लोकमाता पुण्यश्लोका अहिल्याबाई होलकर प्रजावत्सल रानी थीं। उनका कहना था कि शासन-व्यवस्था का निर्माण प्रजा के हित व कल्याण के लिए ही होता है। शासन का प्रमुख कर्तव्य होता है-प्रजा का संरक्षण, उनके हितों व सुख-सुविधाओं का संवर्धन और उसकी नैतिक व आध्यात्मिक उन्नति में सहयोग। शासन भोग न होकर एक महान योग, एक श्रेष्ठ साधना व गंभीर उत्तरदायित्वों से भरा अत्यंत महत्वपूर्ण कर्तव्य होता है। उन्होंने इन तत्वों को अपने जीवन में उतारकर प्रजा को सुखी करने में पूर्ण सफलता प्राप्त की। प्रजा के हित को ही वे अपना हित मानती थीं। वे प्रजा से अपनी संतान से भी अधिक स्नेह करती थीं। इस श्रेष्ठ मनोभावना के कारण ही वे इतनी सफल व प्रजावत्सल रानी बनकर सबके लिए परम वंदनीय बन गईं।
उनकी प्रजा को बाहरी शत्रुओं, चोर, डाकुओं से या राज्य के अधिकारियों से कोई भय नहीं था। प्रजा अपने को पूर्ण सुरक्षित अनुभव करती थी। प्रजा को सुख-सुविधाएं सहज उपलब्ध थीं। उनके समय में अन्न, जल या जीवनोपयोगी किसी भी वस्तु की कभी भी कमी नहीं रही। उन्होंने कई स्थानों पर सदाव्रत व अन्न-छत्र चालू कर रखे थे, जहां साधु-संतों, गरीबों व असहायों को, बिना किसी भेदभाव के भोजन मिलता था। इसके सिवा दीन-दुखियों को वे नित्य बहुत दान-धर्म करती थीं। प्रजा के हित के लिए उन्होंने कई बड़े उपयोगी कार्य किए।
प्रजा की नैतिक व आध्यात्मिक उन्नति का भी उन्हें पूरा ध्यान था। इस हेतु उन्होंने अपना जीवन अत्यंत पवित्र व उज्ज्वल रखा। राजा के जीवन का प्रजा पर कितना प्रभाव होता है, यह वे अच्छी तरह से जानती थीं। इसलिए उन्होंने अपना जीवन व आचरण गंगाजल के समान शुद्ध व पवित्र रखा था। प्रजा को धर्म-मार्ग पर प्रेरित करने के लिए उन्होंने देश भर में ऊंचे—ऊंचे मंदिर बनवाए और दान-धर्म को जीवन व शासन में सर्वाधिक महत्व प्रदान किया। अपने साधनामय जीवन के द्वारा वे प्रजा के जीवन को भी आनंद व प्रकाश से भरपूर कर देना चाहती थीं। उनकी मौन साधना का परिणाम अत्यंत शुभ हुआ था।
उन्होंने प्रजा के अहितकर पूर्व-प्रचलित अनेक कानूनों, नियमों व करों को हटा दिया था। निस्संतान विधवाओं के धन को शासन द्वारा जब्त कर लेने के नियम को हटाकर, विधवाओं द्वारा दत्तक लेने व अपने धन का मनचाहा उपयोग करने की छूट उन्होंने दे दी थी। इस नियम का पालन करने में विधवाओं को वे पूर्ण सहयोग देती थीं। करों की संख्या व मात्रा भी उन्होंने कम कर दी थी। इससे राज्य की आमदनी कम हो गई थी पर प्रजा को बड़ा लाभ हुआ था। एक बार एक विधवा ने अहिल्याबाई के दरबार में अर्जी दी। लिखा था,”मेरे पास बहुत धन है। निस्संतान हूं। मेरे धन का उपयोग करने व वंश चलाने के लिए मुझे किसी को गोद लेने की आज्ञा देने की कृपा करें।”
यह अर्जी अहिल्याबाई के पास पहुंची तब उनके पास कुछ अधिकारीगण भी बेठे थे। उन्होंने कहा- इस स्त्री के लिए गोद लेने में आपत्ति नहीं है। यह बड़ी धनवान है। पर पहले इस बात का निबटारा कर लेना चाहिए कि राज्य को वह कितना धन नजर (भेंट) करेगी।
सभी अधिकारियों की यही राय थी। उनकी बातें सुन लेने के बाद अहिल्याबाई बोलीं, ”गोद लेने की आज्ञा देने की बात तो समझ में आ रही है, पर उससे नजर लेने की बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। उससे नजर क्यों और किस बात की लेनी चाहिए? सारा धन कमाया उसके पति ने। वह निस्संतान मर गया। किसी को गोद लेने का अधिकार हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार उसकी पत्नी को है। पर हम राज-पाट करने वाले कहते हैं कि तुम किसी को गोद कैसे ले सकती हो? हमारा यह कार्य धर्मशासत्रों के बिलकुल विरुद्ध है। अब हम यदि उससे धन लेकर आज्ञा देंगे तो वह धर्म-विरुद्ध कहलाएगा। यह उचित नहीं है, अत: उस स्त्री से एक पैसा भी न लिया जाए। हमारी ओर से इस अर्जी पर यही लिखा जाए कि तुम दत्तक ले रही हो, यह जानकर हमें बड़ा संतोष हुआ। तुम्हारे घराने की जो कीर्ति चली आ रही है उसे और अधिक बढ़ाओ, इसी में हमें और अधिक संतोष व सुख होगा। तुम्हारे धन की तुम ही मालिक हो। उसका पूरा उपभोग तुम ही करो। राज्य को तुम्हारे धन में से कुछ नहीं चाहिए।”
