|
-महात्मा गांधी (इंडियन ओपिनियन, 20-8-1903)
फिजी के हिन्दू
फिजी से आ रहे समाचारों में एक समाचार यह भी है कि वहां से रोज बड़ी संख्या में भारतीय मूल के नागरिकों का पलायन हो रहा है। पलायन की गति हाल ही में फिजी में हुए सत्ताहरण के बाद तेज हुई है। इससे पूर्व भी हर महीने लगभग 500 भारतीय मूल के नागरिक फिजी छोड़कर जा रहे थे। तो क्या उन्हें लगने लगा है कि अब फिजी में उनके लिए कुछ नहीं रह गया है? क्या उन्हें लगने लगा है कि फिजी में अब उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है? ठीक एक साल पहले ही तो वहां के लोगों ने भारतीय मूल के महेन्द्र चौधरी को अपना प्रधानमंत्री चुना था। फिजी के इतिहास में पहली बार राजनीतिक सत्ता की कमान भारतीय मूल के किसी व्यक्ति के हाथ में आई थी। ऐसा तो कई वर्ष पहले हो जाना चाहिए था। आखिर फिजी की 8 लाख की कुल जनसंख्या में 45 प्रतिशत भारतीय मूल के नागरिक हैं। कहते हैं एक और एक मिलकर ग्यारह भी होते हैं और इतनी बड़ी संख्या होते हुए भी आखिर भारतीय मूल के फिजी के हिन्दू नागरिक दोयम दर्जे की हैसियत ओढ़ने को मजबूर क्यों हुए? और जब उनके प्रतिनिधि के हाथ में सत्ता की सर्वोच्च कमान आयी तो वह मजबूती से उन हाथों में टिकी क्यों नहीं रही? हिंसक तरीके से प्रहार कर उन हाथों से सत्ता छीन ली गई, उन्हें बंदी बना लिया गया और साढ़े तीन लाख हिन्दू खून का घूंट पीकर रह गए, पलायन करने लगे। क्या वहां के हतबल हिन्दू मानस के सामने किसी शिवाजी, किसी लाल, बाल, पाल, वीर सावरकर या डाक्टर हेडगेवार का चित्र नहीं आया? अनेक प्रश्न उठते हैं और झकझोर जाते हैं। अपने पसीने और हाथों से आधुनिक फिजी की नींव चिनने वाले भारतीय मूल के फिजीवासी इतने वर्षों तक अपमान क्यों सहते रहे? कहते हैं जो मेहनत करना जानता है उसकी मुट्ठी में दुनिया होती है, किन्तु मेहनती भारतवंवंशियों के हाथों से दुनिया भुरभुरी रेत की तरह खिसकती जा रही है, क्या उन्हें कभी इसका अहसास नहीं हुआ? अवश्य हुआ होगा, किन्तु भारतीय मानस संतोषी भी तो है। उसकी सहनशक्ति का पैमाना बहुत बड़ा है। किन्तु पूरा भर जाने पर इसे छलक जाना चाहिए था, बिफर जाना चाहिए था और वही नहीं हुआ। इसका मलाल मन में लिए वे फिजी छोड़कर जा रहे हैं। जो सम्पन्न हैं वे अपने में यह अपराधबोध लिए पलायन कर रहे हैं कि हमारे जो भाई गरीब हैं, उन्हें फिजी में ही रहना होगा। पलायन और नैराश्य भारतीय संस्कृति और दर्शन का आधार कभी नहीं रहे। फिर इतनी जल्दी उनकी आस्था अपने ऊपर से कैसे डगमगा गई?
शायद इसके पीछे एक कारण रहा हो, हाल के घटनाक्रम में फिजी पर वि·श्वभर की चुप्पी। सरेआम बंदूक की नोक पर लोकतांत्रिक मूल्यों का अपहरण हुआ और लोकतंत्र की दुहाई देने वाले देश चुप्पी साधे रहे। मानवाधिकारों की बात करने वाले वि·श्व के मानवाधिकारवादियों की ओर से किसी तरह का अन्तरराष्ट्रीय दबाव नहीं बनाया गया। कहीं यह वि·श्व में बढ़ते हिन्दुत्व के प्रभाव को कुचलने की साजिश तो नहीं?
यह सच है कि अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को फिजी में हुई लोकतंत्र की निर्मम हत्या के विरोध में बोलना चाहिए था। यह भी तो एक प्रकार का आतंकवाद ही है, जो शांतिप्रिय तौर-तरीकों और मूल्यों का वध करने पर उतारू है। यदि ऐसा ही रहा तो क्या धीरे-धीरे वि·श्व में लोकतंत्र की जगह आतंकवाद नहीं ले लेगा? क्या लोकतंत्र किसी कोने में सिसकियां लेता नजर आएगा? नहीं इसकी सम्भावनाएं अभी दूर-दूर तक नहीं हैं, क्योंकि हिन्दू संस्कृति के ध्वजवाहक भारतीय मूल के करोड़ों लोग दुनिया के विभिन्न देशों में हैं। और भारतीय दर्शन नैराश्य की बजाय प्रकाश पर केन्द्रित है, पलायन की बजाय संघर्ष पर केन्द्रित है। यदि भारतीय अपनी मूल संस्कृति का मनन करें और हृदय में उसकी ज्योति जलाए रखें तो वह दिन दूर नहीं जब शक्ति उनके हाथ में होगी। शक्ति पुंज की भांति हिन्दू मानस वि·श्व में राज करेगा।
4
टिप्पणियाँ