महाराणा प्रताप: हिंदुओं के शौर्य और स्वाभिमान के देदीप्यमान आदित्य
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महाराणा प्रताप: हिंदुओं के शौर्य और स्वाभिमान के देदीप्यमान आदित्य

महाराणा प्रताप का हल्दीघाटी युद्ध केवल विजय नहीं, भारत की अस्मिता और स्वतंत्रता का प्रतीक है। जानिए कैसे महाराणा प्रताप को देखकर भाग खड़ी अकबर की सेना...

by डॉ आनंद सिंह राणा
May 29, 2025, 05:00 am IST
in भारत, आजादी का अमृत महोत्सव
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“फीका पड़ता था तेज सूरज का, जब तू माथा ऊँचा करता था। थी तुझमें कोई बात राणा, अकबर भी तुझसे डरता था।।

भगवान् एकलिंग नाथ के दीवान महामहारथी राणा कीका (महाराणा प्रताप) हिन्दू धर्म ध्वज रक्षक, हिंदुत्व के सूर्य, भारतीय स्वतंत्रता, स्वाभिमान और शौर्य के प्रतीक के रुप शिरोधार्य हैं। महाराणा प्रताप मुगलों के लिए यमराज की भाँति थे, इसलिए धूर्त और लंपट अकबर के लिए भय का पर्याय बन गए थे। इतिहास गवाह है कि भयाक्रांत धूर्त अकबर कभी युद्ध के लिए राणा कीका के सामने नहीं आया। इतिहास में प्रचलित आंग्ल पंचांग के अनुसार महाराणा प्रताप की जयंती 9 मई को होती है परंतु तिथि अनुसार ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष, तृतीया आज 29 मई मनाई जा रही है।

राणा कीका की गौरवशाली गाथा इस उपाख्यान के उल्लेख के बिना अधूरी है, जिसमें बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज (पीथल) और महाराणा के मध्य स्वाभिमान को लेकर काव्यात्मक संवाद होता है और यह संवाद स्वाभिमान की पराकाष्ठा का दुर्लभ दृष्टांत है,जो अनादि काल तक हिंदुओं के लिए मार्गदर्शी रहेगा।

राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि में अनेक ऐसे वीरों और वीरांगनाओं ने जन्म लिया है जिनके एक हाथ में तलवार रही, तो दूसरे हाथ में कलम! अकबर के दरबार में रहते हुए पृथ्वीराज राठौड़ अकबर के सबसे बड़े शत्रु महाराणा प्रताप के परमभक्त थे। एक दिन अकबर ने उन्हें बताया कि महाराणा प्रताप उसकी अधीनता स्वीकार करने को राजी हो गये है, तब उन्होंने अकबर से कहा कि यह नहीं हो सकता, यह खबर झूंठ है, यदि आज्ञा हो तो मैं पत्र लिखकर सच्चाई का पता कर लूँ।

इस तरह उन्होंने तथाकथित बादशाह की अनुमति लेकर उसी समय निम्नलिखित दो दोहे बनाकर महाराणा के पास भेजे—

पातल जो पतसाह, बोलै मुख हूंतां बयण ।
मिहर पछम दिस मांह, ऊगे कासप राव उत॥1॥

पटकूं मूंछां पाण, के पटकूं निज तन करद।
दीजे लिख दीवाण, इण दो महली बात इक’॥2 ॥

आशय- महाराणा प्रतापसिंह यदि अकबर को अपने मुख से बादशाह कहे तो कश्यप का पुत्र (सूर्य) पश्चिम में उग जावे अर्थात् जैसे सूर्य का पश्चिम में उदय होना सर्वथा असम्भव है वैसे ही आप (महाराणा) के मुख से बादशाह शब्द का निकलना भी असम्भव है।
हे! दीवाण (महाराणा) मैं अपनी मूंछों पर ताव दूँ अथवा अपनी तलवार का अपने ही शरीर पर प्रहार करूं, इन दो में से एक बात लिख दीजिये।

इन दोहों का उत्तर महाराणा ने इस प्रकार दिया—

तुर्क कहासी मुखपती, इणू तन सूं इकलिंग।
ऊगै जांही ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥1 ॥