अहिल्याबाई के सामने प्रजा का हित ही सवोंपरि महत्व का था। प्रजा के हित के सामने बड़े से बड़े सरदारों व अधिकारियों को भी वे तुच्छ समझती थीं। अन्यायी व नियम विरुद्ध चलने वाले कर्मचारियों के विरुद्ध कठोर कार्यवाही करने में वह किसी तरह का संकोच नहीं करती थीं। परिणाम यह हुआ कि अधिकारीगण प्रजा के साथ अन्याय करने में डरते थे। वे अच्छी तरह जानते थे कि उनके द्वारा किया गया गलत कार्य अहिल्याबाई से छिप नहीं सकेगा और उसका परिणाम भुगतने से उन्हें कोई बचा नहीं सकेगा। चांदवड़ के मामलतदार ने एक व्यक्ति को सताया। पता चलते ही अहिल्याबाई ने उसे लिखा, ”भविष्य में प्रजा के साथ इस प्रकार का व्यवहार होना ठीक नहीं। प्रजा की हर बात पर गौर कर पूर्ण संतोष प्रदान करो। भविष्य में तुम्हारी शिकायत हुई तो उसका परिणाम अच्छा न होगा।”
कर्मचारियों और उनके परिवार की सुख-सुविधाओं का वे सदैव पूरा ध्यान रखती थीं। एक बार नागलवाड़ी के कमाविसदार ने उनको लिखे पत्र में शासन संबंधी बातें लिखकर अंत में लिखा, ”इन दिनों मेरे पेट में बड़ा दर्द रहता है।” देवी मां ने तुरंत आवश्यक उपचार की व्यवस्था कर दी। इस प्रकार प्रजा व कर्मचारियों की ओर से उनको लिखे पत्रों में शासकीय बातों के सिवा उनके घर-गृहस्थी व व्यक्तिगत जीवन की बातें नि:संकोच लिख दी जाती थीं। एक बार एक कर्मचारी ने लिखा, ”मेरी मां बहुत बीमार हैं। घर की बड़ी दुर्दशा है।” उनके ह्रदय में जरूरतमंदों, गरीबों और असहाय व्यक्ति के लिए दया और परोपकार की भावना भरी हुई थी। उन्होंने समाज सेवा के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया था। अहिल्याबाई हमेशा अपनी प्रजा और गरीबों की भलाई के बारे में सोचती रहती थीं। इसके साथ ही वे गरीबों और निर्धनों की हर संभव मदद के लिए हमेशा तत्पर रहती थीं।
अहिल्याबाई के मराठा प्रांत का शासन संभालने से पहले यह कानून था कि अगर कोई महिला विधवा हो जाए और उसका पुत्र न हो, तो उसकी पूरी संपत्ति सरकारी खजाना या फिर राजकोष में जमा कर दी जाती थी, लेकिन अहिल्याबाई ने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को अपने पति की संपत्ति लेने का हकदार बनाया। इसके अलावा उन्होंने महिला शिक्षा पर भी बल दिया। अपने जीवन में तमाम परेशानियां झेलने के बाद जिस तरह महारानी अहिल्याबाई ने अपनी अदम्य नारी शक्ति का इस्तेमाल किया था, वह काफी प्रशंसनीय है।
मंदिरों का निर्माण
देवी अहिल्याबाई ने देशभर में कई प्रसिद्ध तीर्थस्थलों पर मंदिरों, घाटों, कुओं और बावड़ियों का निर्माण कराया। इतना ही नहीं, उन्होंने सड़कों का निर्माण करवाया, अन्न क्षेत्र खुलवाए, प्याऊ बनवाए और वैदिक शास्त्रों के चिन्तन-मनन व प्रवचन के लिए मंदिरों में विद्वानों की नियुक्ति भी की। उन्होंने सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसे 1024 में गजनी के महमूद ने नष्ट कर दिया था। साथ ही सोमनाथ मंदिर के मुख्य मंदिर के आस-पास सिंहद्वार और दालानों का निर्माण करवाया। त्रयंबक में पत्थर का एक सुंदर तालाब और दो छोटे-छोटे मंदिरों का निर्माण करवाया।
