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कौन किसके साथ?भाजपा का विजेता रूप देख बौखलायी कांग्रेस–डा. नन्दकिशोर त्रिखादेश के राजनीतिक इतिहास में किसी बड़े दल को हताशा और अवसाद की ऐसी हालत में पहले कभी नहीं देखा गया था, जितना कांग्रेस को इस समय देखा जा रहा है। वाजपेयी शासन की चहुंदिश लोकप्रियता के माहौल के बीच समय पूर्व लोकसभा चुनावों की सम्भावना व्यक्त किए जाने मात्र से सबसे पुराना यह दल इतना आतंकित हो गया कि उसने अपने सारे सिद्धान्तों और निर्णयों को ताक पर रखकर नए-नए गठबंधन करने की ताबड़तोड़ कोशिशें शुरू कर दीं।उसका पचमढ़ी का दम्भ चूर हो गया, जहां उसने किसी भी पार्टी से गठजोड़ न करके अपने बूते पर चुनाव लड़कर सत्ता में लौटने का फैसला किया था। लेकिन, गत माह तीन महत्वपूर्ण राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की विधानसभाओं के चुनाव हारने के बाद उसमें जो निराशा पैदा हुई, उसे भाजपा द्वारा शीघ्र आम चुनाव कराने की इच्छा व्यक्त किए जाने ने और गहरा दिया है। इसके साथ ही आर्थिक, राजनीतिक, अंतरराष्ट्रीय और वित्तीय- सभी मोर्चों पर अपूर्व प्रगति तथा सफलताओं का हर दिशा से खबरों व मूल्यांकनों का तांता लग जाने से कांग्रेस को शीघ्र चुनाव होने से अपने अस्तित्व पर ही संकट दिखने लगा है। इसलिए, इस होनी को टालने के लिए पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी कभी किसी से हाथ मिलाने तो कभी किसी और के यहां चाय पीने के लिए जा रही हैं, ताकि चीथड़ों को सी कर कोई चुनावी रजाई बनाई जाए जो निराशा की बर्फीली हवाओं से कुछ राहत दे सके। अब उन्होंने गठबंधन राजनीति की अनिवार्यता को अंतत: स्वीकार कर लिया है, जिसे भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सफलतापूर्वक निभाता आ रहा है। लेकिन, सोनिया गांधी अब भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि वह प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार नहीं हैं- और यही जिद गठजोड़ बनाने की उनकी सारी कसरतों को चुनावों में बेकार कर देगी। फिर भी वे कहीं भी, किसी के भी साथ गठबंधन करने को आतुर हैं, भले ही यह गठबंधन बहुत सी लंगड़ी टांगों को बांधकर किया जा रहा हो।विडम्बना यह भी है कि जहां एक ओर वे गठबंधनों की कोशिशों में जगह-जगह जा रही हैं और अब तक के तिरस्कार लोगों का अपने यहां स्वागत कर रही हैं, वहीं उनका अपना महल चरमरा रहा है। पंजाब कांग्रेस में आए भूकम्प ने उसकी इमारत ध्वस्त कर दी है। बिखरी ईंटों को जोड़कर एक कच्ची दीवार फिर खड़ी जरूर कर दी गई है, लेकिन राज्य में पार्टी की वि·श्वसनीयता जिस तरह खत्म हो गई है, उससे राजनीतिक समीक्षकों के मत में वह यदि राज्य से लोकसभा की अपनी दो-एक सीटें भी बचा सके तो बहुत होगा। केरल प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष ने कह दिया है कि जब तक मुख्यमंत्री ए.के. एंटनी को हटाने की मांग का संकट नहीं निपटाया जाएगा, तब तक चुनावों में जीत की आशा नहीं करनी चाहिए।