खुसी हूंत पीथल कमध, पटको मूंछां पाण।
पछटण है जेतै पतौ, कलमाँ सिर केवाण ॥2 ॥

सांग मूंड सहसी सको, समजस जहर सवाद।
भड़ पीथल जीतो भलां बैण तुरक सुं वाद ॥3 ॥

आशय- (भगवान) ‘एकलिंगजी’ इस शरीर से (प्रतापसिंह के मुख से) तो बादशाह को तुर्क ही कहलवाएंगे और सूर्य का उदय जहाँ होता है वहाँ ही पूर्व दिशा में होता रहेगा।

हे वीर राठौड़ पृथ्वीराज ! जब तक प्रतापसिंह की तलवार यवनों के सिर पर है तब तक आप अपनी मूंछों पर खुशी से ताव देते रहिये।
(राणा प्रतापसिंह) सिर पर सांग का प्रहार सहेगा, क्योंकि अपने बराबर वाले का यश जहर के समान कटु होता है। हे! वीर पृथ्वीराज! तुर्क (बादशाह) के साथ के वचनरूपी विवाद में आप भलीभांति विजयी हों।

अंत में पीथल को यह भी सन्देश भेजा

“बादलों में वो दम कहां जो सूर्य को रोक सके।

शेर की मार सह सके ऐसे सियार ने कभी जन्म नहीं लिया।

धरती का पानी पीने के लिए चातक की चोंच बनी ही नहीं है।

और कुत्ते की तरह जीवन जीने वाले हाथी(अकबर) की बात मैंने सुनी ही नहीं है।

और एक शेर कभी गीदड के आगे झुक सकता नहीं है”।

इतिहास, इतिहास को दोहराता है, और इस दृष्टि से वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लव जिहाद की आड़ में इस्लामिक स्टेट की जो अवधारणा है वही अवधारणा प्रकारांतर से मध्यकाल में भारत में देखी जा सकती हैं।

वर्तमान में प्रचलित लव जिहाद की आड़ इस्लामिक स्टेट की अवधारणा में अनेक मनोवैज्ञानिक पहलू हैं परंतु मध्यकाल में लव जिहाद की आड़ में इस्लामिक स्टेट की अवधारणा का मनोवैज्ञानिक पहलू भय था। तथाकथित सल्तनत काल में अलाउद्दीन खिलजी ने रानी पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए लव जिहाद का उद्घोष किया था परंतु उसका राणा रतन सिंह ने माकूल जवाब दिया था और रानी पद्मावती के साथ हजारों वीरांगनाओं ने जौहर कर नारी अस्मिता की रक्षा की थी।

अकबर ने राजपूताना में पूतना के रुप में प्रवेश किया था और लव जिहाद की आड़ में इस्लामिक स्टेट की स्थापना करना उदेश्य से घुसपैठ की थी परंतु महाराणा प्रताप ने लंपट अकबर के मंसूबों पर पानी फिर दिया।

यहाँ अकबर के बारे में लव जेहादी शब्द का प्रयोग उस भाव के रुप में हुआ है जिसका खुलासा कम ही हुआ है।अब देखिए न समकालीन लेखक अब्दुल कादिर बदायूंनी बताता है कि अकबर के हरम में 5 हजार औरतें थीं और देखें 300 बेगमों के साथ ढेर सारी रखैलें भी थीं।

यहाँ तक कि अकबर ने तो अपने संरक्षक पितृ तुल्य बैरम खान की पत्नी सलीमा बेगम को भी अपनी पत्नी बना लिया था। ऐसा था तथाकथित अकबर महान्..!!!

