दिंनाक: 02 Feb 2003 00:00:00 |
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यह यशोगाथा है दो समाज-चिन्तकों की, दो पर्यावरण-प्रेमियों की, दो कर्मठों की। यह यशोगाथा उन सरकारी अधिकारियों के लिए आंखें खोलने वाली भी है, जो वातानुकूलित कमरे में बैठकर पर्यावरण-रक्षा की योजना बनाते हैं और परिणाम आते हैं, ढाक के वही तीन पात। जी हां, श्री बसंताराम चतुर्वेदी और बाबूलाल चतुर्वेदी -इन दोनों ने राजस्थान के करौली जिले के हजारीपुरा गांव में पर्यावरण-रक्षा के लिए कुछ ऐसा ही किया है।आज से लगभग 10 वर्ष पहले इस गांव के समीप स्थित चारागाह में केवल धूल ही धूल हुआ करती थी। अल्प-वृष्टि के कारण रही-सही घास भी समाप्त हो चुकी थी। इससे पशुओं के लिए दाना-पानी का भी संकट पैदा हो गया था। यह देखकर ही इन दोनों ने उक्त स्थान पर वृक्षारोपण का निर्णय लिया। इसके लिए इन दोनों ने अपने गांव के लोगों से भी सहयोग मांगा। आस-पास के गांवों में घूम-घूमकर इन दोनों ने लोगों से हरे पेड़ न काटने का आग्रह किया। इस मुद्दे पर कुछ असामाजिक तत्वों से इनकी मुठभेड़ें हुईं। किन्तु इन्होंने उसकी परवाह न करते हुए अपने कर्तव्य का पालन किया। बरसात के दिनों में कुछ ग्रामीणों के साथ इन लोगों ने उक्त चारागाह पर घास एवं पौधे रोपे। साथ ही शीशम, पीपल, बरगद, बबूल, नीम आदि के पेड़ भी लगाए। इन दोनों ने एक-एक वृक्ष की उसी तरह देखरेख की, जिस तरह मां अपने बच्चे की चिंता करती है। वृक्षों की सिंचाई के लिए इन्हें बैलगाड़ी से पानी ले जाना पड़ता था। दिनभर में कई बार ये लोग वृक्षों की देखभाल करने के लिए जाते थे। फिर भी इन्हें कभी थकान महसूस नहीं हुई। इनके इसी अथक परिश्रम का परिणाम है कि आज 90 बीघा बंजर भूमि पर सैकड़ों वृक्ष खड़े हैं, पशुओं को चारा भी मिलने लगा है और गांव का वातावरण भी सुरम्य एवं सुहावना हो गया है। द रामस्वरूप चतुर्वेदी11
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