उत्तर प्रदेश, उत्तराञ्चल, उड़ीसा, कर्नाटक, गुजरात, महराष्ट्र, छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और पूर्वोत्तर के अधिकांश राज्यों में सर्वत्र आंतरिक विग्रह या गहरी हताशा की स्थिति है। इससे निपटने के लिए कुछ पैबन्द लगाने के प्रयास किए गए हैं। कुछ प्रदेशों के अध्यक्ष बदल दिए गए हैं। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में कुछ नए चेहरे लाए गए हैं, कुछ के पदभार में फेरबदल कर कृत्रिम ·श्वास फूंकने का यत्न किया गया है किन्तु, पार्टी के कार्यकर्ताओं में यह भाव जगाने के अतिरिक्त कि सोनिया गांधी क्षति-नियंत्रण में लगी हुई हैं, इसका कोई बड़ा लाभ होता नहीं दिखता।गठजोड़ बनाने के कांग्रेस के प्रयत्नों का अब तक सिर्फ तमिलनाडु में कुछ परिणाम निकला है, जहां राजग में शमिल द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के नेतृत्व वाला प्रादेशिक मोर्चा उससे अलग हो गया है और उसने कांग्रेस से हाथ मिलाना स्वीकार किया है। यह वही द्रमुक है, जिसे कांग्रेस ने राजीव गांधी के हत्यारों से मिले होने का अपराधी करार देते हुए केन्द्र की संयुक्त मोर्चा सरकार को यह मांग करते हुए गिरा दिया था कि द्रमुक के मंत्रियों को उससे बर्खास्त किया जाए। अत: तमिलनाडु में हो रहे इस गठजोड़ की कोई वि·श्वसनीयता नहीं है। इसकी वि·श्वसनीयता इसलिए और भी कम है, क्योंकि इसमें सम्मिलित द्रमुक समेत तीनों प्रादेशिक दलों ने श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व और उनके अधीन राजग सरकार द्वारा अच्छा काम किए जाने की सराहना की है। इसलिए यह गठबंधन उन्होंने मुख्यमंत्री सुश्री जयललिता का सामना करने के लिए किया है, सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने या केन्द्र में कांग्रेस को आसीन करने के लिए नहीं।लोकसभा में 39 सांसदों को भेजने वाले इस राज्य का निश्चय ही बहुत महत्व है। कांग्रेस वहां द्रमुक या जयललिता के अन्नाद्रमुक में से किसी एक दल से गठजोड़ करके चुनाव लड़ती और उसका लाभ उठाती रही है। जब-जब वह अकेले लड़ी तब-तब पिटती रही, इसलिए उसने इस बार अपमान का कड़वा घूंट पीकर द्रमुक से फिर हाथ मिलाया। परन्तु, जयललिता के सत्तारूढ़ होने के कारण उसे उसका अल्प लाभ ही मिल सकेगा। और यह भी सम्भव है कि अगर जयललिता और भारतीय जनता पार्टी के बीच तालमेल हो गया तो वाजपेयी शासन के करिश्मे, वाजपेयी जी की असाधारण लोकप्रियता तथा अन्नाद्रमुक की शक्ति के समेकित प्रभाव से द्रमुक-कांग्रेस गठजोड़ का पूरा सफाया हो जाए।महराष्ट्र में, जहां से 48 सांसद लोकसभा में जाते हैं, कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी दोनों ही, भाजपा-शिवसेना के वर्तमान मारक प्रभाव से आतंकित हैं। इसलिए श्री पवार ने किसी विदेशी को संवैधानिक पद पर न बिठाए जाने का अपना वह सिद्धांत पी डाला है जिसके आधार पर उन्होंने चार साल पहले कांग्रेस को तोड़ा था। पर, इसके कारण अब उनकी अपनी पार्टी टूटने लगी है। पार्टी महासचिव और लोकसभा के पूर्व अध्यक्ष श्री पूर्णो संगमा ने अलग मार्ग अपना लिया है। उन्होंने पूर्वोत्तर के आठ राज्यों के 17 दलों के एक गुट को राजग का