भारत में बलिदान की अमर परंपरा रही है। इसमें सिख गुरुओं ने ऐसी अजस्र परम्परा का सूत्रपात किया कि आज भी सिख कौम भारतवर्ष की खातिर अपना तन, मन, धन न्योछावर करने को तत्पर रहती है। मध्यकाल में मुगलों के बलात् कन्वर्जन और अत्याचारी शासन व्यवस्था का प्रतिकार प्रथम गुरु गुरु नानकदेव जी से दशम गुरु गुरु गोबिंद सिंह जी एवं उनके चारों पुत्रों और गुरु सेवकों तक ने किया। गुरु अर्जुनदेव जी, गुरु तेग बहादुर जी और दशम गुरु जी के समस्त परिवार ने इस देश और धर्म के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया। लेकिन इतनी महत्वपूर्ण बलिदान परम्परा को वामपंथी इतिहासकारों ने न केवल नकारा अपितु समय-समय पर मनगढ़ंत विमर्श गढ़ा जैसे सिख हिंदुओं से अलग हैं।

प्रोफेसर, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
गुरु तेग बहादुर जी से संबंधित ऊटपटांग बातें पुस्तकों में लगातार छाप कर भारत की युवा पीढ़ी को वर्षों तक गुमराह किया। वामपंथी इतिहास के पृष्ठ मुगलों की ‘महानता’ से रंगे पड़े हैं और यही तथाकथित बुद्धिजीवी कक्षाओं में विद्यार्थियों द्वारा मुगल आक्रांताओं द्वारा जबरन कन्वर्जन कराए जाने से जुड़े प्रश्न पूछने पर ऐसी घटनाओं के प्रमाण मांग कर निरुत्तर करने का कुत्सित कार्य करते हैं। यहां तक कि इन सेकुलर इतिहासकारों द्वारा जो इतिहास लिखा गया है उसमें गुरु तेग बहादुर जी का अमर बलिदान तक अंकित नहीं है।
समझना होगा इतिहास
सिख गुरुओं की अमर बलिदान परंपरा को समझने के लिए इतिहास को ठीक से समझना होगा। मध्यकाल में मुगल सल्तनत के समानांतर भारतीय समाज में सिख गुरुओं की उपस्थिति देखने को मिलती है। बाबर 1526 ई. में भारत पर हमला करता है और उस समय गुरु नानकदेव जी की उम्र 57 वर्ष थी। तब उन्होंने भारत के स्थानीय शासकों को आगाह किया था कि बाबर काबुल से पाप की बारात लेकर निकल चुका है और समय रहते न चेते तो भारत को तबाह कर देगा। तब किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। उन्होंने बाबर से प्रत्यक्ष मुलाकात के बाद उसके मुंह पर उसे ‘जाबर’ (अत्याचारी) कहा था।
गुरुओं ने जोड़ा समाज
सिख गुरुओं ने समाज को जोड़ने के लिए एक ‘सोशल इंजीनियरिंग’ अपनाई। उन्होंने मूलभूत नियम, नाम जपना, कीरत करना और बांट कर खाना को अनिवार्य बनाया। इसके बाद सिखों गुरुओं ने (गुरु नानकदेव जी -1469 ई. से गुरु गोबिंद सिंह-1699) मुगलों के खिलाफ एक आन्दोलन किया। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने नौ गुरुओं द्वारा तैयार आत्मिक और शारीरिक रूप से परिपुष्ट भारतीय समाज को युद्ध में जूझना सिखाया। इस पूरी ‘अकाल से खालसा तक की यात्रा’ में प्रारम्भिक चार गुरुओं-गुरु नानकदेव जी, गुरु अंगददेव जी, गुरु अमरदास जी, गुरु रामदास जी- ने सहनशीलता और त्याग की अद्वितीय कसौटी प्रस्तुत की। इसमें पंचम गुरु, गुरु अर्जुनदेव जी की भूमिका अत्यंत अत्यन्त क्रांतिकारी रही।
उन्होंने गुरु नानक देव जी से लेकर स्वयं की बानी और गुरु नानकदेव जी द्वारा संग्रहीत भारतवर्ष के भक्तों, संतों की वाणी को बहुत अद्भुत रूप से भारतीय राग-परम्परा में पिरो कर ‘आदिग्रंथ’ को सुसम्बद्ध किया, जिसमें न तो कोई एक भी शब्द जोड़ सकता है, न ही निकाल सकता है। दिल्ली पर उस समय मुगल आक्रान्ता जहांगीर का शासन था। जोर-जबरदस्ती से मुसलमान बने हिन्दू, सिख गुरुओं के धर्म के उपदेश के कारण, वापस सनातन और सिख परंपरा को स्वीकार कर रहे थे।
