‘पाञ्चजन्य’ व्यवसाय नहीं, ध्येयवाद है, स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी पत्रकारिता के लिए यह कम गौरव की बात नहीं है कि किसी व्यक्तिगत स्वामित्व अथवा औद्योगिक घराने की छत्रछाया से बाहर रहकर भी ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक ने वर्ष 1998 में अपनी स्वर्णजयंती मनाई और इस स्वर्णजयंती वर्ष में उसका प्रथम संपादक भारत के प्रधानमंत्री पद पर आसीन था। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जब ‘धर्मयुग’, ‘दिनमान’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘रविवार’ जैसे प्रतिष्ठित और साधन सम्पन्न साप्ताहिक असमय ही कालकवलित हो गए, ऐसे में साधनविहीन ‘पाञ्चजन्य’ न केवल अपनी जीवन-यात्रा को अखंड रख सका अपितु आज सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले साप्ताहिकों के बीच प्रथम पंक्ति में खड़ा है। ‘पाञ्चजन्य’ की सफलता का एकमात्र रहस्य यही हो सकता है कि उसका जन्म मुनाफाखोर, व्यावसायिकता के बजाय समाजनिष्ठ ध्येयवादी पत्रकारिता में से हुआ है। ध्येयवादी पत्रकारिता की यात्रा कभी सरल और सुगम नहीं हो सकती, इसलिए ‘पाञ्चजन्य’ की यात्रा स्वातंत्र्योत्तर ध्येय समर्पित और आदर्शवादी पत्रकारिता के संघर्ष की यशोगाथा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद 14 जनवरी, 1948 को मकर संक्राति के पावन पर्व पर अपने आवरण पृष्ठ पर भगवान श्रीकृष्ण के मुख से शंखनाद के साथ श्री अटल बिहारी वाजपेयी के संपादकत्व में ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक का अवतरण स्वाधीन भारत में स्वाधीनता आन्दोलन के प्रेरक आदशोंर् एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों का स्मरण दिलाते रहने के संकल्प का उद्घोष ही था।
अटल जी के बाद ‘पाञ्चजन्य’ के सम्पादक पद को सुशोभित करने वालों की सूची में सर्वश्री राजीवलोचन अग्निहोत्री, ज्ञानेन्द्र सक्सेना, गिरीश चन्द्र मिश्र, महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, तिलक सिंह परमार, यादव राव देशमुख, वचनेश त्रिपाठी, केवल रतन मलकानी, देवेन्द्र स्वरूप, दीनानाथ मिश्र, भानुप्रताप शुक्ल, रामशंकर अग्निहोत्री, प्रबाल मैत्र, तरुण विजय, बल्देव भाई शर्मा और हितेश शंकर जैसे नाम आते हैं। नाम बदले होंगे पर ‘पाञ्चजन्य’ की निष्ठा और स्वर में कभी कोई परिवर्तन नहीं आया, वे अविचल रहे।
किन्तु एक ऐसा नाम है जो इस सूची में कहीं नहीं है, परन्तु वह इस सूची के प्रत्येक नाम का प्रेरणा-स्रोत कहा जा सकता है जिसने सम्पादक के रूप में अपना नाम कभी नहीं छपवाया, किन्तु जिसकी कल्पना में से ‘पाञ्चजन्य’ का जन्म हुआ, वह नाम है पं. दीनदयाल उपाध्याय। वस्तुत: जिस राष्ट्रधर्म प्रकाशन के तत्वावधान में लखनऊ से ‘पाञ्चजन्य’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ उसका बीजारोपण पं. दीनदयाल उपाध्याय की पहल पर हो चुका था, जिन्होंने ‘पाञ्चजन्य’ के