किसी भी परिपक्व लोकतंत्र में सुधार को गहन जांच की आवश्यकता होती है। जब उसे चुनौती दी जाती है, तो संवैधानिक ढांचे के माध्यम से उससे निबटने की अपेक्षा की जाती है। आज भारत में वक्फ संशोधन कानून के विरोध के नाम पर जो हो रहा है, वह नागरिक असहमति नहीं है। यह सावधानीपूर्वक चलाया जा रहा एक ‘संगठित विद्रोह’ है। नए कानून पर बहस की बजाए हम भीड़ द्वारा संचालित हिंसा, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और खुलेआम उकसावे को देख रहे हैं। यह सब एक सामंती व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया जा रहा है, जो गलत सूचना, पहचान की राजनीति और निर्मित आक्रोश पर पनपती है।

प्रख्यात टिप्पणीकार
दरअसल, वक्फ कानून में संशोधन से गैर-जिम्मेदार मौलवियों, राजनीतिक लाभार्थियों और भू-माफिया के बीच स्थापित गठजोड़ को खतरा पैदा हो गया है, जो दशकों से अपारदर्शी सत्ता संरचनाओं को बचाने के लिए मजहबी भावनाओं का शोषण करते रहे हैं। संशोधित कानून संपत्ति पर वक्फ बोर्ड के मनमाने दावों पर अंकुश लगाने के साथ-साथ वक्फ लेन-देन में पारदर्शिता लाने और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा भी करेगा। लेकिन इस तर्कसंगत और अत्यंत आवश्यक विधायी सुधार को ‘सांप्रदायिक विवाद’ में बदलने के प्रयास किए जा रहे हैं।
वास्तव में, वक्फ कानून में संशोधन एक साहसपूर्ण कदम है, जो गहरी सड़ांध को उजागर करता है। पूर्ववर्ती सरकारों ने वक्फ कानूनों को छूने का साहस नहीं किया था। दशकों तक इन कानूनों को जान-बूझकर चुनौती नहीं दी और न्याय के बजाय वोट बैंक की राजनीति को चुना। वक्फ बोर्ड को ऐसे अधिकार दिए, जिन पर कोई नियंत्रण नहीं था। विडंबना यह रही कि वक्फ को जिन गरीब व हाशिए पर पड़े लोगों की सेवा करनी थी, उन्हें ही व्यवस्थित तरीके से बाहर रखा गया। इस यथास्थिति को तोड़ने के लिए असाधारण राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता थी। इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार स्पष्ट रूप से प्रशंसा की पात्र है। इस सरकार ने सुविधाजनक चुप्पी ओढ़ने के बजाए कठिन मार्ग वाले सत्य को चुना। तुष्टीकरण की बजाए न्याय को महत्व दिया और ढुलमुल कदम उठाने के बजाए संवैधानिक सुधार का मार्ग चुना। यह कानून महज नीतिगत बदलाव नहीं, बल्कि एक नैतिक सुधार है।
नए कानून की विशेषताएं
- नया कानून बिना किसी उचित प्रक्रिया के निजी या सार्वजनिक भूमि को मनमाने ढंग से वक्फ संपत्ति घोषित करने पर रोक लगाता है।
- यह वक्फ बोर्डों के कामकाज में अधिक जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।
- यह नागरिकों को सशक्त बनाता है, जिसमें मुसलमान भी शामिल हैं, जिनकी भूमि जबरन या गलत तरीके से वक्फ संपत्ति घोषित कर दी गई।
- यह कानून सुनिश्चित करता है कि वक्फ भूमि का उपयोग वास्तविक कल्याण के लिए हो, न कि राजनीति से जुड़े अभिजात्य वर्ग की विलासिता के लिए।
यह कोई सांप्रदायिक कानून नहीं है, बल्कि एक पंथनिरपेक्ष और संवैधानिक सुधार है। यही वह बात है, जो उन लोगों के लिए खतरा है, जिन्होंने वर्तमान वक्फ प्रबंधन की अराजकता और अस्पष्टता पर अपना प्रभाव बनाया है। वक्फ कानून में संशोधन मामले का सांप्रदायीकरण कट्टरपंथी मुल्ला-मौलवियों, अवसरवादी राजनीतिक दलों और भू-माफियाओं के एक गिरोह द्वारा किया जा रहा है, जिन्हें वक्फ बोर्डों को जवाबदेह बनाए जाने पर सबसे अधिक नुकसान होगा।
मौलाना तौकीर रजा खान का ही उदाहरण लें। तौकीर रजा ने हाल ही में मुसलमानों से कहा कि अगर सरकार वक्फ संशोधन को वापस नहीं लेती तो ‘दूसरे विभाजन के लिए तैयार रहे’। यह विरोध नहीं है, बल्कि देशद्रोही उकसावा है। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के एक कैबिनेट मंत्री ने खुलेआम कोलकाता को ‘लाखों मुसलमानों’ से भर देने की धमकी दी, जो साफ तौर पर घेराबंदी की धमकी थी।
दरअसल, एक सरकारी विधेयक के विरुद्ध शुरू हुआ यह कथित विरोध अब सड़कों पर हिंदू विरोधी हिंसा, शोभायात्राओं पर हमले और सांप्रदायिक प्रतिशोध के खुले आह्वान में बदल गया है। अगर ऐसा नहीं है तो हनुमान जयंती के दौरान हिंदुओं पर हमला क्यों किया गया? इसकी कड़ियांं विचारधारा से नहीं, बल्कि राजनीति से जुड़ी हुई हैं।
इस हिंदू विरोधी आक्रामकता का इस्तेमाल भावनाओं को भड़काने, समाज को विभाजित करने और इस तथ्य से ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा है कि संशोधन वक्फ तंत्र के भीतर वर्षों से चले आ रहे कुलीन मुस्लिम कुशासन को उजागर करता है।
