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धरती का प्रश्न मैं कांपती हूंजब आदमी चीखता है।मैं डोलती हूंजब आदमी चलता है।मैं हो जाती हूं बौनीजब भार ढोती हूं।मैं हैरान हूं।मेरी दुर्दशा परहंसता है आदमी।दैत्याकार होकरकाटने लगता है जंगलतोड़ने लगता है पहाड़-तोड़ने लगता है खनिजरोकने लगता है नदियों का पानीघोलने लगता है हवाओं में विष।मैं कर्तव्यविमुखी सीसोचने लगती हूंकितना नादान, असभ्य हैमनुज।जो अपनी विद्वता काढिंढ़ोरा पीटता घूमता है?– सुरेश आनंद8
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