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बादल गए बरस कर योजन पारझांक रहा नीले नभ का विस्तारपर रुक-रुक कर गीला तरुवरजल बरसाता हैधरती के उर से तो गीली सांस छूटती हैमौसम में ना जाने कैसी बास फूटती हैसतरंगी सुधियों का इन्द्रधनुष लहराया योंसूरज के हाथों अ·श्वों की रास छूटती हैगीला-सा है किन्तु अभी आकाशशंकित हैं सांसें गुमसुम अहसासनटखट मौसम धूप-छांह काछल-छल जाता हैचित्र नियति के अभी कहां सारे साक्षात हुएजल बरसा, ओलों के कहां अभी आघात हुएअभी समय के शेष बहुत उपदेश समझने कोविरत चलन से कब अपने विधना के हाथ हुएभरा जुगनुओं से सारा परिवेशगूंज रहे हैं दादुर के उपदेशमंत्र सिद्धि का झींगुर के सुर-में घुल जाता है– डा. पंकज परिमल18
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