केरल का उदाहरण
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केरल का उदाहरण

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Feb 4, 2000, 12:00 am IST
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दिंनाक: 04 Feb 2000 00:00:00

एकात्मक शासन प्रणाली ही उपयुक्त समाधान

द देवेन्द्र

केरल की सम्पूर्ण राजनीति वहां की चार प्रमुख जातियों-ईसाई, मुस्लिम, नायर हिन्दू एवं एझवा हिन्दू – की महत्वाकांक्षाओं, उनके पारस्परिक संघर्ष एवं गठबन्धन के चारों और घूमती रही है। विभिन्न राजनीतिक दलों ने केरल में अपने कार्य और प्रभाव का आधार राष्ट्रीय सिद्धांतों एवं नीतियों को न बनाकर इन जातियों को बनाया है। प्रत्येक राजनीतिक दल किसी एक जाति का प्रतिनिधित्व करता है। उदाहरणस्वरूप, कांग्रेस ईसाइयों का प्रतिनिधित्व करती है तो मुस्लिम लीग मुसलमानों का, प्रजा समाजवादी दल नायरों के आधार पर खड़ा है तो कम्युनिस्ट दल एझवाओं के। इन जातियों के पारस्परिक संघर्षों एवं गठबन्धनों पर ही इन दलों की विजय-पराजय उत्थान-पतन निर्भर रहता है। द्वितीय आम चुनाव में ईसाइयों की हिन्दू विरोधी नीति से क्षुब्ध होकर नायर-एझवा एक हो गए और उन्होंने ईसाइयों का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस को हटाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी को विजयी बनाकर केरल की गद्दी पर बैठा दिया। वास्तव में उनका मूल उद्देश्य कम्युनिस्टों को जिताना नहीं, ईसाइयों को हराना था। दूसरे शब्दों में यह विजय कम्युनिस्ट पार्टी या कम्युनिज्म की नहीं, हिन्दुओं की थी। एक विचित्र तथ्य और कि मामला कुछ ऐसा बैठा कि 35 प्रतिशत मत प्राप्त करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी तो 5 स्वतंत्र सदस्यों को खरीदकर अपनी सरकार बनाने में सफल हो गयी, जबकि 38 प्रतिशत मत पाने वाली कांग्रेस को विरोध पक्ष में रह जाना पड़ा।

पर कम्युनिस्टों ने सरकार बनायी तो किसलिए? क्या हिन्दुत्व की रक्षा के लिए? केरल के आर्थिक विकास के लिए? जनतंत्र की जड़ों को मजबूत करने के लिए? उनका उद्देश्य स्पष्ट था। अकस्मात प्राप्त हुई केरल की सत्ता को भारत पर भावी कम्युनिस्ट विजय का आधार बनाना, पांच वर्ष की अवधि का लाभ उठाकर प्रत्येक विधेयक एवं सुधार के द्वारा, ऊपर-ऊपर से संविधान की भाषा एवं मर्यादाओं का उल्लंघन न करते हुए, अन्दर ही अन्दर कम्युनिस्ट पार्टी की जड़ों को मजबूत करना, सम्पूर्ण शासन को कम्युनिस्ट शिकंजे में जकड़ देना, शासन तथा दल का जनजीवन पर सर्वांगीण नियन्त्रण स्थापित कर केरल की जनता को आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टि से इतना पंगु एवं असहाय बना देना कि उसमें कम्युनिस्ट शासन का विरोध करने की शक्ति ही शेष न रहे।

संविधान की दुर्बलताएं

अब इस पृष्ठभूमि का विश्लेषण करने पर और इस कसौटी पर भारत के अन्य प्रान्तों की स्थिति को कसने पर स्वाभाविक ही निम्न गम्भीर प्रश्न सामने आकर खड़े होते हैं:

