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अपनी बात

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May 11, 2000, 12:00 am IST
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दिंनाक: 11 May 2000 00:00:00

प्रिय बन्धुओ,

सप्रेम जय श्रीराम।

थ्आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी के साथ पल-दो पल का साथ भी तीर्थ यात्रा का आनंद देता है। पर पिछली बार तो हमें कई घंटे उनके साथ यात्रा में बिताने का आनंद मिला। पता ही नहीं चलता कि राजस्थान के धूल भरे कस्बों और गांवों से गुजरते हुए हमारा काफिला कब पड़ाव तक पहुंच जाता था। बस जी में आता था कि यह यात्रा खत्म न हो। जीवन भर के संचित ज्ञान का नवनीत यूं ही अनायास झोली भर-भरकर जो मिलता जा रहा था। हमें डेगाना और डीडवाना जाना था। इन दोनों ही जगहों की बड़ी महिमा है। डेगाना के पास छोटीखाटू में जुगल किशोर जैथलिया जी ने पुस्तकालय खोला है और वे हर वर्ष एक साहित्यिक पुरस्कार भी देते हैं-पं.दीनदयाल उपाध्याय की स्मृति में। जैथलिया जी और उनके साथी देव दुर्लभ हैं। मैं तो उन्हें ग्रंथ नायक मानता हूं। कलकत्ता में श्री बड़ा बाजार कुमारसभा पुस्तकालय के माध्यम से एक ग्रंथ तीर्थ ही मानो उन्होंने पुनरुज्जीवित कर दिया और छोटीखाटू जैसे एक सामान्य से कस्बे में इतना अच्छा पुस्तकालय खोला है कि जो पैसे की अंधी दौड़ में भगे चले जा रहे शहरों में कदाचित न मिले। डीडवाना पं. बच्छराज जी व्यास की जन्मभूमि है। उनकी स्मृति में एक सुंदर विद्यालय है। अपने हरिशंकर भाभड़ा जी वहां मिले। विद्यालय के प्रांगण में उनके अराजनीतिक व्यक्तित्व से परिचय मिला। उनके भीतर आज भी वही आग धधक रही है, जिसका परिचय उनकी युवावस्था में भी उनके परिचितों को मिला होगा। यहां बच्चों को संबोधित करते हुए शास्त्री जी ने कहा कि गुरु दो प्रकार के होते हैं-एक शिलाधर्मी और एक आकाशधर्मी। शिलाधर्मी गुरु यानी जैसे मैदान में घास पर कोई शिला रख दी हो। कुछ दिन बाद शिला हटाएंगे तो पाएंगे कि शिला के नीचे की घास पीली पड़ गई है और वहां कुछ अंकुरित होना ही बंद हो गया है। ऐसे ही शिलाधर्मी गुरु होते हैं-अपनी बात जबरदस्ती शिष्यों पर लादेंगे, मनवाएंगे पर विद्यार्थी की अपनी इच्छा क्या है, उसके भीतर के स्वाभाविक गुण क्या हैं, उनका कभी विकास नहीं होगा। आकाशधर्मी गुरु आकाश के समान होता है। आकाश घास को भी अपनी प्रकृति और चरित्र के अनुरूप उगने का जितना अवसर देता है, उतना ही अवसर चीड़, देवदार और वट के वृक्षों को भी देता है। अपनी प्रकृति के अनुसार सबको विकास का भरपूर अवसर देना यह आकाशधर्मी गुरु का गुण होता है। ऐसा ही गुरु चाहिए।

थ्जहां श्रेष्ठ जनों का निवास होता है, वह क्षेत्र तीर्थ बन जाता है ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। जिस मकान में डा.हेडगेवार और वीर सावरकर जैसे महापुरुष आए हों, वह तो सदैव उनकी स्मृति से सुवासित ही रहेगा। ऐसा ही एक तीर्थ रूपी मकान है गया में। अपने बबुआ जी का मकान। 1940 से अब तक वे संघचालक के रूप में सक्रिय हैं। अब तो वे उत्तर मध्य पूर्व बिहार के क्षेत्रीय संघचालक हैं। उनके गया स्थित मकान के इस कक्ष में जहां डा. हेडगेवार और वीर सावरकर रुके थे, उन्होंने एक शिलापट लगवा दिया है। गत 23 सितम्बर को सरसंघचालक श्री कुप्.सी.सुदर्शन गया के प्रवास पर पहुंचे तो उन्होंने इस कक्ष के दर्शन किए और उन महापुरुषों की स्मृति को प्रणाम किया। यह चित्र उसी अवसर का है। चित्र में दायीं ओर श्री कुप्.सी.सुदर्शन तथा बबुआ जी शिलापट के पास श्रद्धापूर्वक खड़े हैं।

शेष अगली बार।

आपका अपना,

सम्पादक

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