शैशव काल में सम्पादक से लेकर प्रूफ रीडर, कम्पोजिटर, मुद्रक और कभी-कभी बंडल बांधने, उन्हें ले जाने के सब दायित्वों का निर्वाह करते हुए ‘पाञ्चजन्य’ का पालन पोषण किया। उन्होंने ‘पाञ्चजन्य’ के सम्पादक पद पर अपना नाम नहीं दिया पर वे सही अथोंर् में ‘पाञ्चजन्य’ के जन्मदाता और पालनकर्ता थे। वे महान व्यक्ति मौलिक चिन्तक और कलम के धनी थे। पर वे स्वयं सम्पादक नहीं बने बल्कि उन्होंने सम्पादकों की निर्मिति की। 1968 में अपनी असामयिक मृत्यु तक वे ‘पाञ्चजन्य’ के वास्तविक मार्गदर्शक थे। वे सम्पादक नहीं, सम्पादकों के गुरु थे। 1968 तक ‘पाञ्चजन्य’ में उन्होंने बहुत लिखा, अनेक नामों से लिखा। उन्होंने स्वातंत्र्योत्तर पत्रकारिता में प्रसिद्घि पराङ़मुख, ध्येय समर्पित पत्रकारिता का एक दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत किया। उनकी पावन स्मृति ही ‘पाञ्चजन्य’ की कठिन ध्येय यात्रा का पाथेय है। एक प्रकार से ‘पाञ्चजन्य’उनके चिन्तन तंत्र का अखंड प्रवाह है, उनकी पावन स्मृति का अक्षय केन्द्र है।
पं. दीनदयाल जी जैसे प्रसिद्घि पराङ़मुख ध्येयनिष्ठ व्यक्तित्व की भावभूमि पर टिका होने के कारण ही ‘पाञ्चजन्य’ साधनविहीन होने पर भी सत्ता की ओर से आने वाले अनेक विपरीत प्रवाहों को झेलकर भी अपने ध्येय पथ पर बढ़ता रहा। उसके जन्म का एक माह भी पूरा नहीं हुआ था कि गांधी हत्या से प्रभावित वातावरण का लाभ उठाकर सरकार ने फरवरी, 1948 में ‘पाञ्चजन्य’ का गला घोंटने की कोशिश की। उसके सम्पादक, प्रकाशक और मुद्रक को जेल में बंद कर दिया, उसके कार्यालय पर ताला ठोंक दिया। साढ़े चार माह बाद न्यायालय की कृपा से ‘पाञ्चजन्य’ का पुन: प्रकाशन संभव हो पाया। छह महीने निकलने के बाद दिसम्बर, 1948 में ‘पाञ्चजन्य’ पर फिर हमला करके सात माह के लिए उसके मुंह पर ताला ठोंक दिया गया। जुलाई, 1949 में यह ताला हटते ही ‘पाञ्चजन्य’ का शंखनाद पूर्ववत् गूंज उठा। राष्ट्र हित में ‘पाञ्चजन्य’ का निर्भीक स्वर सरकारों के लिए हमेशा सिरदर्द बना रहा। 1959 में कम्युनिस्ट चीन द्वारा तिब्बत की स्वाधीनता के अपहरण और दलाई लामा के निष्कासन के समय ‘पाञ्चजन्य’ ने नेहरू जी की अदूरदर्शिता और चीन की नीति की निर्भय होकर आलोचना की। 1962 में भारत पर चीन के हमले के लिए ‘पाञ्चजन्य’ ने नेहरू जी की असफल विदेश नीति एवं रक्षा नीति को दोषी ठहराया, जिससे तिलमिलाकर नेहरू सरकार ने ‘पाञ्चजन्य’ को धमकी भरा नोटिस दिया। 1972 में भारतीय सेनाओं की विजय को शिमला समझौते की मेज पर गंवा देने के विरुद्घ ‘पाञ्चजन्य’ के आक्रोश से तिलमिलाकर इंदिरा सरकार ने ‘पाञ्चजन्य’ के सम्पादकों एवं प्रकाशकों को लम्बे समय तक कानूनी कार्यवाही में फंसाए रखा। जून, 1975 में इंदिरा गांधी ने आपात स्थिति की घोषणा करके भारतीय लोकतंत्र का गला घोंटने की कोशिश की और मार्च, 1977 में आपातकाल की समाप्ति पर ही ‘पाञ्चजन्य’ पुन: अपनी ध्येययात्रा आरंभ कर सका। ‘पाञ्चजन्य’ के निर्भीक स्वर से तिलमिलाए लोगों एवं सरकार द्वारा दायर किए गए मुकदमों की सूची बहुत लम्बी है। ‘पाञ्चजन्य’ के सम्पादकों एवं प्रकाशकों का एक पैर हमेशा न्यायालय में रहा है।
