प्रकृति ने हमें जो कुछ भी दिया है, वह जीवन को पोषित करने वाला है लेकिन आज का यथार्थ यह है कि वही प्रकृति अब धीरे-धीरे संकट में पड़ रही है। इसी संकट की ओर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित करने और पृथ्वी को संरक्षण प्रदान करने के लिए प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को ‘विश्व पृथ्वी दिवस’ मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य यही है कि हम अपनी पृथ्वी के संरक्षण के लिए वास्तविक और व्यावहारिक कदम उठाएं।
पृथ्वी दिवस का आयोजन कोई नया नहीं है। इसकी शुरुआत वर्ष 1970 में अमेरिका से हुई थी और आज यह विश्व के 190 से अधिक देशों में प्रतिवर्ष एक अरब से ज्यादा लोगों की भागीदारी वाला सबसे बड़ा नागरिक आंदोलन बन चुका है मगर इसके बावजूद पृथ्वी की हालत में सुधार के बजाय गिरावट ही नजर आ रही है। इस वर्ष पृथ्वी दिवस की वैश्विक थीम है ‘हमारी शक्ति, हमारा ग्रह’ (Our Power, Our Planet), जो इस ओर संकेत करती है कि अब समय आ गया है, जब हम सबको मिलकर समझना होगा कि पृथ्वी को बचाने की शक्ति स्वयं हमारे हाथों में है। यह शक्ति केवल सरकारों या पर्यावरण संस्थाओं तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए बल्कि यह हर नागरिक के कर्तव्यों में शामिल होनी चाहिए।
वैज्ञानिक चेतावनियां, नई-नई रिपोर्टें और वैश्विक जलवायु परिवर्तन के संकेत वर्षों से दिए जा रहे हैं, परंतु सामूहिक संकल्प और त्वरित कार्यवाही अब भी बेहद सीमित है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) और इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्टें इस दिशा में बेहद चिंताजनक संकेत दे रही हैं। आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट में स्पष्ट किया गया है कि यदि वैश्विक तापमान की वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया गया तो न केवल ध्रुवीय क्षेत्रों की बर्फ तेजी से पिघलेगी बल्कि वैश्विक समुद्र स्तर में इतनी वृद्धि होगी कि लाखों तटीय नगर जलमग्न हो जाएंगे।
इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले एक दशक में पृथ्वी की सतह का औसत तापमान पूर्व औद्योगिक काल की तुलना में लगभग 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और मौजूदा उत्सर्जन दर को देखते हुए हम 2030 तक यह वृद्धि 1.5 डिग्री के पार कर लेंगे। यह आंकड़ा केवल एक डिग्री वृद्धि का नहीं है बल्कि यह पूरे पारिस्थितिक संतुलन के टूटने का प्रतीक बन गया है।
इस वर्ष की शुरुआत में प्रकाशित वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की ‘स्टेट ऑफ द क्लाइमेट 2025’ रिपोर्ट के अनुसार, 2024 पृथ्वी के इतिहास का अब तक का सबसे गर्म वर्ष था और 2025 में इस रिकॉर्ड के और भी आगे बढ़ने की आशंका है। रिपोर्ट में चेताया गया है कि वैश्विक औसत तापमान 1.58 डिग्री तक पहुंच चुका है और यह वृद्धि अब अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी प्रवृत्ति का रूप ले रही है। पृथ्वी के कुछ हिस्सों में तापमान 45 से 50 डिग्री के बीच पहुंचने लगा है, जो सीधे जीवन और जीविका को खतरे में डाल रहा है।
भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, इंडोनेशिया जैसे घनी आबादी वाले देशों में मार्च-अप्रैल से ही लू और हीटवेव की घटनाएं रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच चुकी हैं। भारत के मौसम विभाग (आईएमडी) ने मार्च 2025 के दौरान दिल्ली, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में 8 से 12 दिनों तक लगातार चलने वाली हीटवेव की पुष्टि की है, जो सामान्य से तीन गुना अधिक है। पिछले दिनों प्रकाशित ‘ग्लोबल क्लाइमेट रिस्क इंडेक्स’ के अनुसार भारत दुनिया के उन 10 देशों में शामिल है, जो जलवायु परिवर्तन के खतरों से सर्वाधिक प्रभावित हो रहे हैं।
इस सूचकांक में बताया गया है कि पिछले दो वर्षों में भारत को जलवायु आपदाओं के कारण लगभग 120 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ है। सूखे, बाढ़, चक्रवात और गर्मी की लहरों ने न केवल खेती-किसानी बल्कि औद्योगिक उत्पादन, श्रम और जल संसाधनों पर भी गंभीर प्रभाव डाला है। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2023 में भारत में हीटवेव के कारण 11000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी और 2024 में यह संख्या 14500 के करीब पहुंच गई।
जैव विवधता बुरी तरह से प्रभावित
