वर्षों के गहन शोध और चिंतन का परिणाम, ‘दि हिंदू मेनिफेस्टो’ पुस्तक का आज दिल्ली में औपचारिक विमोचन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत, पहलगाम के क्रूर आतंकी हमले में मृतकों को श्रद्धांजलि स्वरूप दो मिनट के मौन के साथ हुई।
डॉ. प्रेरणा मल्होत्रा, हिंदू अध्ययन केंद्र की संयुक्त निदेशक, ने लेखक स्वामी विज्ञानानंद जी का परिचय कराया। उन्होंने स्वामी जी को आदि शंकराचार्य के पदचिह्नों पर चलने वाले और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आधुनिक परंपरा का अनुसरण करने वाले तपस्वी के रूप में प्रस्तुत किया। ‘दि हिंदू मेनिफेस्टो’ अनेक पवित्र ग्रंथों और संदर्भ पुस्तकों के गहन अध्ययन का परिणाम है, जो विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता के पुनर्जागरण के लिए एक प्रभावी मार्गदर्शक के रूप में कारगर सिद्ध होगी।
स्वामी विज्ञानानंद ने अपने उद्बोधन में बताया कि यह पुस्तक प्राचीन भारतीय ज्ञान को समकालीन समय के अनुसार पुनर्परिभाषित करती है। उन्होंने कहा कि हिंदू चिंतन परंपरा सदा से समयानुकूल समाधान प्रस्तुत करती रही है, जबकि उसकी जड़ें सनातन सिद्धांतों में स्थापित हैं जिन्हें ऋषियों ने सूत्रों के माध्यम से व्यक्त किया है।
‘दि हिंदू मेनिफेस्टो’ के आठ मूल सूत्र हैं — सभी के लिए समृद्धि, राष्ट्रीय सुरक्षा, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, उत्तरदायी लोकतंत्र, महिलाओं का सम्मान, सामाजिक समरसता, प्रकृति की पावनता, मातृभूमि और विरासत के प्रति श्रद्धा ।
स्वामी विज्ञानानंद जी ने कहा कि हिंदू परंपरा पश्चिमी पूंजीवाद या समाजवाद के बजाय एक संतुलित आर्थिक मॉडल का समर्थन करती है, जिसमें संपत्ति सृजन और न्यायपूर्ण वितरण दोनों का महत्व है। उन्होंने बल दिया कि सच्चा धर्म केवल क्षमा नहीं, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रु का संहार करने की भी शिक्षा देता है — जिसकी उपेक्षा से अतीत में भारी क्षति हुई।
उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में औपनिवेशिक काल में भारतीय प्रणाली के विनाश की चर्चा करते हुए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की अनिवार्यता पर बल दिया। स्वामी जी ने हिंदू सभ्यता के उत्तरदायी शासन और जनभागीदारी आधारित दृष्टिकोण को भी रेखांकित किया। हिंदू सभ्यता जन भागीदारी के साथ उत्तरदायी शासन की संस्तुति करती है तथा शासकों के प्रति निष्क्रिय स्वीकृति की मानसिकता को अस्वीकार करती है।
पुस्तक का दूसरा भाग सभ्यतागत पुनर्जागरण की रूपरेखा प्रस्तुत करता है — जिसमें महिलाओं की सुरक्षा व गरिमा (जैसे द्रौपदी से प्रेरणा), धर्म आधारित जाति और वर्ण की सही परिभाषा समझने वाला भेद रहित समाज, प्रकृति के प्रति गहन श्रद्धा, और भारत की पावन भूमि एवं सांस्कृतिक एकता के प्रति सम्मान जैसे विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
जीवन के सार्वभौमिक सत्य और आध्यात्मिक चेतना का सजीव रूप है धर्म
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने अपने संबोधन में कहा कि भौतिकतावादी विकास के पश्चिमी मॉडल विफल रहे हैं और उन्होंने असंतोष व पर्यावरणीय संकट को जन्म दिया है। उन्होंने भारत के सभ्यतागत दृष्टिकोण को “तीसरे मार्ग” के रूप में प्रस्तुत किया — एक ऐसा मार्ग जो भौतिक और आध्यात्मिक कल्याण का संतुलन बनाता है। उन्होंने कहा कि विश्व को मार्गदर्शन देने से पहले हिंदुओं को स्वयं ‘दि हिंदू मेनिफेस्टो’ में उल्लेखित सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारना होगा।
डॉ. भागवत ने स्मरण कराया कि ऐतिहासिक काल में भारत का प्रभाव बिना आक्रामकता के फैला था, लेकिन बाद में आत्मसंतोष और संकीर्णता ने धर्म के मूल्यों की उपेक्षा करवाई। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि हाल ही में उडुपी में एकत्रित संतों ने पुनः स्पष्ट किया कि किसी भी प्रकार का भेदभाव धार्मिक मान्यता में स्वीकार्य नहीं है।
डॉ. भागवत ने कहा कि यह पुस्तक धर्म के वास्तविक स्वरूप — जो सार्वभौमिक सच्चाइयों और आध्यात्मिक चेतना पर आधारित है — को पुनः जागृत करने का प्रयास करता है। उन्होंने बल दिया कि धर्म केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन के सार्वभौमिक सत्य और आध्यात्मिक चेतना का सजीव रूप है। डॉ. भागवत ने ‘दि हिंदू मेनिफेस्टो’ को हिंदुओं के लिए एक अनिवार्य संदर्भ पुस्तक बताया और विद्वानों, शोधकर्ताओं और आम नागरिकों से इसका गंभीरता से अध्ययन करने का आह्वान किया।
सच्ची शिक्षा ज्ञान और बुद्धिमत्ता का संतुलन
दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. योगेश सिंह ने कहा कि सच्ची शिक्षा ज्ञान और बुद्धिमत्ता का संतुलन है। उन्होंने कहा कि एक सशक्त राष्ट्र के लिए मजबूत कोष और रक्षा तंत्र आवश्यक है। राष्ट्रीय वाल्मीकि मंदिर के महंत स्वामी कृष्णशाह विद्यार्थी ने कहा कि यह पुस्तक हमारे धार्मिक चिंतन का सार समेटे हुए है और परिवर्तनकारी भूमिका निभाएगा।
टिप्पणियाँ