दिंनाक: 11 Mar 2002 00:00:00 |
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द गोपालदास नीरजजलाओ दिये पर रहे ध्यान इतनाअंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।नई ज्योति के धर नये पंख झिलमिलउड़े मत्र्य मिट्टी गगन-स्वर्ग छू ले,लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,निशा की गली में तिमिर राह भूले,खुले मुक्ति का वह किरन-द्वार जगमगउषा जा न पाये निशा आ न पाए।जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतनाअंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।सृजन है अधूरा अगर वि·श्वभर मेंकहीं भी किसी द्वार पर है उदासीमनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगीकि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,चलेगा सदा नाश का खेल यूं ही,भले ही दिवाली यहां रोज आए।जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतनाअंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग मेंकहीं मिट सका है धरा का अंधेरा,उतर क्यों न आयें नखत सब गगन केनहीं कर सकेंगे ह्मदय में उजेरा,कटेगी तभी यह अंधेरी घिरी जब,स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए।जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतनाअंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।(नीरज रचनावली, खण्ड 1 से साभार)14
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