बढ़ते तापमान का गहरा असर जैव विविधता पर भी पड़ रहा है। संयुक्त राष्ट्र की जैव विविधता और पारिस्थितिकी सेवाओं पर अंतरसरकारी विज्ञान-नीति मंच (आईपीबीईएस) ने चेतावनी दी है कि यदि तापमान मौजूदा रफ्तार से बढ़ता रहा तो अगले तीन दशकों में पृथ्वी की लगभग 10 लाख प्रजातियां या तो विलुप्त हो जाएंगी या विलुप्ति के कगार पर पहुंच जाएंगी। अंटार्कटिका की बर्फ तेजी से पिघल रही है और ग्रीनलैंड की बर्फ की चादर का एक बड़ा हिस्सा पहले ही टूट चुका है। ‘नेचर जियोसाइंस’ में प्रकाशित एक नए शोध के अनुसार यदि तापमान में चार डिग्री की वृद्धि होती है तो अंटार्कटिका की बर्फ की 60 प्रतिशत से अधिक चादरें अस्थिर हो जाएंगी, जिससे समुद्र स्तर में औसतन दो मीटर की वृद्धि हो सकती है। इस तापमान वृद्धि का सामाजिक असर भी उतना ही भयावह है। अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी के एक ताजा अध्ययन में कहा गया है कि वैश्विक तापमान में प्रत्येक 1 डिग्री की वृद्धि से हिंसक घटनाओं में 7 प्रतिशत तक वृद्धि होती है।
अध्ययनकर्ताओं ने अफ्रीका, एशिया और अमेरिका के विभिन्न क्षेत्रों के आंकड़ों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला कि जलवायु परिवर्तन केवल एक भौतिकीय या पर्यावरणीय चुनौती नहीं है बल्कि यह समाजशास्त्रीय संकट में बदलता जा रहा है, जिससे सामाजिक असमानता, संघर्ष और पलायन जैसी समस्याएं विकराल रूप ले रही हैं। भारत में ही कई राज्य ऐसे हैं, जहां भीषण गर्मी के कारण निर्माण और कृषि क्षेत्र में कार्य दिवसों की संख्या में भारी गिरावट आई है। मैकिंसी ग्लोबल इंस्टिट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक केवल भारत में ही जलवायु परिवर्तन के कारण हर साल औसतन 15 प्रतिशत श्रम घंटों का नुकसान हो रहा है, जो 2030 तक बढ़कर 25 प्रतिशत हो सकता है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस ने पृथ्वी दिवस के अवसर पर अपने संदेश में स्पष्ट शब्दों में कहा है, ‘हम जलवायु संकट के किनारे पर नहीं बल्कि उसके बीच में हैं। हमारी सामूहिक शक्ति को पहचानने का यही समय है क्योंकि यह ग्रह हम सबका है और इसे बचाने की शक्ति भी हमारे ही पास है।’ उन्होंने अपील की है कि सभी देश अब कार्बन तटस्थता के लिए ठोस योजनाएं बनाएं और 2030 तक कोयले पर निर्भरता समाप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाएं। इसी दिशा में यूरोपीय संघ ने घोषणा की है कि वह 2027 तक अपने सभी सार्वजनिक परिवहन को शून्य-उत्सर्जन आधारित बनाएगा और 2030 तक सभी नए भवनों को कार्बन-न्यूट्रल करने की योजना पर कार्य कर रहा है।
विश्व आर्थिक मंच की ‘ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट’ में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता ह्रास और प्राकृतिक संसाधनों की कमी अब केवल पर्यावरणीय नहीं बल्कि आर्थिक स्थिरता और सुरक्षा का प्रश्न बन चुके हैं। रिपोर्ट के अनुसार अगले एक दशक में जलवायु जोखिम वैश्विक जीडीपी का 11 प्रतिशत तक निगल सकता है और यदि समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो इससे वैश्विक गरीबी रेखा के नीचे 20 करोड़ से अधिक लोग पुनः चले जाएंगे।
भारत सरकार ने भी 2025 में अपने अद्यतन राष्ट्रीय जलवायु कार्य योजना में 2070 तक नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य दोहराया है, साथ ही 2030 तक 500 गीगावाट अक्षय ऊर्जा उत्पादन की दिशा में भी ठोस पहल की है। जलवायु वित्त और तकनीकी सहायता के क्षेत्र में ‘इंटरनेशनल सोलर अलायंस’, ‘कोएलिशन फॉर डिजास्टर रेजिलिएंट इंफ्रास्ट्रक्चर’ जैसे भारत-नेतृत्व वाले वैश्विक मंचों की भूमिका बढ़ रही है परंतु आवश्यकता इस बात की है कि इन मंचों के विचारों को धरातल पर उतारने के लिए स्थानीय स्तर पर जनभागीदारी को भी उतना ही सशक्त बनाया जाए।
बहरहाल, विश्व पृथ्वी दिवस का संदेश यही है कि पृथ्वी केवल एक ग्रह नहीं है बल्कि यह हमारी पहचान, हमारी संस्कृति, हमारा भविष्य है और इसे बचाने की शक्ति हमारे ही पास है। यह शक्ति तकनीक में है, यह शक्ति नीति में है, यह शक्ति जनचेतना में है, आवश्यकता केवल उस शक्ति को जाग्रत करने की है। पृथ्वी दिवस कोई एक दिन का आयोजन नहीं बल्कि यह हर दिन की चेतावनी है कि जिस धरती पर हम सांस ले रहे हैं, वह हमारे हाथों से फिसल रही है। ‘हमारी शक्ति, हमारा ग्रह’ का नारा तभी सार्थक होगा, जब यह केवल पोस्टर और भाषण तक सीमित न रहे बल्कि हम अपनी दिनचर्या में ऐसे बदलाव लाएं, जो वास्तव में धरती को राहत दे सकें।
हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि प्रकृति ने हमें जीवन दिया है और यदि हम प्रकृति के संतुलन से खिलवाड़ करते रहे तो वह पलटकर हमें जीवन से वंचित करने में क्षणभर भी नहीं लगाएगी। इसीलिए अब हमें अपनी शक्ति को पहचानना होगा, अपने ग्रह को बचाने के लिए उठ खड़ा होना होगा और यह मानकर चलना होगा कि यदि पृथ्वी है, तभी हम हैं। पृथ्वी को बचाना केवल एक विकल्प नहीं, अब एकमात्र अनिवार्यता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरण मामलों के जानकार तथा पर्यावरण पर ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के लेखक हैं)
टिप्पणियाँ