‘पाञ्चजन्य’ की यात्रा साधनों के अभाव एवं सरकारी प्रकोपों के विरुद्घ राष्ट्रीय चेतना की जिजीविषा और संघर्ष की प्रेरणादायी गाथा है। ‘पाञ्चजन्य’ द्वारा समय-समय पर घोषित ध्येय वाक्यों जैसे ‘राष्ट्रीयता का प्रहरी’, ‘सांस्कृतिक चेतना का अग्रदूत’ या ‘राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं शौर्य का स्वर’ और ‘बात भारत की’ से स्पष्ट है कि ‘पाञ्चजन्य’ राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के पथ पर स्वाधीन भारत की यात्रा को स्वाधीनता आंदोलन की मूल प्रेरणाओं से जोड़े रखने के लिए खतरा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों एवं शक्तियों को चेतावनी का स्वर निर्भीकता के साथ बार-बार गुंजाता रहा। समय-समय पर प्रारंभ किए गए स्तम्भों से स्पष्ट होता है कि राष्ट्र जीवन का कोई भी क्षेत्र या पहलू उसकी दृष्टि से ओझल नहीं रहा। अन्तरराष्ट्रीय घटनाचक्र हो या राष्ट्रीय घटना चक्र, अर्थ जगत, शिक्षा जगत, नारी जगत, युवा जगत, राष्ट्र चिन्तन, सामयिकी, इतिहास के झरोखे से, फिल्म समीक्षा, साहित्य समीक्षा, संस्कृति-सत्य जैसे अनेक स्तंभ ‘पाञ्चजन्य’ की सवांर्गीण रचनात्मक दृष्टि के परिचायक रहे हैं।
‘पाञ्चजन्य’ के लेखक वर्ग में डा. सम्पूर्णानन्द, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन, डा. राममनोहर लोहिया, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, महादेवी वर्मा, किशोरी दास वाजपेयी, कृष्णचन्द प्रकाश मेढ़े जैसे मूर्धन्य विचारकों राजनेताओं तथा साहित्यकारों का योगदान रहा है।
‘पाञ्चजन्य’ ने जहां अपने सामान्य अंक के सीमित कलेवर में अनेक स्तम्भों के माध्यम से अपनी सांस्कृतिक दृष्टि के आलोक में पाठकों को देश-विदेश के घटनाचक्र से अवगत कराने की कोशिश की, तो विचार प्रधान लेखों के द्वारा मूलगामी राष्ट्रीय प्रश्नों पर भी उन्हें सोचने की सामग्री प्रदान की। असम और पूवार्ेत्तर भारत आज जिस संकट से गुजर रहा है, कश्मीर समस्या आज क्यों हमारे जी का जंजाल बनी हुई है, इसके बारे में ‘पाञ्चजन्य’ अपने जन्म काल से ही चेतावनी देता रहा है। ‘पाञ्चजन्य’ के पुराने अंकों का अध्ययन करने पर स्पष्ट होगा कि यदि समय रहते ‘पाञ्चजन्य’ की चेतावनियों को सुना गया होता तो पृथकतावाद, सामाजिक विघटन एवं राजनैतिक दलों के जिस संकट से हम गुजर रहे हैं, वह हमारे सामने न आता। स्वाधीन भारत की यात्रा के प्रत्येक महत्वपूर्ण मोड़ पर ‘पाञ्चजन्य’ राष्ट्रीयता के प्रहरी की भूमिका निभा रहा है। ‘पाञ्चजन्य’ ने वर्ष में कम से कम पांच अवसरों पर विशेषांक निकालने का निश्चय किया। स्वाधीनता दिवस ’15 अगस्त’, गणतंत्र दिवस ’26 जनवरी’, विजयादशमी, दीपावली, वर्ष प्रतिपदा।
