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दिग्गजों की जंग, बिसात बदरंगजूडो का नियम है कि प्रतिद्वन्द्वी की ताकत उसी के विरुद्ध मोड़ देनी चाहिए। यह राजनीति के संदर्भ में भी उतना ही सत्य है- जैसा कि आज तमिलनाडु में साफ जाहिर भी है। अपने विरोधियों के खिलाफ अभियान को जयललिता अगले दौर में ले गई हैं। एक साल पहले, उन्होंने करुणानिधि पर सार्वजनिक चोट करने की भूल की थी। सबक सीख लेने के बाद-क्या आप बता सकते हैं कि और कितने राजनीतिज्ञ अपनी गलतियों से सीख लेते हैं?- तमिलनाडु की मुख्यमंत्री ने अब उस घड़ी का इंतजार करने का फैसला किया है जब उनके विरोधी अपने लिए खुद गढ्ढा खोद लें। और वे ऐसा कर भी रहे हैं…..परम्परागत समझ के अनुसार जयललिता की सबसे ताकतवर शत्रु है द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक)। यह मौजूदा हालात में सही हो सकता है, पर करुणानिधि की उम्र पक रही है, और पार्टी में उनके सरीखे कद का कोई और नहीं है। अत: जयललिता फिलहाल द्रमुक महारथी को उनके हाल पर छोड़कर, भविष्य के संभावित खतरों पर ध्यान केन्द्रित किए हुए हैं।इस सूची में सबसे ऊपर हैं एम.डी.एम.के. के वाइको। वह तमिलनाडु में जयललिता और करुणानिधि के बाद तीसरे सर्वाधिक लोकप्रिय राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने तमिलनाडु में सबसे ईमानदार राजनीतिज्ञ के रूप में साख अर्जित की है। लेकिन उनका ठीक यही गुण उनके पतन का कारण भी हो सकता है, क्योंकि वाइको अपनी भावना से जुड़े मुद्दों पर चुप्पी नहीं साधते। ऐसे मुद्दों में सबसे ऊपर है ईलम (श्रीलंका में एक प्रस्तावित तमिल क्षेत्र का गठन)।इसमें कुछ समस्याएं हैं। पहली, भारत सरकार ने श्रीलंका की भौगोलिक एकजुटता के प्रति सम्मान प्रकट किया है। दूसरे, लिट्टे ने अपने विरोधियों को मिटा देने की ऐसी कार्रवाइयां की हैं कि ईलम का समर्थन लिट्टे के ही समर्थन जैसा है। यह बाद वाली बात वाइको के लिए किसी तरह की परेशानी जैसी नहीं है, पर किसी अन्य दल के लिए किसी आतंकवादी गुट का समर्थन करना असंभव है।जयललिता के प्रति न्याय करते हुए, तमिलनाडु की मुख्यमंत्री ने लिट्टे के प्रति हमेशा ही अपनी वितृष्णा दर्शायी है। 1991 से 1996 के बीच सत्ता में अपने पिछले कार्यकाल में तमिलनाडु में लिट्टे के समर्थन को खत्म करने के लिए उन्होंने उस समय तक रहे किसी भी मुख्यमंत्री से कहीं ज्यादा कोशिश की थी। (उस दौरान तमिलनाडु में कानून और व्यवस्था आमतौर पर 1996 में आए करुणानिधि प्रशासन से बेहतर थी।)वाइको का समर्थन करना किसी भी दल के लिए संभव नहीं है। भाजपा आतंकवाद विरोधी मंच के प्रति प्रतिबद्ध है। कांग्रेस भी राजीव गांधी की हत्या के जिम्मेदार संगठन के विरुद्ध अभियान चला रहीं जयललिता का निश्चित ही विरोध नहीं कर सकती। और द्रमुक भी वाइको के प्रति बहुत मुखर नहीं है। (करुणानिधि वाइको की ताकत जानते हैं; उन्हें पैतृक पार्टी से निकाल बाहर करने का एक कारण यह भी था कि करुणानिधि अपने पुत्र और तय उत्तराधिकारी, स्टालिन का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं चाहते थे।)जयललिता ने बिल्कुल ठीक गणना की है। गणना यह है कि हालांकि व्यक्ति के नाते वाइको के प्रति कुछ लोगों को सहानुभूति हो सकती है, पर कोई भी उनके आंदोलन का समर्थन नहीं करेगा। लेकिन अगर यह गणना चूक भी जाती है तो भी जयललिता कुछ खोएंगी नहीं; अगर वाइको जयललिता-विरोधी ताकतों के झण्डाबरदार बन भी जाते हैं तो भी यह करुणानिधि और स्टालिन के लिए सिरदर्द की बात होगी, अन्नाद्रमुक के लिए नहीं।वाइको का खुद को इस तरह फंसा लेना शायद काफी नहीं था, इसीलिए संभवत: राजग के एक अन्य सहयोगी पी.एम.के.के डा. रामदास ने वही करतब दोहराया। उन्होंने तमिलनाडु के विभाजन की मांग कर दी। पी.एम.के. ऐसी पार्टी है जो एकमात्र समुदाय, वन्नियार पर निर्भर है। लेकिन वन्नियारों के हितों की रक्षा के लिए उत्तरी जिलों में से एक नए राज्य के निर्माण की मांग कुछ ज्यादा ही बेलाग है। किसी भी दल, चाहे वह राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय, के लिए ऐसी मांग का समर्थन करना मूर्खताजन्य आत्मघाती कदम होगा। इससे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री को राजग सहयोगियों के बीच खाई पैदा करने का एक और सुनहरा अवसर मिल गया है। सिद्धान्तों और राजनीति से अलग, इसमें एक कुनकुने प्रतिशोध का तत्व भी है। पी.एम.के. और एम.डी.एम.के. को उस समय राजनीतिक खात्मे से उबारा गया था जब 1998 में जयललिता ने द्रमुक और तमिल मनिला कांग्रेस के विरुद्ध अपने गठबंधन में उन्हें शामिल किया था। एक वर्ष बाद, जब उन्होंने वाजपेयी सरकार से नाता तोड़ा तो इन दोनों दलों ने उनका साथ छोड़ दिया था। (पांडिचेरी में पी.एम.के. कांग्रेस से भी जुड़ती-बिछुड़ती रही है; कांग्रेस, अन्नाद्रमुक की सहयोगी मानी जाती है।) उन दोनों दलों ने जयललिता के साथ जो व्यवहार किया, वैसा ही व्यवहार करना और दोनों को अलग-थलग करना जयललिता को अत्यंत सुखद प्रतीत होता है।वाइको की मुखर ईमानदारी और डा. रामदास के वन्नियार आधार ने उन दोनों को राजनीतिक मुख्यधारा में लाने में प्रमुख भूमिका निभाई है। अपने शत्रुओं की खूबियों को उन्हीं की मजबूरियों में बदल देने का महारथ दिखाने वाली जूडोका (जूडो का खिलाड़ी) जयललिता को सलाम करना चाहिए। द 23.07.200211
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