पादन बंद नहीं होने दिया। रेलवे में काम करने वाले हमारे कामरेडों ने लगातार मेहनत करते हुए अपने लाल झण्डे की स्थिति समझाई और काम को रुकने नहीं दिया।
इसी प्रगति-विवरण में केरल से निकलने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र देशाभिमानी के योगदान का भी जिक्र किया गया और कहा गया, “देशाभिमानी ही ऐसा पत्र है जो हफ्ते दर हफ्ते देशभक्तों से विद्रोह और सत्याग्रह की नीति छोड़ने की अपील करता है।.. वास्तव में पुलिस के अंधे दमन की वजह से नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक अभियान की वजह से केरल में नागरिक अवज्ञा आन्दोलन असफल हुआ।” कम्युनिस्टों द्वारा राष्ट्रीयता के हर आंदोलन और अभियान को किस प्रकार असफल किया गया, यह एक राष्ट्रीय शर्म का विषय है। यही सब बातें 23 जुलाई की याद से बंधी हैं और विडम्बना है कि वही विचारधारा अब पुन: देश के शासन को प्रभावित करने की स्थिति में आ पहुंची है।
आज कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार उन कम्युनिस्टों और मुस्लिम लीगियों पर टिकी है, जिन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन को असफल करने का हरसंभव प्रयास किया, देश का विभाजन कराया और अंग्रेजों से मिलीभगत की। एक वह कांग्रेस थी, एक यह है जहां पीछे से सत्ता संभालने वाले “संत” कहलाते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि उस समय कम्युनिस्ट कांग्रेसियों व अन्य स्वातंत्र्य सेनानियों के लिए जो भाषा इस्तेमाल करते थे, ठीक वही भाषा वे आज भारत की राष्ट्रीयता के लिए संघर्षरत हिन्दुत्व विचार-परिवार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
7
टिप्पणियाँ