गया में विष्णुपद मंदिर के पास दो मंजिला मंदिर का निर्माण करवाया, जिसमें भगवान राम, जानकी और लक्ष्मण और हनुमान जी की मूर्तियां प्रतिष्ठित हैं। पुष्कर में एक मंदिर और धर्मशाला बनवाई। वृन्दावन में एक अन्न क्षेत्र और एक लाल पत्थर की बावड़ी बनवाई। नाथद्वारा (राजस्थान) में मंदिर, धर्मशाला, कुआं व कुंड बनवाया। टेहरी (बुंदेलखंड) में धर्मशाला बनवाई। बुरहानपुर (म.प्र) में घाट बनवाया। बेरुल (कर्नाटक) में गणपति, पांडुरंग, जालेश्वर, खंडोबा, तीर्थराज, व अग्नि के मंदिर बनवाए। आलमपुर में सोनभद्र नदी के तट पर बसे इस स्थान पर अपने ससुर की स्मृति में एक देवालय स्थापित करवाया। भगवान विष्णु का एक मंदिर भी यहां बना हुआ है।
हरिद्वार स्थित कुशावर्त घाट का जीर्णोंधार कराकर उसे पक्के घाट में परिवर्तित कराया। उन्होंने इसी स्थान के समीप दत्तात्रेय भगवान का मंदिर भी स्थापित कराया। पिंडदान के लिए भी एक उचित स्थान का निर्माण करवाया। वाराणसी में सुप्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का निर्माण करवाया। राजघाट और अस्सी संगम के मध्य विश्वनाथ जी का सुनहरा मंदिर है।
वाराणसी में ही अहिल्याबाई होलकर ने अहिल्याबाई घाट तथा उसके समीप एक बड़ा महल बनवाया। महान संत रामानन्द के घाट के समीप उन्होंने दीपहजारा स्तंभ बनवाया। उन्होंने बहुत से कच्चे घाटों का जीर्णोद्धार कराया, जिसमें से शीतलाघाट प्रमुख है। इस प्राचीन नगर में महारानी ने हनुमान जी के भी एक मंदिर का निर्माण करवाया। उन्होंने देवप्रयाग, गंगोत्री, बिठूर, अयोध्या, उज्जैन, नासिक जैसे तीर्थस्थलों पर भी अनेक निर्माण कार्य करवाए।
देवी अहिल्याबाई होलकर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर के जामखेड़ स्थित चौंढी गांव में 31 मई, 1725 को हुआ था। उनके पिता का नाम मानकोजी शिंदे था, जो मराठा साम्राज्य में पाटिल के पद पर कार्यरत थे। देवी अहिल्याबाई का विवाह मालवा में होलकर राज्य के संस्थापक मल्हारराव होल्कर के पुत्र खंडेराव से हुआ था। देवी अहिल्याबाई का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उनकी शादी के कुछ साल बाद ही 1754 में उनके पति खांडेराव का भरतपुर (राजस्थान) के समीप कुम्हेर में युद्ध के दौरान निधन हो गया। साल 1766 में ससुर मल्हारराव भी चल बसे। इसी बीच रानी ने अपने एकमात्र बेटे मालेराव को भी खो दिया। अंततः देवी अहिल्याबाई को राज्य का शासन अपने हाथों में लेना पड़ा। अपनों को खोने और शुरुआती जीवन के संघर्ष के बाद भी रानी ने बड़ी कुशलता से राजकाज संभाल लिया। कुशल कूटनीति के दम पर उन्होंने न सिर्फ विरोधियों को पस्त किया, बल्कि जीवनपर्यन्त सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में जुटी रहीं।
विद्वानों की दृष्टि में अहिल्याबाई
सुप्रसिद्ध कवि व विद्वान खुशालीराम ने ‘अहिल्या कामधेनु’ नामक ग्रंथ में लिखा है-
नित्यं सा ददादि दान देव ब्राह्मण पूजकान्।
काल॑ व्यत्येति सा सम्यग् धर्ममार्गपरायणा ॥
वे सदा देव, ब्राह्मण और पुजारियों को दान देती थीं तथा धर्म कार्यो में अपना समय बिताती थीं। मराठी के सुप्रसिद्ध कवि मोरापन्त कहते हैं –
देवी अहिल्याबाई। झालीस जगतत्रयांत तू धन्या।
न न्याय-धर्म-निरता अन्या कलिमाजि ऐकिली कन्या॥
अर्थात हे देवी अहिल्याबाई। तुम तीनों लोकों में धन्य -हो। कलियुग में तुम्हारे जैसी न्या यी और धर्मपरायण अन्य नारी देखी-सुनी नहीं गई। स्काटलैंड की कुमारी जोना बेली नाम की एक सुप्रसिद्ध कवयित्री ने लिखा है कि अहिल्याबाई ने तीस वर्ष तक शांतिपूर्वक राज किया। उनके समय में राज्य का ऐश्वर्य बढ़ता ही गया। प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने तथ्यों के आधार पर देवी को इतिहास की एक महान महिला माना है।
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