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एक देश एक कानून
द जितेन्द्र तिवारी
सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर सभी राजनीतिक दलों को एक अवसर दिया है कि वे संविधान की मूल भावना का सम्मान करते हुए पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करें। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.एन.खरे, न्यायाधीश एस.बी. सिन्हा एवं न्यायाधीश (डा.) ए.आर. लक्ष्मणन ने स्पष्ट कहा है कि संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का प्रावधान इस अवधारणा पर आधारित है कि सभ्य समाज में धार्मिक और वैयक्तिक कानून में कोई अनिवार्य सम्बंध नहीं है। इसके बावजूद लग यही रहा है कि वोट बैंक के गणित में उलझी भारतीय राजनीति न तो संविधान के हितों की रक्षा कर पा रही है और न ही सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का सम्मान। अयोध्या विवाद पर बार-बार न्यायालय की दुहाई देने वाले मुसलमानों के व्यक्तिगत मजहबी कानून में किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। संविधान की भावना का सम्मान करना तो दूर मुस्लिम लीग के एक सांसद ने संसद में यहां तक कह दिया कि संविधान से वह धारा 44 ही हटा देनी चाहिए, जिसमें सारे देश में समान नागिरक संहिता लागू करने की बात कही गयी है। श्रीराम जन्मभूमि पर न्यायालय के निर्णय को सर्वोपरि मानने की दलीलें देने वाले आल इंडिया मुस्लिम पसर्नल ला बोर्ड के सदस्य जब अपने पर बन आयी तो यह कहते घूम रहे हैं कि यह उनके मजहबी मामले में हस्तक्षेप है। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने भी मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के सुर में सुर मिलाया है। और देश की सबसे पुरानी पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस अभी तक वोट बैंक की राजनीति से चिपकी हुई है और कह रही है कि समान नागरिक संहिता तभी लागू की जाए जब मुसलमान उसे स्वीकार करें। और यदि मुसलमान राष्ट्रहित की मांग अस्वीकार करें तो……?
समान नागरिक संहिता लागू करने पर चर्चा एक बार फिर इसलिए जोर-शोर से शुरू हुई, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने गत 23 जुलाई को एक व्यक्तिगत मामले में निर्णय देते हुए स्पष्ट कहा कि संविधान के अनुच्छेद 44 की भावना का सम्मान करते हुए सम्पूर्ण देश में एक समान नागिरक संहिता लागू की जानी चाहिए। सन् 1997 में पादरी श्री जान वैलेमट्टोम व अन्य द्वारा अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत दायर एक याचिका पर निर्णय देते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री वी.एन. खरे की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने यह सुझाव दिया है। मामला उत्तराधिकार कानून में ईसाइयों से भेदभाव को लेकर शुरू हुआ था। इस पूरे मामले पर सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता एवं अधिवक्ता परिषद् दिल्ली के अध्यक्ष श्री भास्कर कुलकर्णी ने पाञ्चजन्य को बताया कि भारतीय उत्तराधिकार कानून की धारा 118 के अन्तर्गत यह कहा गया था कि यदि किसी ईसाई व्यक्ति को अपनी सम्पत्ति किसी पांथिक संस्था को दान करनी हो तो उसकी वसीयत कम से कम 1 वर्ष पूर्व बनी होनी चाहिए, और यह वसीयत भी 6 माह पूर्व कानूनन स्वीकार किए जाने वाले किसी स्थान पर जमा होनी चाहिए। श्री जान वैलेमट्टोम व अन्य ने अपनी याचिका में कहा था कि भारतीय उत्तराधिकार कानून की धारा 118 भेदभाव पैदा करने वाली है क्योंकि हिन्दू व मुस्लिम अपने विवेक से कभी भी अपनी सम्पत्ति किसी भी पांथिक कार्य के लिए अथवा धार्मिक संस्था को अपनी सम्पत्ति का दान कर सकते हैं, जबकि ईसाइयों के लिए यह प्रतिबंध है कि वे केवल एक तिहाई सम्पत्ति ही पांथिक कृत्यों के लिए दान कर सकते हैं, शेष अपने उत्तराधिकारियों के लिए सुरक्षित रखना अनिवार्य है। इसके साथ ही उसे मृत्यु से कम से कम एक वर्ष पूर्व ऐसी वसीयत करनी होगी तथा 6 माह पूर्व उसे कानूनन स्वीकार्य स्थान पर जमा कराना होगा। यदि इस बीच उसकी मृत्यु हो गयी तो उसकी वसीयत स्वीकार नहीं होगी। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि यह भेदभावपू्र्ण है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर निर्णय देते हुए कहा कि यह प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार है, इसमें भेदभाव नहीं होना चाहिए। मूलभूत अधिकारों में भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन है। इसी आधार पर सर्वोच्च न्यायालय की इस तीन सदस्यीय पीठ ने उत्तराधिकार कानून की धारा 118 को असंगत मानते हुए उसे निरस्त कर दिया।
इसी निर्णय में नागरिक कानून की चर्चा करते हुए मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वी.एन.खरे ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 44 में यह निर्देश दिया गया है कि सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून लागू किया जाना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संविधान की धारा 44 को अभी तक लागू नहीं किया गया। संसद को पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का निर्णय लेना है। समान नागरिकता संहिता बनने से अनुच्छेद 25 व 26 में दिए गए धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता। न्यायमूर्ति वी. एन. खरे ने यह भी कहा कि समान नागरिक संहिता के लागू होने से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी और विचारधाराओं के विरोधाभास समाप्त होंगे।
श्री भास्कर कुलकर्णी का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय इस तरह की भावना पहले भी प्रकट कर चुका है। मैंने भी एक व्यक्तिगत याचिका दायर की थी कि भारत सरकार को समान नागरिक संहिता लागू करने का निर्देश दिया जाए। इस पर भारत सरकार को नोटिस भी जारी हुआ था, परन्तु सरकार ने कोई उत्तर ही नहीं दिया। अंतत: न्यायालय ने यह कहते हुए याचिका रद्द कर दी कि इसमें सरकार की रुचि दिखाई नहीं देती। श्री कुलकर्णी का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय को जो कहना था, वह उसने कह दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने समान नागरिक संहिता पर अपना विचार प्रस्तुत किया है, अब कानून बनाना संसद का काम है। वह न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। हां, यदि एक बार कानून बन जाए और उसमें कुछ खामियां हों, जो मूलभूत अधिकारों के विरुद्ध हों तो न्यायालय उनको रद्द कर सकता है। श्री कुलकर्णी का कहना है कि समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय बार-बार सरकार को चेताता है, लेकिन जब तक समाज में इस विषय पर बड़े पैमाने पर जनमत जाग्रत नहीं होगा, संसद पर जब तक दबाव नहीं बनेगा, तब तक यह विषय ऐसे ही चलता रहेगा।
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