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— नरेन्द्र कोहली स्वर्ण मृग -3
लक्ष्मण-रेखा
(गतांक से आगे)
देखने का एक कोण और भी हो सकता है। हमारे पौराणिक कवि वि·श्वास करते हैं कि विधि का विधान अटल है, इसीलिए भवितव्य के प्रभाव में बड़े से बड़ा चरित्र भी प्रकृति की लीला का खिलौना हो जाता है। बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी मूर्खता कर गुजरता है। तो इसे ईश्वर की लीला भी कहा जा सकता है। कारण कुछ भी रहा हो किन्तु कथानक को आगे बढ़ाने में इस घटना का असाधारण योगदान है।
गोस्वामी तुलसीदास ने इस प्रसंग की महत्ता को तो कम नहीं आंका; किन्तु वे सीता के मुख से ऐसी कोई बात कहलवाना नहीं चाहते। उनका दृष्टिकोण स्पष्ट है। यदि उस समय सीता ने ऐसा कुछ कहा भी है तो उसके वर्णन का क्या लाभ? माता से कोई भूल हो जाए तो पुत्र के लिए उसे रेखांकित करना तो उचित नहीं है। अत: वे कहते हैं:
मरम बचन जब सीता बोला।
हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।।
तुलसीदास ने अनेक स्थानों पर यही दृष्टिकोण अपनाया है। वन जाते हुए जब राम ने सुमंत्र को अयोध्या लौटाया है, उस संदर्भ में सुमंत्र ने दशरथ को बताया:
लखन काहे कछु बचन कठोरा,
बरजि राम पुनि मोहि निहोरा।।
बार-बार निज शपथ देवाई।
कहबि न तात लखन लरिकाई।।
तुलसीदास ने भी घटना को छिपाया नहीं है, किन्तु उसे स्पष्ट कर कहा भी नहीं है। बाध्य होकर लक्ष्मण राम के पीछे जाते हैं। तुलसी ने इतना ही कहा है:
बन दिसि देव सौंपि सब काहू।
चले जहां रावन ससि राहू।।
वाल्मीकि कहते हैं कि सीता अपने असहायता और दीनता में उदर पर आघात करने लगीं, छाती पीटने लगीं। विशाल लोचना सीता को आर्त होकर रोती देख सुमित्राकुमार लक्ष्मण ने मन ही मन उन्हें सांत्वना दी, परन्तु सीता उस समय अपने देवर से कुछ नहीं बोलीं। तब मन को वश में रखने वाले लक्ष्मण ने दोनों हाथ जोड़, कुछ झुककर मैथिली को प्रणाम किया और बारंबार उनकी ओर देखते हुए, वे राम के पास चल दिए।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहां वह प्रसिद्ध लक्ष्मण रेखा कहीं नहीं है, जो लोकमानस में बहुत गहरे खुदी हुई है। मेरा अनुभव है कि जब सामान्य जन तक यह सूचना पहुंचती है कि वाल्मीकि और तुलसी जैसे महान कवियों ने उस लक्ष्मण-रेखा की चर्चा भी नहीं की है, तो सुनने वालों को एक धक्का-सा लगता है। पर सत्य यही है कि यह लक्ष्मण-रेखा रामायण में नहीं है। सीताहरण प्रसंग में रामचरितमानस में भी इसका उल्लेख नहीं है; किन्तु लंका कांड में मंदोदरी रावण से कहती है:
रामानुज लघुरेख खचाई।
सोउ नहिं नांघेहु असि मनुसाई।।
यदि पाठक रामकथा से भलीभांति परिचित न हो और वह लक्ष्मण-रेखा से अवगत न हो तो उसे समझने में कठिनाई होगी कि यह कौन सी लघु रेखा है, जो राम के अनुज लक्ष्मण ने खींची और रावण उसे लांघ नहीं सका। पाठक असमंजस में पड़ जाता है कि वह लक्ष्मण-रेखा को माने या न माने? तुलसी की मान्यता क्या है? वे लक्ष्मण-रेखा को स्वीकार करते हैं या नहीं करते? कोई इसे तुलसीदास की भूल मान सकता है कि उन्हें यह स्मरण भी नहीं रहा कि सीताहरण प्रसंग में उन्होंने इस रेखा की चर्चा नहीं की है। कोई यह कह सकता है कि तुलसी तो लक्ष्मण-रेखा को नहीं मानते थे, बाद में किसी ने प्रक्षेप कर दिया है। किन्तु मानस में प्रक्षेप की चर्चा अभी तक नहीं हुई है।
मुझे लगता है कि लक्ष्मण-रेखा, तुलसी के अपने कथानक का अंग नहीं है। किन्तु उनके समय तक प्रचलित रामकथाओं में से किसी न किसी में इसकी चर्चा आ चुकी थी। और लोकमानस में इसको स्वीकृति मिल चुकी थी। तुलसीदास उससे परिचित भी रहे होंगे। इसीलिए अनायास ही मंदोदरी के माध्यम से उसकी चर्चा भी आ गयी है।
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