क्या केरल जैसी राजनीतिक स्थिति प्रत्येक प्रान्त में नहीं है? स्थानीय भावनाओं एवं असन्तोष को उभार कर ऐसे दल सत्तारूढ़ हो सकते हैं, जो या तो अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद के ऐजेन्ट हैं, जिनकी बाह्र स्फूर्ति और निष्ठा के केन्द्र वे राष्ट्र हैं, जिनका अन्तिम उद्देश्य जनतंत्र की समाधि पर तानाशाही का महल खड़ा करना है अथवा जो संकुचित स्वार्थों की पूर्ति के लिए राष्ट्रीय एकता को खण्डित करने के लिए सचेष्ट हैं? जरा महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल की ओर दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाएगा कि वे किसी भी दिन केरल की राह पर जा सकते हैं।

यह कैसा जनतांत्रिक संविधान, जिसके अनुसार 35 प्रतिशत अल्पमत का प्रतिनिधित्व करने वाला दल 65 प्रतिशत बहुमत पर उसकी इच्छा के विपरीत शासन करे और उसे वैधानिक जनतंत्रीय शासन माना जाए? साथ ही वह पांच वर्ष की अवधि में संविधान की मर्यादाओं के भीतर रहकर उसकी ऊपरी भाषा और शब्दावली को पूर्णत: सन्तुष्ट करते हुए भी अन्दर ही अन्दर अपने जनतंत्र विरोधी उद्देश्यों की पूर्ति कर सके, धीरे-धीरे दलीय अधिनायकवाद की स्थापना में सफल हो जाएं? क्या हमारे संविधान की मूलभूत दुर्बलता का यह ज्वलंत प्रमाण नहीं है?

फिर यदि कालान्तर में उस प्रदेश की जनता क्षणिक भावावेश में अपने ही द्वारा गद्दी पर बैठाये गए उक्त दल की राष्ट्रविरोधी प्रकृति और जनतंत्र विरोधी इरादों को पहचान कर अपनी पिछली भूल का परिमार्जन करना चाहे तो उपाय क्या है? यदि वह दल जनमत का निरादर कर त्यागपत्र देना अस्वीकार कर दे और पुन: चुनाव की कसौटी पर कसा जाने को तैयार न हो तो बहुमत क्या करे?

किन्तु यदि वह सत्तारूढ़ दल प्रचार की प्रबल आंधी बहाकर केन्द्रीय हस्तक्षेप का विरोध करे, उसे अनावश्यक और एक पूर्व षड्यन्त्र का परिणाम बताये और उसके प्रचार से भयभीत होकर अपनी निष्पक्षता प्रदर्शित करने के लिए केन्द्र हस्तक्षेप न करे तो पांच वर्ष में उस प्रदेश का भाग्य क्या होगा? क्या पांच वर्ष की अवधि में वह जनजीवन को नि:सत्व एवं विवश बनाकर अगले आम चुनाव में बहुमत को प्राप्त नहीं कर लेगा? फिर उस बहुमत के आधार पर संघीय संविधान के अन्तर्गत प्राप्त प्रान्तीय स्वायत्तता के नाम पर राष्ट्र से अपना सम्बंध विच्छेद नहीं कर लेगा? किसी अन्तरराष्ट्रीय गुट से अपना सम्बंध नहीं जोड़ लेगा? भारत की भावी पराधीनता का कारण नहीं बनेगा? और यदि ऐसे कई प्रान्त देश में हो गए तो कहां रहेगा जनतंत्र? कहां बचेगी राष्ट्रीय स्वतंत्रता?

ऐसी स्थिति में यदि जनतंत्र और राष्ट्रीय स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उस प्रदेश का जागरूक चेतन वर्ग अपने उन्मूलन के पूर्व ही उग्र पग उठाने के लिए विवश हो जाए तो यह दोष किसका? क्या सत्तारूढ़ दल का जो बहुत पहले से भारत की जनता को शान्ति और अहिंसा के मार्ग से हटाकर गृह-युद्ध के पथ पर चलाने के लिए, प्रयत्न करता आया है अथवा उस संविधान का, जो राष्ट्र की प्रकृति, स्थिति और आवश्यकता के अनुकूल न होने के कारण जनता को उस पथ पर धकेलने का कारण बना? विजय किसकी? जनतंत्र की स्थापना के लिए सचेष्ट संविधान की, या जनतंत्र की समाप्ति के लिए उत्सुक तत्वों की जो भी संविधान को शास्त्र बनाकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति कर सके?

(पाञ्चजन्य 19 जून, 1959)

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