अकबर राजपूताना के साथ मैत्री पूर्ण संबंधों की आड़ में अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा की प्रतिपूर्ति करना चाहता था, इसलिए उनसे कन्या लेकर वैवाहिक संबंध स्थापित करना आरंभ किया था। हल्दीघाटी के युद्ध के विविध कारण हैं परंतु उनमें से एक प्रमुख कारण यह भी है कि महाराणा प्रताप अन्य राजाओं की तरह अपने कुल की कन्याओं को समर्पित करने तैयार न थे।

अकबर ने इस्लामिक स्टेट की अवधारणा को लेकर संपूर्ण भारत में कहर बरपा दिया था और इसी संदर्भ में महाराणा प्रताप के पास 4 बार मैत्रीपूर्ण संधि करने के लिए अकबर ने विभिन्न राजदूत मंडल भेजें, परंतु महाराणा प्रताप, अकबर के कुचक्र को समझते थे इसलिए अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता और अस्मिता के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहते थे। अतः युद्ध होना अवश्यंभावी हो गया था।

18 जून सन् 1576 को प्रातः 8 बजे हल्दीघाटी में भयंकर मोर्चा खुल गया। महाराणा प्रताप अग्रिम दस्ते ने हाकिम सूर के निर्देशन में और दूसरी ओर दक्षिण पक्ष के नायक राजा रामशाह ने मुगलों पर भयानक हमला किया। मुगल सेना को खमनौर तक जमकर खदेड़ा, मुगल और कछवाहा राजपूत सैनिक भेड़ों की झुंड की भांति भाग निकले।

मुगल सेनानायक गाजी खां मुल्ला चिल्लाता हुआ भागा कि “घोर आपत्ति के समय भाग जाना मोहम्मद साहब की उक्तियों में से एक है” महाराणा के प्रथम आक्रमण के तीव्र वेग से ही मुगलों की पीठें मुड़ गईं। अब्दुल कादिर बदायूंनी ने जो स्वयं रण क्षेत्र में विद्यमान था, अपनी पुस्तक मुन्तखब – उत-तवारीख में लिखा है कि “हमारी जो फौज पहिले हमले में ही भाग निकली थी वह बनास नदी को पार कर पांच-छह कोस तक भागती रही।”

युद्ध भयानक हो उठा था। पुन:शहजादा सलीम, मान सिंह, सैय्यद बारहा और आसफ खान ने मोर्चा संभाला। शहजादा सलीम और मान सिंह की रक्षार्थ 20 हाथियों ने घेराबंदी कर रखी थी। घेराबंदी तोड़ने के लिए राणा प्रताप ने रामप्रसाद को आगे बढ़ाया अपरान्ह लगभग 12.30 बजे हाथियों का घमासान युद्ध हुआ। शस्त्रों से सुसज्जित रामप्रसाद ने भयंकर रौद्र रुप धारण किया अकबर के 13 हाथियों को अकेले रामप्रसाद ने मार डाला और 7 हाथियों को मोर्चे से हटा दिया गया। इस तरह राणा प्रताप के लिए रामप्रसाद ने शहजादा सलीम और मानसिंह तक पहुंचने का मार्ग खोल दिया।

महाराणा प्रताप ने शहजादा सलीम पर भयंकर आक्रमण किया, महावत मारा गया और हौदे पर जबरदस्त भाले का प्रहार किया, शहजादा सलीम नीचे गिर गया जिसे बचाने मान सिंह आया परिणाम स्वरूप मान सिंह की भी वही दुर्गति हुई। शहजादा सलीम और मान सिंह युद्ध भूमि से पलायन कर गए। सैय्यद बारहा और आसफ खां पर राणा पूंजा (पूंजा भील) ने घात लगाकर हमला किया फलस्वरूप मुगल सेना हल्दीघाटी से पलायन कर गई और महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी का युद्ध जीत लिया।

परंतु दूसरी ओर रामप्रसाद ने शेष हाथियों का पीछा किया और आगे निकल गया परंतु थकान अधिक हो गई थी और महावत भी मारा गया तब 7 हाथियों और 14 महावतों की सहायता से पकड़ा गया। अकबर के इस युद्ध का एक कारण रामप्रसाद हाथी की प्राप्ति भी करना था, परंतु सब व्यर्थ गया अकबर ने इसका नाम पीरप्रसाद रखा और हर प्रकार के मनपसंद खाद्यान्न प्रस्तुत किए परंतु रामप्रसाद ने ग्रहण नहीं किया और इसी अवस्था में 18 दिन बाद रामप्रसाद ने प्राणोत्सर्ग किया।

