गत माह पंजाब पुलिस के जवानों द्वारा सैनिक अधिकारी कर्नल पुष्पिंदर सिंह बाठ व उनके बेटे के साथ मारपीट के मामले में पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय ने कड़ा रुख दिखाते हुए आरोपी पुलिस वाले की जमानत याचिका खारिज कर दी। न्यायाधीश अनूप चितकारा ने कड़े और भावनात्मक अंदाज में पुलिसिया बर्बरता की निंदा की। उन्होंने कहा कि यह मामला सिर्फ एक अधिकारी के साथ मारपीट का नहीं, बल्कि यह राज्यसत्ता के प्रतिनिधि माने जाने वाले पुलिस कर्मियों द्वारा देश की सुरक्षा में लगे सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी के आत्मसम्मान और उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाने का मुद्दा बन गया।
हाईकोर्ट ने माना कि यह हमला मात्र गाड़ी हटाने की बात पर नहीं हुआ, बल्कि इसका उद्देश्य अपमानित करना, डर पैदा करना और सत्ता का अत्याचार दिखाना था। यहां तक कि कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर एक सेना का वरिष्ठ अधिकारी खुद को पहचानने के बावजूद पीटा जाता है, तो यह पूरी व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
कोर्ट ने इस पर भी गहरी नाराजगी जाहिर की कि एफआईआर दर्ज करने में आठ दिन का विलंब क्यों हुआ, जबकि ढाबा मालिक की एक हल्की शिकायत पर उसी दिन झगड़े की एफआईआर दर्ज कर ली गई थी, लेकिन कर्नल की गंभीर शिकायत को नजरअंदाज किया गया। यह दर्शाता है कि पुलिस किस हद तक अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रही है। आरोपियों ने बाद में खुद को निर्दोष दिखाने के लिए एक निजी अस्पताल से चोटों की मेडिकल रिपोर्ट बनवाई, जिसे कोर्ट ने साक्ष्य से छेड़छाड़ और प्रभाव के दुरुपयोग की संज्ञा दी।
हाईकोर्ट ने कहा कि यह हमला पूरी तरह से असंवेदनशीलता, क्रूरता और सत्ता के घमंड का परिणाम था। यह सामान्य मारपीट नहीं थी, बल्कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम नागरिक की गरिमा और सुरक्षा पर हमला था। हाईकोर्ट ने न केवल अग्रिम जमानत याचिका खारिज की, बल्कि इस पूरी घटना को भारतीय पुलिस तंत्र के भीतर फैली उस बीमारी का लक्षण बताया जिसे अगर समय रहते रोका नहीं गया तो इसका असर लोकतंत्र की नींव पर पड़ेगा।
जस्टिस चितकारा ने अपने आदेश में दो टूक शब्दों में लिखा कि अदालतें ऐसे बर्ताव को नजरअंदाज नहीं करेंगी और पुलिस में बैठे ऐसे अधिकारी, जो कानून को अपने हाथ में लेकर नागरिकों को डराने का काम करते हैं, उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही होनी चाहिए।
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