आज संविधान की समीक्षा की चर्चा जोर पकड़ रही है। किन्तु ‘पाञ्चजन्य’ ने इस संदर्भ में जुलाई से सितम्बर, 1959 में ही जयप्रकाश नारायण, के़ एम़ मुंशी, मीनू मसानी, मेहरचंद महाजन, सत्यकेतु विद्यालंकार आदि अधिकारी विद्वानों के लेखों की एक श्रृंखला प्रकाशित की थी, जिसमें वर्तमान संविधान की अपूर्णता पर प्रकाश डालते हुए उसके पुनर्निरीक्षण की आवश्यकता पर बल दिया गया था। ऐसी अनेक विचारोत्तेजक मूलगामी लेखमालाओं से ‘पाञ्चजन्य’ भरा पड़ा है। उसके संकलन का प्रकाशन आज भी उद्बोधक और उपादेयपूर्ण है।
‘पाञ्चजन्य’ का जन्म लखनऊ में हुआ, किन्तु राष्ट्रीय मंच पर अपनी भूमिका को अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु 1968 में उसका प्रकाशन दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया। 1972 में राष्ट्रधर्म प्रकाशन ने उसका प्रकाशन, मुद्रण पुन: लखनऊ से करने का निश्चय किया। आपातकाल की समाप्ति के बाद 1977 में ‘पाञ्चजन्य’ का प्रकाशन पुन: दिल्ली से आरम्भ करने के लिए राष्ट्रधर्म ने उसके प्रकाशन का पूर्ण दायित्व अपनी सहयोगी संस्था भारत प्रकाशन दिल्ली लिमिटेड को हस्तांतरित कर दिया।
सम्पादक, स्थान और स्वामित्व परिवर्तन के अतिरिक्त ‘पाञ्चजन्य’ ने आकार और सज्जा परिवर्तन की दृष्टि से समय-समय पर तरह-तरह के प्रयोग किए। विशेषांकों के बारे में ऊपर बताया ही जा चुका है कि ‘पाञ्चजन्य’ का कोई विशेषांक पूर्णाकार में निकला, तो कोई पत्रिकाकार में और कोई पुस्तकाकार में। लेकिन 30 मार्च, 2014 (वर्ष प्रतिपदा) से अब पाञ्चजन्य पत्रिकाकार में नियमित प्रकाशित हो रहा है। पत्रिकाकार में पहले अंक का लोकार्पण प.पू. सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने किया। जनवरी, 1959 से 1963 तक ‘पाञ्चजन्य’ के सामान्य अंक भी पत्रिकाकार में ही निकले थे। सम्भवत: हिन्दी साप्ताहिक के क्षेत्र में यह पहला प्रयास था। किन्तु स्थान परिवर्तन, स्वामित्व परिवर्तन या आकार परिवर्तन का अर्थ ‘पाञ्चजन्य’ का चरित्र परिवर्तन नहीं है। राष्ट्रीय चेतना की जिस भावभूमि से ‘पाञ्चजन्य’ का जन्म हुआ, स्वाधीन भारत की भौगोलिक अखंडता एवं सुरक्षा, उसकी सामाजिक समरसता एवं राष्ट्रीय एकता को पुष्ट करते हुए उसे ससम्मान श्रेष्ठ सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के आधार पर युगानुकूल सवांर्गीण पुनर्रचना के पथ पर आगे ले जाने के जिस संकल्प को लेकर ‘पाञ्चजन्य’ ने अपनी जीवन यात्रा आरम्भ की थी, वह आज पूरी शक्ति के साथ अपने उसी कर्त्तव्य पथ पर डटा हुआ है।
स्वाधीन भारत के साथ-साथ ‘पाञ्चजन्य’ न केवल उसका सहयात्री है, बल्कि इस यात्रा में भावना और कर्म से पूरी तरह जुड़ा है। ‘पाञ्चजन्य’ सभी देशवासियों के स्नेह और सहयोग की याचना करता है ताकि वह राष्ट्र रक्षा और राष्ट्रीय पुनर्रचना के यज्ञ में सतत् आहुति देता रहे।
‘पाञ्चजन्य’, राष्ट्रीय हिन्दी साप्ताहिक
Plot 4B, District Center,
Mayur Vihar Phase 1 Extension,
New Delhi 110091