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कही-अनकही

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May 5, 2002, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 May 2002 00:00:00

दूसरे के काम के विशेषज्ञदीनानाथ मिश्रहम चाहते हैं कि सरकार यह न बताए कि अखबार कैसे चलाए जाएं, और अखबार सरकार को न बताएं कि सरकार कैसे चलाएं। मगर न अखबार बाज आते हैं और न सरकार। अपने यहां यही मुसीबत है कि हर आदमी दूसरे के काम में विशेषज्ञ होता है। आप स्कूलों को देख लीजिए। हर अध्यापक प्रधानाध्यापक के कामकाज के तरीके से अक्सर खुश नहीं होता। चाहे अध्यापकों की टोली हो या क्लास, वह प्रधानाध्यापक की नुक्ताचीनी में अपनी अक्ल का अच्छा-खासा हिस्सा खर्च करता रहता है। मानो उसे अगर प्रधानाध्यापक बना दिया जाए तो वह स्कूल को आदर्श बना डालेगा। आप प्रधानाध्यापक से मिलिए, वह अध्यापकों की 36 खामियां बताएगा। लेट आते हैं, क्लास नहीं लेते, छात्रों में अनुशासन नहीं रखते, जब खुद ही अनुशासन का पालन नहीं करते, तो छात्रों से अनुशासन का पालन कैसे कराएंगे?आप किसी दफ्तर में जाइए। बाबू बातचीत में बॉस की जिम्मेदारियों के बारे में विशेषज्ञ नजर आएगा। मगर अपनी जिम्मेदारी के बारे में परले दर्जे का भूलनशील होगा। हर जगह की यही हालत है। उपसम्पादक, सम्पादक के सभी आदर्शों की सूची बता सकता है। अगर उसे कुछ नहीं आता है तो अपना काम। यह हमारा राष्ट्रीय रोग है। व्यक्ति अपना काम छोड़कर हर काम जानता नजर आता है। जहां तक अखबारों की बात है, उनका अपना काम तो कुछ होता ही नहीं। वह पुलिस, सरकारी महकमों, नगरपालिकाओं, अदालतों सबका काम संभाले रहते हैं। अपना कागज है, अपनी कलम है और दूसरी संस्था का काम-काज है। उसी से वह कागज का पेट भरते रहते हैं। कुछ इधर की सुनी, कुछ उधर की सुनी, कुछ भगवान का दिया अपना दिमाग लगाते हैं। बस हो गई खबर तैयार। खबरें तैयार तो अखबार तैयार।वह आपातकाल का दौर था। तब के एक सम्पादक ने आपबीती सुनाई थी। एक सुबह उनके अखबार में स्थानीय तहसीलदार की मौत हो गई। उधर खबर से तहसीलदार के घर के लोग आग बबूला। खुद तहसीलदार का पारा सातवें आसमान पर। सम्पादक का दफ्तर आना हुआ तो फोन खड़कने लगे। वह जमाना मीसा वगैरह का था। तहसीलदार इशारों से किसी को जेल भेज सकते थे। सो सम्पादक कांपते हुए माफी मांगते नजर आए। हुआ यह था कि मरे तहबीलदार साहब थे। और संवाददाता ने तहबीलदार के मरने का समाचार ही दिया था। मगर ज्ञानी उपसम्पादक संवाददाता के अज्ञान पर हंसा। उसे मालूम नहीं था कि तहबीलदार भी कुछ होता है। सो, उसने अपने समाचार में तहसीलदार को मार डाला। परिणामत: शोकाकुल परिजन तहसीलदार के घर पहुंचने लगे। कोप का घड़ा बेचारे सम्पादक पर टूटा।दूसरे दिन खबर के संशोधन का काम किया गया। मुख्य संवाददाता और मुख्य उपसम्पादक दोनों को हिदायत दी। अब गलती की कोई गुंजाइश नहीं थी। खबर सावधानी से बनी। मुख्य संवाददाता ने संशोधित समाचार खुद लिखा। मुख्य उपसम्पादक ने पूरी सावधानी बरती। अब गलती की कोई गुंजाइश नहीं थी। सो, सब निश्चिन्त होकर अपने-अपने घर चले गए। इधर विधि को कुछ और ही मंजूर था। उन दिनों प्रूफरीडर की बड़ी महिमा थी। तकदीर से वह भी तहबीलदार शब्द से गैरजानकार था। नतीजा यह कि संशोधित समाचार में एक बार फिर तहसीलदार साहब की मौत हो गई। तहसीलदार साहब के यहां से दो सिपाही सम्पादक के यहां पहुंचे। सम्पादक महोदय को अपनी आंखों पर वि·श्वास न हुआ। जब उस दिन भी उनके अखबार में तहसीलदार साहब दोबारा मरे पाए गए। उन्होंने सिपाही से लेकर तहसीलदार तक से बड़ी ही दयनीय मुद्रा में माफी मांगी।वह दफ्तर में शेर की भूख लेकर गए। जो भी सामने पड़ा अपने-अपने हिस्से की फटकार खाकर सन्न रह गया। भू-कम्प का सा वातावरण बन गया। खैर, सम्पादक ने खुद खबर बनाई। कई घंटे रुककर उसे प्लेट पर चढ़ाकर निश्चिंत होकर घर गए। लेकिन तकदीर देखिए। उस दिन पुराना अनुभवी फोरमैन ड्यूटी पर रात देर गए आया। छपाई का जिम्मा उसका होता है। उसने बाक्स का समाचार देखा। संयोग से तहबीलदार शब्द से उसकी भी जान पहचान नहीं थी। उसने मशीन रोकने का आदेश दिया। मशीन रुक गई। उसने अपने हाथ से तहबीलदार को बदलकर तहसीलदार कर दिया। तहसीलदार साहब तीसरे दिन के अखबार में भी मरे पाए गए। कहानी का अन्त सम्पादक के स्थानान्तरण से हुआ। दूसरे कामों में विशेषज्ञ होने की ऐसी सैकड़ों दुर्घटनाएं होती है। पर हम दूसरों के कामों में विशेषज्ञ होने की आदत से लाचार हैं।13

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