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–डा. सुभाष कश्यप, प्रख्यात संविधानविद्
संविधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेंगे। दूसरी बात यह है कि शेष मंत्रियों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की अनुशंसा पर राज्यपाल करेंगे। तीसरी बात यह कही गई है कि यह मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी। इससे स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति का पूर्ण अधिकार संविधान ने राज्यपाल को दिया है। चूंकि संविधान की एक अन्य धारा में यह भी कहा गया है कि मंत्रिपरिषद् विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी इसलिए राज्यपाल से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने बुद्धि-विवेक के अनुसार निर्णय करते समय इस बात का पूरा ध्यान रखे कि वह ऐसे व्यक्ति को चुन रहा है जिसे उनके मतानुसार एवं आंकड़ों के अनुसार विधानसभा का समर्थन प्राप्त होगा। जहां तक बिहार का मामला है उसमें राज्यपाल ने जो सूचना उनके पास थी उसके आधार पर विवेक के अनुसार जो भी निर्णय लिया वह उनका संवैधानिक अधिकार है। इस बात पर मतभिन्नता हो सकती है कि निर्णय किस समय और क्या लेना चाहिए? जहां तक संविधान का प्रश्न है तो इसमें कोई दो राय नहीं कि राज्यपाल को जो कुछ भी करने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त था, उन्होंने उसका प्रयोग किया। संविधान में इस बारे में कुछ नहीं बताया गया है कि राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति के पहले किस प्रकार और किन कारणों से स्वयं को संतुष्ट करते हैं। मुख्यमंत्री की नियुक्ति से पूर्व समर्थन प्राप्ति के पत्र अथवा व्यक्तिगत रूप से उपस्थिति की मांग करने का संविधान में कहीं कोई वर्णन नहीं है। यह सब राज्यपाल के विवेक पर छोड़ दिया गया है। इस तरह के कई दृष्टांत हैं, जिसमें राज्यपाल ने मुख्यमंत्री की नियुक्ति से पूर्व उनसे समर्थन करने वालों की सूची मांगी अथवा सभी समर्थन करने वालों को प्रत्यक्ष उपस्थित रहने के लिए कहा। यह सब उन्होंने इसलिए किया कि उन्हें निर्णय लेने में सुविधा हो। लेकिन इस प्रक्रिया का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है। (पाञ्चजन्य संवाददाता से बातचीत पर आधारित)
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