धूर्त अकबर ने स्वयं रामप्रसाद की मृत्यु पर कहा कि “जिसके हाथी को मैं नहीं झुका सका.. उसके स्वामी को क्या झुका सकूंगा”। चेतक के महान् योगदान और बलिदान ने उसे विश्व का महानतम घोड़ा बनाया है।

18 जून सन् 1576 में हल्दीघाटी घाटी का युद्ध मध्य काल में भारत की स्वतंत्रता और स्वाभिमान का विजय दिवस है। रक्ततलाई (हल्दीघाटी का युद्ध) का युद्ध भारत वर्ष की आन-बान-शान, स्वतंत्रता और स्वाभिमान का प्रतीक है।

हल्दीघाटी भारतीयों के शौर्य और स्वाभिमान की विजय का सर्वाधिक पवित्र तीर्थ है। 18 जून 1576 को महाराणा प्रताप की ओर से न केवल राजपूतों वरन् सभी जातियों के सर्वोत्तम योद्धाओं के रक्त से इस पवित्र भूमि का तिलक हुआ था, जबकि वर्णसंकर मुगलों के रक्त से भूमि अपवित्र हुई और चगताई तुर्कों (मुगलों) को मैदान छोड़कर भागने पड़ा, जिसकी सजा चालाक अकबर ने मान सिंह और आसफ खाँ को दी।

नवीन शोधों और तत्कालीन समय के जमीन के पट्टे तथा अन्य साक्ष्य महाराणा प्रताप की विजय को प्रमाणित करते हैं। हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने 18 युद्ध जीते और 25 वर्ष तक संघर्ष कर मुगलों को धराशायी कर दिया। इसलिए राजस्थान की माताओं के लिए ये दो पंक्तियाँ कंठहार बन गयीं।

“माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राणा प्रताप।

अकबर सूतो ओझकै, जाण सिराणै साँप॥

(हे माता ऐसे पुत्रों को जन्म दे, जैसा राणा प्रताप है। जिसको अकबर सिरहाने का साँप समझ कर सोता हुआ चौंक पड़ता है)

वामपंथी इतिहासकारों, पाश्चात्य इतिहासकारों, इन पर एक दल विशेष के समर्थक परजीवी इतिहासकारों ने गहरी साजिश रची और हल्दीघाटी के युद्ध को अनिर्णायक बता दिया तो कुछ ने मुगलों को ही जिता दिया, और पाठ्य पुस्तकों में ठूंस दिया, अब हटाना है, जबकि सच आपके सामने है।

महाराणा प्रताप के बारे पंडित नरेंद्र मिश्रा ने गागर में सागर भरते हुए कितना सार्थक लिखा है कि,

” राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।
 राणा प्रताप आज़ादी का, अपराजित काल विधायक है।।

वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।
    आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ सूर्य।।

राणा प्रताप की खुद्दारी, भारत माता की पूंजी है।
    ये वो धरती है जहां कभी, चेतक की टापें गूंजी है।।

पत्थर-पत्थर में जागा था, विक्रमी तेज़ बलिदानी का।
    जय एकलिंग का ज्वार जगा, जागा था खड्ग भवानी का।।

लासानी वतन परस्ती का, वह वीर धधकता शोला था।
    हल्दीघाटी का महासमर, मज़हब से बढकर बोला था।।

 राणा प्रताप की कर्मशक्ति, गंगा का पावन नीर हुई।
    राणा प्रताप की देशभक्ति, पत्थर की अमिट लकीर हुई।।

 समराँगण में अरियों तक से, इस योद्धा ने छल नहीं किया।
    सम्मान बेचकर जीवन का, कोई सपना हल नहीं किया।।

मिट्टी पर मिटने वालों ने, अब तक जिसका अनुगमन किया।
    राणा प्रताप के भाले को, हिमगिरि ने झुककर नमन किया।।

प्रण की गरिमा का सूत्रधार, आसिन्धु धरा सत्कार हुआ।
    राणा प्रताप का भारत की, धरती पर जयजयकार हुआ।।

(डिस्क्लेमर : स्वतंत्र लेखन। यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, आवश्यक नहीं कि पाञ्चजन्य उनसे सहमत हो।)

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