अराजकता की ओर पश्चिम बंगाल
मुर्शिदाबाद, हावड़ा और मालदा में हिंसा स्वत: स्फूर्त नहीं है। इसे एक ऐसे शासन द्वारा बढ़ावा दिया जा रहा है और संभवतः प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिसने तुष्टीकरण को ही राजकाज बना दिया है। कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा की गई आगजनी, हिंदुओं के घरों पर हमले और हिंदू त्योहारों के दौरान हुए दंगों पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की चुप्पी बहुत कुछ कहती है। वे शांति का आह्वान करने के बजाय, ‘अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न’ की निंदा करना पसंद करती हैं, मानो राज्य की बसों और मंदिरों को आग लगाना असहमति की वैध अभिव्यक्ति हो।
पश्चिम बंगाल के लिए यह कोई नई बात नहीं है। 2021 में चुनावों के बाद बड़े पैमाने पर हिंदू विरोधी हिंसा भड़की, जिसके कारण हजारों हिंदू विस्थापित हो गए। इसी तरह, ममता सरकार ने 2016 में मुहर्रम के दौरान दुर्गा प्रतिमा विसर्जन पर प्रतिबंध लगा दिया था। ममता बनर्जी ने संवैधानिक शासन की बजाए हर बार मजहबी तुष्टीकरण के माध्यम से राजनीतिक अस्तित्व को चुना है। आज पश्चिम बंगाल संवैधानिक पतन के कगार पर खड़ा एक असफल राज्य जैसा दिखता है। इसलिए राष्ट्रपति शासन अब कोई राजनीतिक विकल्प नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आवश्यकता लगता है।
यहां विरोध प्रदर्शन जिहादी भीड़तंत्र का बहाना बन गया है। वक्फ संशोधन कानून के विरोध को राष्ट्रविरोधी तत्वों ने हाईजैक कर लिया है। जब भीड़ शोभायात्राओं पर हमले करती है, धार्मिक ध्वजों का अपमान करती है, सरकारी संपत्ति को जलाती है और शहरों में बड़े पैमाने पर अशांति की धमकी देती है, तो यह उत्पात भूमि अधिकारों से जुड़ा प्रदर्शन कैसे हो सकता है? यह तो राज्य को कमजोर करने का प्रयास है। ये सब मजहब द्वारा नहीं, राजनीतिक अर्थव्यवस्था द्वारा संचालित हैं, जो अराजकता पर निर्भर करती है। कुल मिलाकर, मजहब का उपयोग एक लामबंदी उपकरण के रूप में किया जा रहा है, जो आस्था के लिए नहीं, बल्कि नियंत्रण के लिए है।
पर्दे के पीछे काैन ?
खासतौर से, पूरे प्रकरण में विपक्ष की भूमिका शर्मनाक है। केंद्र में सत्ता से वंचित होने के कारण विपक्षी चुनावों में प्रासंगिक बने रहने के लिए अराजकता पर उतर आए हैं। कांग्रेस, एआईएमआईएम, सपा, टीएमसी और वामपंथी दल दंगों के जरिए वोट बैंक बनाने के लिए ‘अल्पसंख्यकों के डर’ को हथियार बना रहे हैं। वे वही कर रहे हैं जो अंग्रेजों ने किया था, ‘फूट डालो और राज करो’। फर्क इतना है कि इस बार यह मजहब बनाम राष्ट्र है।
उनका संदेश स्पष्ट है: ‘अगर हम संसद में सरकार को नहीं हरा सकते, तो सड़क के जरिए देश को अस्थिर करेंगे।’ विरोध करना अधिकार हो सकता है, लेकिन आगजनी करना नहीं। असहमति एक कर्तव्य हो सकता है, दंगा नहीं। हर भारतीय को राज्य से सवाल करने का अधिकार है, लेकिन किसी भी भारतीय को राष्ट्र की शांति को खतरे में डालने का अधिकार नहीं है। हम जो देख रहे हैं, वह ‘दबे-कुचले’ लोगों की आवाज नहीं है। यह निहित स्वार्थों का शोर है, जो एक समुदाय विशेष को एक निर्मित युद्ध में घसीटने की कोशिश कर रहे हैं।
अब समय आ गया है कि भारतीय मुस्लिम समुदाय, विशेषकर युवा वर्ग इस छल-कपट को पहचाने। वक्फ संशोधन कानून उनका दुश्मन नहीं है। उनके असली दुश्मन वे कठमुल्ले हैं, जो उनकी आस्था का शोषण करते हैं और सेकुलर राजनेता उनके आक्रोश को भुनाते हैं। इसलिए मुस्लिम युवाओं को उनके लिए लड़ना और उनके राजनीतिक स्वार्थ के लिए जान देना बंद करना होगा। नया वक्फ कानून न्याय दिलाने के लिए है, लेकिन हिंसा के माध्यम से इसे वापस लेने का दबाव बनाने की कोशिशें हो रही हैं। इसलिए यह मुस्लिम युवाओं पर निर्भर है कि वे राष्ट्र के रूप में क्या चुनेंगे- सुधार और एकता या हिंसा और विभाजन। वर्तमान सरकार ने साहस, संवैधानिकता और स्पष्टता का रास्ता चुना है, जो दशकों से गायब था। अब यह लोगों पर निर्भर है कि वे उस संकल्प के पीछे खड़े हों और हिंसक व्यवधान को उचित सुधार पर हावी न होने दें। चुप रहने का समय गया। भारत को सत्य, न्याय और शांति के लिए खड़ा होना ही होगा।
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