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संविधान को ताक पर रखने में माहिरतमिलनाडु की पूर्व राज्यपाल न्यायमूर्ति फातिमा बीवी और केरल के वर्तमान राज्यपाल न्यायमूर्ति सुखदेव सिंह कंग के बीच क्या समानता है? दोनों ही न्यायमूर्ति थे और दोनों ही राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य थे। ये बातें कोई मायने नहीं रखतीं। यहां तक कि हम इस तथ्य को भी बखूबी नजरअंदाज कर सकते हैं कि इन संवैधानिक पदों के लिए संयुक्त मोर्चा सरकार ने उन्हें चुना था।तब उनमें ऐसी विशेष बात क्या है। विशेष बात केवल यही है कि उन्हें ये पद माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत के कारण प्राप्त हुए थे।कंग पंजाबी हैं और सुरजीत के रिश्तेदार हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में कंग और फातिमा बीवी की पहचान बढ़ी है। कहा तो यह भी जाता है कि कंग ने ही तमिलनाडु के राज्यपाल पद के लिए सुरजीत को फातिमा बीवी का नाम सुझाया था। केन्द्र में वाजपेयी सरकार के आने के बाद किसी भी राज्यपाल से इस्तीफा नहीं मांगा गया था। वास्तव में तो केन्द्र सरकार ने कांग्रेस के बनाए कई राज्यपालों को उनके पदों पर बने रहने दिया। वाजपेयी ने तो मंत्रियों को सलाह दी थी कि संवैधानिक पद पर बैठे राज्यपालों की आलोचना न करें।जब भाजपा की तमिलनाडु इकाई ने आरोपी जयललिता को मुख्यमंत्री बनाने के बाद फातिमा बीवी को हटाने की मांग की थी तो प्रधानमंत्री ने उसे नकार दिया था। लेकिन जब वे एक रबर की मुहर की तरह जयललिता की हर हरकत को अनदेखा करती रहीं तो उन्हें हटाना ही पड़ा।एक ओर फातिमा बीवी जयललिता की धुनों पर नाच रही थीं, तो दूसरी ओर कंग केरल में सत्तारूढ़ माकपा के पैरोकार बने रहे। इन दोनों विधायी व्यक्तित्वों ने अपने आचरण में संवैधानिक मूल्यों की घोर अनदेखी की।कंग ने माकपा के इशारों पर चलते हुए महात्मा गांधी वि·श्वविद्यालय के कुलपति डा. वी.एन. राजशेखरन पिल्लै को सताया जिससे पिल्लै वि·श्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष पद से वंचित हो गए। राज्य उच्च न्यायालय ने भी इसकी तीखी आलोचना की थी। राज्यपाल कंग ने विहिप के प्रतिनिधिमण्डल से ज्ञापन स्वीकारने से मना कर दिया था। आश्चर्य की बात है कि केरल और तमिलनाडु दोनों प्रदेशों के राज्यपालों ने अपने कार्यकाल में मानवाधिकारों का खूब उल्लंघन किया।विडम्बना की बात तो यह है कि फातिमा बीवी ने राज्य मुख्य सचिव की रपट को केन्द्र के पास उनकी अपनी रपट के रूप में भेजा। न्यायमूर्ति कंग ने जानबूझकर राज्य विधानसभा में भाषण के दौरान अपने वक्तव्य का एक हिस्सा नहीं बोला और ए.के. एंटोनी के नेतृत्व वाले राज्य मंत्रिमण्डल की सिफारिशों को अनदेखा कर दिया। उस हिस्से में माकपा की नयनार सरकार की आलोचना की गई थी।कांग्रेस के वरिष्ठ नेता के. करुणाकरन कहते हैं कि राज्यपाल का अभिभाषण एक संवैधानिक आवश्यकता है। सरकार की नई नीतियों की घोषणा के साथ ही पूर्व सरकार की नीतियों की आलोचना होनी चाहिए।राज्यपाल को केन्द्र का प्रतिनिधि माना जाता है। केरल के राज्यपाल ने 1999 के अपने वक्तव्य में केन्द्र की ही आलोचना की थी। अन्य बातों के अलावा पोकरण परीक्षण और केन्द्र की आर्थिक नीतियों की भी उन्होंने भत्र्सना की। दूसरी ओर तमिलनाडु के राज्यपाल ने केन्द्र के आदेशों को क्रियान्वित नहीं किया था। तमिलनाडु में सभी विपक्षी दलों ने द्रमुक के साथ मिलकर राज्यपाल को हटाने की मांग की थी। हालांकि केरल की सत्तारूढ़ संलोमो सरकार राज्यपाल को हटाने की मांग से कतरा रही है, क्योंकि इस समय उन्हें भाजपा का कट्टर विरोधी राज्यपाल मिला हुआ है। सुखदेव सिंह कंग भी पद से कैसे हटेंगे, यह तो समय ही तय करेगा।26
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