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पचास वर्ष पहलेथ् वर्ष 5, अंक 16 थ् कार्तिक कृष्ण 2, सं. 2008 वि., 15 नवम्बर, 1951 थ् मूल्य 3 आनेथ् सम्पादक : ज्ञानेन्द्रथ् प्रकाशक – श्री राधेश्याम कपूर, राष्ट्रधर्म कार्यालय, सदर बाजार, लखनऊ——————————————————————————–नेहरू जी के सर्वेसर्वा बनने का परिणामभानुमती का कांग्रेसी कुनबा टूटने लगा(हमारे राजनीतिक समीक्षक द्वारा)टण्डन जी को अध्यक्ष-पद से हटाकर जिस दिन के लिए श्री जवाहरलाल नेहरू स्वयं कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे, वह दिन-चुनाव के लिए कांग्रेस के टिकट बांटने का दिन-आखिर आ ही गया। अपने घनिष्टतम सहयोगियों रफी अहमद किदवई और मौलाना आजाद के साथ अब नेहरूजी इस काम को बखूबी कर रहे हैं, और कांग्रेस का काम तमाम हुआ जा रहा है!किदवई और आजाद साहब का कांग्रेस के टिकट देने में जो हाथ है, उसके कारण पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री डा. गोपीचन्द भार्गव और उनके अनेक सहयोगी कांग्रेस के विरुद्ध विद्रोह करके स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने की घोषणा कर चुके हैं। इतना ही नहीं, चुनाव के पश्चात् पंजाब में उन्होंने गैर-कांग्रेसी मंत्रिमण्डल बनाने का संकल्प भी कर लिया है। उनके इस विद्रोह और पंजाब में भारतीय जनसंघ की शक्ति के कारण वहां अब कांग्रेस का हारना निश्चित है।यह है नेहरू जी के कांग्रेस-नेतृत्व का परिणाम; टंडन जी ने जिस कांग्रेस से फिरकापरस्ती को निकाल कर शुद्ध करने की कोशिश की थी, वही कांग्रेस का कुनबा नेहरू जी की फिरकापरस्ती के परिणामस्वरूप टूट रहा है।गद्दी छोड़ो!चुनाव आरम्भ हो चुके हैं। देश की जनता अपने भावी शासकों का निर्वाचन कर रही है। लेकिन भावी शासकों के निर्वाचन का यह कार्य वर्तमान शासकों के राजनीतिक दबाव की परिस्थिति में किया जा रहा है-ऐसे शासकों के दबाव में, जिन्होंने ऐन चुनाव के पहले देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों में काट-छांट करने के लिए संविधान की पवित्रता को नष्ट किया; जिन्होंने अपनी दमन-नीति का दुनिया में शोर न हो, इस उद्देश्य से, ठीक चुनाव से पहले काले प्रेस-ऐक्ट बनाकर समाचार-पत्रों का गाल घोंटने की कार्यवाही की। देश के आम-चुनाव ऐसे एक-दलीय शासन की छत्र-छाया में आरम्भ हुए हैं जिसने आतंक और प्रलोभन द्वारा जनता के अधिक-से-अधिक वोट अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया है। दिल्ली के जिलाबोर्ड और नगर-पालिका के चुनाव इस बात के साक्षी हैं।केन्द्रीय और प्रांतीय मंत्रिमण्डलों के मंत्रीगण जिस प्रकार के व्यक्ति हैं, उसे देखते हुए यह निश्चित प्रतीत होता है कि वे चुनाव के समय अपने पद और प्रभाव का दुरुपयोग करेंगे। राजकीय पदाधिकारी भी चुनाव में भाग लेने वाले शासनारूढ़ दल के उम्मीदवारों के प्रति पक्षपात कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त जनता भी शासन के प्रभाव से आतंकित होकर अथवा, प्रलोभन में पड़कर, अपनी वास्तविक पसन्द व्यक्त करने में संकोच कर सकती है।सभी दृष्टियों से यह आवश्यक प्रतीत होता है कि केन्द्रीय और प्रान्तीय कांग्रेस सरकारें त्यागपत्र देकर शासन-सत्ता, राष्ट्रपति और राज्यपालों के आधीन कर दें। तभी निष्पक्ष चुनाव और वास्तविक जनतंत्र की आशा की जा सकती है, अन्यथा नहीं।(सम्पादकीय)राजधानी के रंगनिर्वाचन की सन्निकटता के साथ-साथ कांग्रेसजनों में एक बड़ी बेचैनी अपनी सुरक्षा के सम्बंध में फैल रही है, विशेषकर पूवी जिलों में, जहां कम्युनिस्ट, क्रान्तिकारी समाजवादी तथा इसी प्रकार के चरमपंथी वाम-पक्ष प्रबल हो रहे हैं। बताया जाता है कि इन आतंकवादियों ने पिछले डेढ़ वर्ष में अनेक कांग्रेसजनों को मृत्यु के घाट उतार दिया है। अब यह बीमारी बुन्देलखण्ड की ओर फैल रही है, जहां गत सप्ताह हमीरपुर के एक कांग्रेसजन पर गोली चलाई गई, पर सौभाग्यवश वह बच गया।11
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