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बंधे हुए थे जो सदियों से अहसासों के तारों में,वो ही रिश्ते बदले गए हैं अब नंगीं तलवारों में।लूटमार, चोरी, अय्याशी, खूनखराबा, आगजनी,खबरें यही हुआ करती हैं सुबह-शाम अखबारों में।अपनी मोटी चमड़ी पर अब कोई फर्क नहीं पड़ता,हमने अहसासों की गुड़िया चुन डाली दीवारों में।बीच भंवर में आकर हमको अब ऐसा महसूस हुआ,पार लगेगी नैया कैसे छेद हुए पतवारों में।खेल खत्म होने पर भैया जान लिया तो क्या जाना,बन्दर रोटी लूट ले गया आपस की तकरारों में।– डा. र्कीति काले29
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