जहांगीर को यह बर्दाश्त नहीं था। वह अपनी आत्मकथा ‘तुज्के-जहांगीरी’ में अपने मन के सारे द्वेष खुल कर लिखता है: ‘बहुत समय से मेरे दिल में ख्याल उठ रहा था कि इस झूठ की दुकान को बंद करना चाहिए, या उस (गुरु) को मुसलमानी फिरके में ले आना चाहिए…मैंने हुक्म दिया कि उसको हाजिर किया जाए। मैंने उसके घर-घाट तथा बच्चे मुर्तजा खां के हवाले कर दिए तथा उसका माल असबाब जब्त कर के हुक्म दिया कि उसको सियासत तथा यासा के कानून अनुसार दंड दें।’ (गुरु-इतिहास, प्रो. साहिब सिंह, पृष्ठ 189) गुरु अर्जुनदेव जी को भीषण यातनाएं दी गईं। गर्म तवे पर बिठा कर उन पर गर्म रेत डाली गई, और फिर गर्म पानी में उबल कर उन्हें रावी नदी में बहा दिया गया। वे 30 मई 1606 ई. को बलिदान हुए।

भक्ति-शक्ति का समन्वय
इसके बाद सिख इतिहास में ‘भक्ति और शक्ति के समन्वय का’ दौर शुरू हुआ। गुरु अर्जुनदेव जी के पुत्र गुरु हरगोबिन्द जी गुरु-पद ग्रहण कर मीरी और पीरी की दो तलवारें पहनते हैं और दरबार लगाना शुरू करते हैं। जहां जनता की फरियाद सुनी जाती है और अमृतसर में दिल्ली के मुगल शासक के सिंहासन से चार फुट ऊंचे ‘अकाल तख़्त’ का निर्माण किया जाता है। सेना बनाई जाती है और अस्त्र-शस्त्रों का प्रशिक्षण देना शुरू किया जाता है। जहांगीर गुरु हरगोबिन्द जी को ग्वालियर के किले में धोखे से बंद कर देता है, लेकिन वे अपनी सूझबूझ और दूरदृष्टि से स्वयं और अन्य राजाओं को मुक्त कराने में सफल हो जाते हैं। जहांगीर के बाद उसका पुत्र शाहजहां दिल्ली का शासक बना। उसने लाहौर-दरबार ने सिख-सम्प्रदाय की ताकत को दबाने के प्रयत्न शुरू कर दिए। उसने गुरु हरगोबिन्द जी पर चार बार आक्रमण किया, जिसमें उसे हर बार मुंह की खानी पड़ी।
सिख-गुरुओं ने भारतीय शिक्षा-पद्धति को सुदृढ़ करते हुए, गुरु नानकदेव जी के मिशन ‘घर-घर होवे धरमसाल’ को साकार किया। अनेक नगर बसाए, कुएं और बावड़ियों का निर्माण करवाया और मुगल शासकों को कर न देकर उससे जन-कल्याणकारी योजनाओं का आरम्भ किया। 11 नवम्बर, 1675 को जब औरंगजेब के आदेश पर गुरु तेग बहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया गया तब उनके पुत्र गुरु गोबिंद सिंह जी की आयु मात्र 9 वर्ष थी। उन्होंने 25 वर्ष तक आनंदपुर साहिब में रह कर कलम और तलवार दोनों से भारत की तकदीर बदलने के लिए शौर्यपूर्ण दायित्व का वहन करते हुए ‘खालसा पंथ’ का निर्माण किया और उन्होंने मुगल सल्तनत की जड़ों उखाड़ कर रख दिया।
वे अजेय योद्धा- संत -कवि थे, उनकी समस्त बानी में युद्ध की हुंकार भरी है। उन्होंने भारतीय संस्कृति और परम्पराओं का संरक्षण और संवर्द्धन करते हुए भारतीय समाज में प्रचलित ऐतिहासिक पौराणिक कथाओं पर जमी धूल-धकार को दूर कर पुन: उनके ऐतिहासिक महत्त्व को स्थापित किया। एक विशाल आयोजन के अंतर्गत रामावतार, कृष्णावतार, चौबीस अवतार, ज्ञान प्रबोध, ब्रह्मावतार, रुद्रावतार और तीन बार चंडी-चरित्र की रचना की गई । उनकी सोलह कृतियों का संग्रह ‘श्री दशम ग्रन्थ’ के नाम से प्रचलित है। उन्होंने नए युद्ध प्रशिक्षण केंद्र खोले और मजबूत किलों का निर्माण किया। युद्ध की आपात स्थिति से निपटने के लिए जन-साधारण के लिए सुरक्षित जीवन व्यवस्था का प्रबंध किया। शिक्षा, चिकित्सा और खाद्य-भंडारण की समुचित व्यवस्था की। इतिहासकार हरिराम गुप्ता ने इसे ‘राज्य के भीतर राज्य’(state with in state) की उपमा दी है।
