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द डा. रवीन्द्र अग्रवालगांवों के बाजार ने इस बार रंगीन टी.वी. उद्योग को मंदी से उबार दिया। इस खबर से उद्योग जगत से लेकर वित्त मंत्रालय तक सबकी जुबान पर गांव हैं। अच्छे मौसम और किसानों के परिश्रम से कृषि उत्पादन की विकास दर 0.6 प्रतिशत से बढ़कर 5.7 प्रतिशत रही, जबकि पूरी अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है। शहरी और महानगरीय बाजार में एक प्रकार की स्थिरता आ जाने के कारण उद्योगों को 70 करोड़ ग्राहकों वाला गांव का बाजार दिखाई दे रहा है। वित्त मंत्री को भी गांव का बाजार दिखाई दे रहा है, परन्तु कारपोरेटी चश्मे से। बजट पूर्व बैठकों में कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाने की जरूरत बताई गयी। कृषि क्षेत्र में निवेश कहां से आएगा, इसका कोई संकेत नहीं है। निवेश की दृष्टि से पिछले बीस वर्षों का अनुभव निराशापूर्ण है। सिंचाई, बिजली, ग्रामीण सड़क, संचार, विपणन आदि क्षेत्रों में 1979-80 में पूंजी निर्माण कुल घरेलू पूंजी निर्माण का 19.1 प्रतिशत था, जो 1993-94 में घटकर 6.8 प्रतिशत तथा 1998-99 में 5.5 प्रतिशत रह गया। कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्र में निवेश निरन्तर कम होते जाने का मुख्य कारण वित्तमंत्री पर बजटीय दबाव का होना है। लगता है वित्त मंत्री अभी भी इस दबाव से मुक्त नहीं हुए हैं।कृषि क्षेत्र में सरकारी निवेश कम करते समय सरकार को यह अपेक्षा थी कि निजी क्षेत्र ग्रामीण संचार, बिजली, सिंचाई, सड़क और भंडारण जैसे मूलभूत ढांचे के निर्माण में पैसा लगाएगा। परन्तु सरकारी अपेक्षा की बात क्या करें संचार जैसे क्षेत्र में वायदा करने के बावजूद निजी क्षेत्र अपने वचन से मुकर गया और उसने अपना सारा ध्यान शहरी और खासतौर पर महानगरीय संचार पर केन्द्रित किया। ऐसी स्थिति में कृषि क्षेत्र में निवेश कहां से होगा? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। अगर भविष्य में भी निजी क्षेत्र के भरोसे रहा गया तो यह छलावा ही सिद्ध होगा। कारण यह कि निजी क्षेत्र वहीं निवेश करता है जहां त्वरित लाभ की संभावना होती है। यही कारण है कि उसकी रुचि गांव में निवेश के प्रति नहीं, उसके बाजार में है।गांव के बाजार में अस्थिरता है। इस बात का अहसास भी उद्योग जगत को है। किसान की जरूरत ट्रैक्टर को ही लें तो इसकी बिक्री में आन्ध्र प्रदेश में, अप्रैल से दिसम्बर, 2001 की अवधि में गत वर्ष के मुकाबले 35 प्रतिशत, कर्नाटक में 22 प्रतिशत, महाराष्ट्र व तमिलनाडु में 40 प्रतिशत तथा बिहार और उत्तर प्रदेश में 30 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। इसका कारण यह बताया जाता है कि किसान को उसकी उपज का लाभकारी मूल्य नहीं मिला। धान का ही उदाहरण लें। धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 510 से 530 रुपए प्रति Ïक्वटल निर्धारित किया गया परन्तु किसान की फसल कहीं कम मूल्य पर बिकी। बिहार में तो उसे 410रुपए प्रति Ïक्वटल पर अपना धान बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा। दक्षिण भारत में भी नारियल उत्पादक किसान घाटे में रहा।सन्देश स्पष्ट है कि किसान अपनी मेहनत से कितनी भी अच्छी फसल पैदा कर ले परन्तु जब तक उसे उसकी फसल का लाभकारी मूल्य नहीं मिलेगा तब तक उसके पास इतना पैसा नहीं होगा कि वह बाजार से खरीददारी कर सके। इस बात को पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने अनुभव किया था। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने जब गन्ने का समर्थन मूल्य बढ़ाया तो उनके इस फैसले की आलोचना हुई। उन्होंने तब स्पष्ट शब्दों में कहा था कि किसान के पास जब पैसा आता है तो उसे वह बाजार में खर्च कर देता है। बात सीधी-सी है कि किसान को लाभकारी मूल्य मिलने से उद्योगों का पहिया चलता है। आज की औद्योगिक मंदी के पीछे किसान की उपेक्षा भी एक बड़ा कारण है। अगर देश की अर्थव्यवस्था को गति देनी है और 70 करोड़ के ग्रामीण बाजार में जान फूंकनी है तो गांव और किसान को वरीयता देनी होगी। द14
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