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लाभकारी होगा यह कानून
-डा. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी, प्रसिद्ध संविधानविद्
यह प्रसन्नता की बात है कि हमारे संविधान की भावना, संविधान के आदेश को सर्वोच्च न्यायालय ने पुन: रेखांकित किया है। यह बात हमारे संविधान का हृदय है, उसका स्पंदन है, इसकी अनदेखी करना, इस अनसुना करना देश के लिए घातक होगा। सभी उच्च पदों पर बैठे लोग संविधान के प्रति शपथ लेते हैं। कौन से संविधान के प्रति शपथ लेते हैं वे? क्या यह कहकर शपथ लेते हैं कि संविधान में हमारे लिए जो-जो सुविधाजनक है, उसी के प्रति शपथ लेते हैं, बाकी हम कुछ नहीं मानेंगे?
सच्चाई तो यह है कि संविधान में अनुच्छेद 44 का निर्माण करते समय हमारी संविधान सभा ने यह आशा प्रकट की थी और इस संकल्प के प्रति वचनबद्ध थे कि ये मूलभूत सिद्धान्त हमारे गणतंत्र के निदेशक तत्व होंगे। साथ ही यह वादा भी किया था कि इन निदेशक सिद्धान्तों को लागू किया जाएगा।
आज से लगभग 8 वर्ष पूर्व सर्वोच्च न्यायालय की एक अन्य पीठ द्वारा भी यही बात कही गयी थी। एक बार पुन: सर्वोच्च न्यायालय के माननीय मुख्य न्यायाधीश एवं उनके दो वरिष्ठ सहयोगियों ने यही बात कही है। दुर्भाग्य से इस बार भी राजनीतिक दृष्टि के लोग कह रहे हैं कि यह सर्वोच्च न्यायालय का सुझाव मात्र है, उस पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। यह बड़ी अजीब बात है कि जिन लोगों के लिए संविधान की भावना आवश्यक नहीं है, सर्वोच्च न्यायालय का सुझाव मानना भी अनिवार्य नहीं है, वही लोग सुबह-शाम संविधान की दुहाई देते हैं, कानून की बात करते हैं! मुझे समझ नहीं आता कि संविधान की इस प्रकार अनदेखी क्यों की जा रही है?
आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड, मुस्लिम लीग आदि ने कहा है कि उन्हें यह स्वीकार नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस सुझाव को माना जाए। दूसरी तरफ अयोध्या के मामले में वे लोग कहते हैं कि हमें अदालत के फैसले के सिवाय और कुछ मंजूर नहीं है। समान नागरिक संहिता, जो स्वयं मुस्लिम भाइयों-बहनों के लिए, उनके जीवन निर्वाण के लिए, उनके भविष्य के लिए एक अनिवार्य शर्त है, उसके प्रति ऐसी अवज्ञा की भावना निश्चित रूप से राजनीति से प्रेरित है। मेरे घनिष्ठ मित्र एवं अग्रज स्व. न्यायमूर्ति मोहम्मद करीम छागला बहुत बार कहा करते थे कि जब तक हम एक समान नागरिक कानून नहीं बना लेंगे तब तक भारत की सामाजिक एकता को महिमामंडित करना तो दूर, उसको संपुष्ट करने की संभावना भी नहीं रहेगी। वे यह भी कहा करते थे कि समान नागरिक कानून के बिना मुस्लिम समाज का विकास एवं उद्धार संभव नहीं है। इसलिए मेरा मानना है कि सर्वोच्च न्यायालय ने अभी जो सलाह दी है उसके लिए शीघ्रातिशीघ्र एक प्रबल इच्छाशक्ति और राजनीतिक सहमति का निर्माण होना चाहिए। जो लोग इस महत्वपूर्ण प्रश्न को सिर्फ वोट बैंक के चश्मे से देखते हैं, उन्हें यह दृष्टिकोण छोड़कर नए सिरे से विचार करना चाहिए। यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि मुस्लिम समाज तथा इस देश के हित में यही है कि एक समान नागरिक कानून लागू किया जाए।
यह बात सही है कि सर्वोच्च न्यायालय ने कोई बाध्यता नहीं दी है, कानून नहीं बनाया है कि यह करना होगा, पर हमें समझना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की सलाह है कि जो देश के हित में है वह करना ही चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की इस भावना का सम्मान करना चाहिए और सकारात्मक दृष्टि से, प्रयत्नपूर्वक इसको कार्यरूप देने का प्रयत्न करना चाहिए। हमें यह भी समझना होगा कि राजनीति के खूंटे से बंधकर सामाजिक न्याय का पक्ष कमजोर हो जाता है, सामाजिक सुधार का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। यह भी कष्टकारी है कि देशहित के इतने महत्वपूर्ण प्रश्न पर राजनीतिक सहमति बनना असंभव नहीं, तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। होना तो यह चाहिए था कि मुस्लिम समाज, विशेषकर मुस्लिम महिलाओं की परेशानियों को सामने लाया जाता, उनकी बात को बल दिया जाता, तब समान नागरिक कानून का महत्व उन्हें भी समझ में आता। पर उन्हें एक निश्चित दायरे में बंधकर रहने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। जो लोग आज उनके नाम पर बोल रहे हैं वे वास्तव में मुस्लिम समाज का ही अहित कर रहे हैं, उनके साथ अन्याय कर रहे हैं। इस दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय ने जो सुझाव दिया है वह महत्वपूर्ण है ताकि हमारे देश का विवेक जागे। एक नई अलख जगाने का प्रयत्न हो। समाज सुधार का एक नया प्रकल्प फिर से आगे बढ़े। इसमें मुस्लिम समाज को भी सम्बोधन है, विशेषकर मुस्लिम महिलाओं और युवाओं को सम्बोधन है कि वे इस पर विचार करें तथा आगे आएं और नई भूमिका अदा करें। द
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