इस्राएल से युद्ध की मार झेलने के बाद कुछ राहत में आए ईरान ने अपने यहां रह रहे अफगान नागरिकों को देश छोड़ने को कहा है। इसके लिए जुलाई महीने को अंतिम समय बताया है। ध्यान रहे इससे पूर्व पाकिस्तान भी अफगान शरणार्थियों को अपने मुल्क से बाहर का रास्त दिखा चुका है। नए बनने वाले हालात से अफगानिस्तान पर मुसीबतों का पहाड़ टूट सकता है। तालिबान की परेशानियां बढ़ सकती हैं। ईरान और पाकिस्तान द्वारा अफगान शरणार्थियों को देश छोड़ने का अल्टीमेटम देना न केवल अफगानिस्तान में मानवीय संकट को जन्म देने जा रहा है, बल्कि से ही जर्जर वहां की सामाजिक-आर्थिक स्थिति के और भी बदतर होने के आसार हैं। था
अगस्त, 2021 में तालिबान ने बंदूक के दम पर अफगानिस्तान पर कब्जा किया था। इससे लाखों अफगानी पड़ोसी देशों में शरण लेने को मजबूर हुए थे। लेकिन इन शरणार्थियों से परेशान होकर अक्तूबर 2023 में पाकिस्तान ने अपने यहां बिना कागजात के बसे 17 लाख अफगान शरणार्थियों को अपने यहां से निकलने को कह दिया था। पाकिस्तान ने इसके लिए 31 मार्च 2025 तक का वक्त दिया था। तालिबान के गुस्सा दिखाने के बावजूद जिन्ना के देश ने अपने यहां बाल—बच्चों समेत बसे सभी अवैध अफगानों को देश छोड़ने का आदेश दिया था। पाकिस्तान का कहना था कि अफगान शरणार्थियों में से कुछ आतंकी गतिविधियों में शामिल हैं। लेकिन इस फरमान के विरोधियों ने इसे एक राजनीतिक कदम बताकर इसकी भर्त्सना की थी।
इसके बाद जून 2025 में ईरान ने फरमान सुनाया कि 6 जुलाई, 2025 तक अफगान ईरान से बाहर निकल जाएं। अभी तक तेहरान 7 लाख से अधिक अफगानों को निर्वासित कर चुका है। एक मोटे अनुमान के अनुसार ईरान में 40 लाख अफगान नागरिक रह रहे हैं, जिनमें से कई दशकों से वहीं बसे हुए हैं। ईरान ने उन्हें देश से निकल जाने का कहने के पीछे तर्क दिया है कि वह केवल अवैध प्रवासियों को निकाल रहा है। लेकिन मानवाधिकार संगठनों का दावा कुछ और है। उनका कहना है कि यह प्रक्रिया अमानवीय है और जल्दबाज़ी में की गई है।

पहले पाकिस्तान और अब ईरान ने ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ की बात करने वालों के गाल पर यह एक करारा तमाचा जैसा जड़ा है, क्योंकि जिन्हें दोनों इस्लामी देशों ने निकाला है या निकाल रहे हैं वे भी तो मुसलमान हैं। उन पर अचानक निर्वासन की मार पड़ने से उनके हाल खराब हैं। लाखों अफगानी बेघर हो गए हैं। सीमाओं पर भीड़ बढ़ती जा रही है। भोजन और पानी की कमी के साथ ही हारी—बीमारी के लिए कोई सहायता उपलब्ध नहीं है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के अनुसार, अफगानिस्तान पहले से ही दुनिया के सबसे बड़े शरणार्थी संकटों में से एक को झेल रहा है। वहां राज कर रहे तालिबान इस मुसीबत के आने के बाद और परेशान महसूस कर रहे हैं। वहां आम अफगानी के लिए पहले से रोटी के लाले पड़े हैं, तिस पर अब लाखों शरणार्थी लौटने की जद्दोजहद में उलझे हैं।
अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई है। इतनी बड़ी संख्या में लोगों की वापसी से बेरोजगारी, आवास संकट और संसाधनों पर दबाव बढ़ना अवश्यंभावी है। लेकिन तालिबान सरकार के पास न तो इन लौटने वाले लोगों के पुनर्वास की कोई ठोस योजना है, न उनकी रोजी—रोटी का कोई रास्ता है। यहां यह बात भी ध्यान में रहे कि लौटने वाले शरणार्थियों में से अधिकांश तालिबान शासन के आलोचक हैं। ऐसे में उनके लिए सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा साबित होने वाली है। जो हालत बनेंगे उनसे उस देश में असंतोष और अस्थिरता बढ़ने का खतरा मंडरा रहा है।
स्वाभाविक रूप से संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार संगठनों ने पाकिस्तान और ईरान द्वारा इन शरणार्थियों को निकाले जाने की आलोचना की है और इसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन के रूप में देखा है। उन्होंने अफगानिस्तान के दोनों पड़ोसी देशों से अपील की है कि वे अफगान शरणार्थियों को जबरन न निकालें और उन्हें इंसानियत की नजर से देखें।
मानवाधिकारवादियों का कहना है कि ईरान और पाकिस्तान की यह नीति अफगानिस्तान के लिए एक और मानवीय त्रासदी का कारण बन सकती है। यह केवल एक राजनीतिक या सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा नहीं है, बल्कि लाखों निर्दोष लोगों के जीवन और भविष्य का प्रश्न है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को इस संकट में हस्तक्षेप कर एक दीर्घकालिक समाधान की दिशा में काम करना चाहिए।
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