1704 ई. के पौष माह में छल-कपट से मुगल-सल्तनत के कारिंदों ने गुरु गोबिन्द सिंह जी को उनके किले आनंदपुर से निकलने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने गुरु जी के समक्ष गाय और कुरान की कसम खाई कि वे अपना किला खाली कर देंगें तो उन्हें शांतिपूर्वक जाने देंगे। लेकिन जैसे ही उनका काफिला सतलुज नदी के पास पहुंचा तो उन पर हमला कर दिया गया। वे अपने परिवार और सैनिकों से अलग हो गए। उनके दो बड़े साहिबजादे और कुछ गिनती के सिंह चमकौर की गढ़ी की ओर चले गए। उधर दोनों छोटे साहिबजादे रसोइए गंगाराम के साथ उसके गांव की तरफ चले गए।
चमकौर का युद्ध
चमकाैर में महज 40 सिख सैनिकों ने मुगलों की दस लाख की फौज का सामना किया। इसमें गुरु जी के दो बड़े पुत्र-बाबा अजीत सिंह जी और बाबा जुझार सिंह जी- और प्रिय सिख सेवक मुगलों की फौज का बहादुरी से सामना करते हुए बलिदान हो गए। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने औरंगजेब को लिखे पत्र में इस बात का जिक्र इस प्रकार किया है, “कुरान की कसम तोड़ते हुए तुम्हारे असंख्य सैनिकों ने काले कपड़े पहनकर, मक्खियों के समान हमला कर दिया और नाइंसाफी की इंतहां यह कि हमारे चालीस भूखे-प्यासे सिंहों पर तुम्हारी अनगिनत फौज टूट पड़ी। अतः वहां वीरता भी क्या कर सकती थी।”
औरंगजेब को फटकारते हुए गुरु गोबिन्द सिंह ने उसे लिखा, “औरंगजेब, तुम्हारा भेजा हुआ काजी जिस कुरान पर तुम्हारे द्वारा लिखी हुई कसम लेकर आया था, अगर तुम उस कुरान को देखना चाहते हो तो मैं वह भी तुम्हारे पास भेज सकता हूं, ताकि तुम्हें पता चल जाए तुमने क्या वायदा किया था।” (जफरनामा, पृ. 57)
दूसरी तरफ गुरु गोबिंद सिंह जी के दो निर्दोष और मासूम बच्चों बाबा जोरावर सिंह जी और बाबा फतेह सिंह जी और दादी माता गूजरी काैर जी को सरहिंद के नवाब ने भांति-भांति के प्रलोभन दिए कि वे इस्लाम स्वीकार कर लें। उन्हें पाैष माह की कड़कती ठंड में तीन दिन तक ठंडे बुर्ज पर खुले में रखा गया। दोनों मासूम बच्चों ने अपनी दादी माता गूजरी जी के साथ दुष्ट आक्रांताओं की बात मानने से मना कर दिया। हार कर सरहिंद के नवाब ने उन्हें दीवारों में जिंदा चिनवाया। इस खबर को सुनकर माता गूजरी जी ने अपने प्राण त्याग दिए।
गुरुजी ने स्वयं औरंगजेब को लिखे पत्र में लिखा है, “औरंगजेब, क्या हुआ जो तूने धोखे से मेरे चार बच्चों को मार दिया? कुंडलाकार सर्प अभी जीवित है।”
देश और धर्म की रक्षा के लिए सिख गुरुओं ने अनेक बलिदान दिए, उनमें गुरु गोबिन्द सिंह जी के पुत्रों के बलिदान का विशिष्ट महत्व है। विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम में इस परम्परा को पढ़कर युवा पीढ़ी में अदम्य साहस का भाव उत्पन्न होगा। यह समझना बेहद आवश्यक है कि सिख गुरुओं ने शस्त्र और शास्त्र के माध्यम से राज्य के भीतर राज्य की स्थापना की। गुरु गोबिंद सिंह जी ने जिस स्वराज (खालसा राज) की स्थापना की उसी की एकनिष्ठता एवं शौर्य का प्रभाव था कि बन्दा सिंह बहादुर (1709-16) ने अपने अदम्य साहस से गुरु जी के मासूम साहिबजादों और माता गूजरी पर हुए भयंकर अत्याचारों का मुगल वजीरों से बदला लिया और मुगलों की ईंट से ईंट बजा दी। गुरु नानकदेव और गुरु गोबिंद सिंह जी के नाम के सिक्के चलाए गए।
बाबा बघेलसिंह ने एक वक्त दिल्ली को मुगलों से जीतकर (11 मार्च 1783) लालकिले पर निशान साहिब (विजय पताका) फहराया दिया था। महाराजा रंजीत सिंह (1801- 1839) ने लगभग 40 वर्ष पंजाब पर शासन किया। सिख इतिहास में पढ़ाया जाना बेहद जरूरी है, क्योंकि अभी तक छात्रों को वही पढ़ाया जाता था तो वामपंथी इतिहासकारों ने लिखा था। दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सिख बलिदानियों के बारे में पढ़ाया जाना एक अच्छी और शानदार पहल है।
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