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भारत और चीन एक-दूसरे के हमदर्दभारत और चीन ज्ञान और संस्कृति के मामले में ईसा पूर्व से एक-दूसरे के साथ जुड़े रहे हैं। इन वर्षों में वे एक दूसरे के सहयोगी रहे न कि प्रतिद्वन्द्वी। दोनों देशों की संस्कृति और आध्यात्मिक प्रवाह की समान पृष्ठभूमि है। मौर्यकाल में सम्राट अशोक ने शांति की स्थापना और बौद्ध मत के प्रचार के लिए निकटवर्ती सभी देशों में प्रचारकों को भेजा था। ईसा युग की प्रथम दस शताब्दियों में अनेक भारतीय शिक्षक चीन गए, जिन्होंने वहां बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद भी किया। कालान्तर में चीन ने अनेक संघर्ष भी किए। चीन ने जिस वि·श्वास और बहादुरी के साथ आत्मसम्मान और स्वतंत्रता के लिए जनरल इसीमो के नेतृत्व में संघर्ष किया, वह सराहनीय है। भारतीय जनमानस और नेताओं का दृढ़ वि·श्वास है कि यह देश कभी किसी के अधीन नहीं रह सकता।1942 में जब भारत छोड़ो आन्दोलन चल रहा था तो कांग्रेस के नेता चीन को यह नहीं स्पष्ट कर पा रहे थे कि उनके स्वतंत्रता आन्दोलन से चीन के हितों को किसी प्रकार की हानि नहीं होगी। गांधीजी ने जनरल इसीमो को एक पत्र लिखा कि अंग्रेजों से भारत छोड़ने की अपील का अर्थ यह नहीं है कि भारत अपनी सीमाओं की सुरक्षा की अनदेखी कर रहा है या चीन को किसी प्रकार की हानि नहीं होगी।भारत की स्वयं अपनी राजनीतिक समस्याएं हैं, जिनसे वह जूझ रहा है। चीन के साथ विदेशी शक्तियों के बर्ताव को वह समझ सकता है। राजनीतिक पराजय विजयी भावना की हार नहीं है, लेकिन विश्वास का खोना, जिसके कारण क्रूरता और असन्तुलन आता है, हार होती है। चीन ने किसी भी देश से ज्यादा संकट झेले हैं, फिर भी हमेशा वि·श्वास के साथ खड़ा होता रहा है। जनरल इसीमो ने भी अंग्रेजों से भारत को वास्तविक राजनीतिक शक्ति प्रदान करने की अपील की थी, क्योंकि उनका मानना था कि भारत के लोगों की आकांक्षाओं की उपेक्षा नहीं की जा सकती। चीन की तीव्र इच्छा है कि भारत की स्वतंत्रता पूर्ण हो, इसके लिए वह चाहता है कि भारत की संघर्ष क्षमता व्यवहारिक रूप से बढ़े।20
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