घटक बनवा दिया है। इसमें चार राज्यों के मुख्यमंत्री और उनके दल शामिल है। इससे पूर्वोत्तर राज्यों की 27 सीटों पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। निश्चय ही, यह कांग्रेस के लिए भारी क्षति है। भाजपा के लिए वहां स्थिति विशेष लाभकारी होगी, जहां उसकी उपस्थिति अभी तक सीमित है। हाल में वाजपेयी सरकार द्वारा बोडो समस्या का जिस प्रकार समाधान किया गया, बोडो को संवैधानिक भाषा बनाया गया, विद्रोहियों का भूटान से सफाया कराया गया, नागा समस्या के हल के लिए जो वार्ता आरम्भ की गई, पूर्वोत्तर के विकास के लिए जो व्यापक कार्य किए गए, उन सब के कारण वहां अत्यंत अनुकूल वातावरण बना है।यद्यपि अन्य अनेक दलों के लिए वाजपेयी सरकार के पक्ष में माहौल के कारण अस्तित्व का खतरा पैदा हो गया है और कांग्रेस इसी प्रकार के संकट से उबरने के लिए उन्हें अपने शिविर में लाने की कोशिश कर रही है। किन्तु, उसे अभी कोई सफलता नहीं मिली है। इनमें श्री राम विलास पासवान की लोक जनतांत्रिक पार्टी भी शामिल है।जब तक उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को पर्याप्त सीटें नहीं मिलतीं तब तक केन्द्र में सत्तारूढ़ होने के उसके मंसूबे धरे के धरे रह जाएंगे। इन राज्यों में से बिहार में लालू यादव की तो उस पर कृपा रहेगी, मगर अत्यंत सीमित। पर, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कहा है कि उनका दल कांग्रेस से तालमेल नहीं करेगा, अकेले ही सब जगह लड़ेगा। इसलिए, कांग्रेस को यदि कोई उम्मीद इस राज्य में है तो वह मायावती की बहुजन समाज पार्टी है। इसलिए मायावाती को खुश करने के लिए श्रीमती गांधी उनके जन्मदिन पर बधाई देने उनके घर जा पहुंचीं। किन्तु, मायावती ने सोनिया से कहीं ज्यादा चतुराई से गोटियां बिछाना सीख रखा है। इसलिए उन्होंने अभी अपने पत्ते नहीं खोले, जब खोलेंगी तो वह कांग्रेस के लिए महंगी साबित होंगी।मायावती को वि·श्वास है कि दूसरी पार्टियां अपने वोट उनके उम्मीदवारों को स्थानांतरित करवा पाती हैं, जबकि बसपा के वोट वे पा जाती हैं। इसलिए उनके साथ चुनावी समझौते बसपा के लिए घाटे का सौदा होते हैं। अत: बसपा या तो अकेले लड़ना पसंद करती है या अप्रत्यक्ष समझौते करती है। जहां तक उत्तर प्रदेश का प्रश्न है, कांग्रेस के साथ गठबंधन का उसका अनुभव सुखद नहीं रहा है। यही स्थिति अन्य राज्यों, यथा- पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भी है। वैसे बसपा की अपनी वि·श्वसनीयता इस समय निम्नतर स्तर पर है। इसमें कांग्रेस की निम्न वि·श्वसनीयता मिला देने से कोई विजयी योग नहीं बनता।कुल मिलाकर अभी ऐसा नहीं दिखता कि कांग्रेस कुछ अखबारों के पन्नों को छोड़कर और कहीं कोई ऐसा कारगर राष्ट्रीय गठजोड़ खड़ा करने की स्थिति में है, जो श्री वाजपेयी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को कड़ी चुनौती दे सके। अभी तक जो तानाबाना बुना भी गया है, वह लड़खड़ाता हुआ है क्योंकि अभी सीटों के बंटवारे का सबसे कठिन और निर्णायक दौर शेष है।14
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