पिछले दिनों सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें कांग्रेस का एक नेता कहता है कि संघ ने गांधी को गोली मारी। इस झूठ को बार-बार कांग्रेस द्वारा फैलाया जाता है। क्या वास्तव में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शामिल था? आइए इस बात की पड़ताल करते हैं और समझते हैं कि बार बार इस झूठ को बोलकर किन बातों पर कांग्रेस पर्दा डालना चाहती है।
संविधान हाथ में लेकर चलने वाली पार्टी यह जानती है कि ऐतिहासिक और कानूनी सबूतों के आधार पर भी हत्या में आरएसएस की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष भूमिका सिद्ध नहीं हुई है। जांच और अदालती कार्यवाही में यह स्पष्ट हो चुका है कि हत्या में आरएसएस की किसी भी प्रकार की भूमिका नहीं थी। गोडसे ने व्यक्तिगत और वैचारिक कारणों से यह कदम उठाया, जो गांधीजी के अहिंसा और सांप्रदायिक सौहार्द के विचारों से असहमति पर आधारित थे।
1947 से शुरू करते हैं
अहिंसक आंदोलन चलाकर अंग्रेजों के साथ फ्रेन्डली रहकर स्वतंत्रता की मांग करने वाली कांग्रेस को ब्रिटिश शासन ने एक ‘जिम्मेदार’ पक्ष के रूप में देखा, जिसके साथ वे सत्ता छोड़ने से पहले समझौता कर सकते थे। दूसरी ओर, वीर विनायक दामोदर सावरकर जैसे क्रांतिकारी या नेताजी सुभाष चंद्र बोस जैसे सशस्त्र संघर्ष के समर्थक ब्रिटिश शासन के लिए अस्वीकार्य थे, क्योंकि वे उनके खिलाफ सीधा विद्रोह कर रहे थे।
ब्रिटिश सरकार ने सत्ता हस्तांतरण में ऐसे नेताओं को प्राथमिकता दी, जो उनके औपनिवेशिक हितों को लंबे समय तक प्रभावित न करें। जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं का पश्चिमी शिक्षा और अंग्रेजी मूल्यों में विश्वास ब्रिटिश सरकार को भरोसेमंद लगा, जबकि क्रांतिकारियों का राष्ट्रवाद उनके लिए खतरे की घंटी था। इसके अलावा, ब्रिटिश शासन ने भारत में अपनी आर्थिक और सामरिक रुचियों (जैसे राष्ट्रमंडल में भारत की भागीदारी) को बनाए रखने की कोशिश की, और नेहरू के नेतृत्व में उन्हें यह संभव दिखा।
उस समय सावरकर जैसे क्रांतिकारियों को ब्रिटिश शासन के लिए सीधा खतरा माना जाता था, क्योंकि वे सशस्त्र विद्रोह को बढ़ावा दे रहे थे। इसलिए उन्हें कठोर सजा और निर्जन जेल में रखा गया ताकि उनका प्रभाव खत्म हो सके। 1911 में काला पानी (सेलुलर जेल, अंडमान) भेजा था। उन्हें दो आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, जो उस समय की सबसे कठोर सजाओं में से एक थी। उन्हें कांग्रेस के इतिहासकारों ने माफीवीर लिखा। जबकि तथ्य यह है कि उनकी याचिकाएं जेल से रिहाई के लिए एक रणनीति के रूप में देखी जा सकती हैं, जैसा कि उस समय के राजनीतिक बंदी करते थे।
कांग्रेस के नेताओं को, जो अहिंसा के रास्ते पर थे, उन्हें यह सब झेलना नहीं पड़ा। सेलुलर जेल में बंद होना तो बहुत दूर की बात है, ब्रिटिश सरकार इन नेताओं को अपनेपन के नजरिए से देखती थी। इसलिए दिखावे के वास्ते इन्हें गिरफ्तार तो किया जाता था, लेकिन उन्हें आगा खान पैलेस जैसे स्थानों पर रखा जाता था। वहां कांग्रेस के अहिंसा पर चलने वाले नेताओं के लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध थीं, जैसे भोजन, चिकित्सा देखभाल और अपने लोगों से मिलने-जुलने की आजादी, जो काला पानी की अमानवीय परिस्थितियों से बिल्कुल उलट था। बावजूद इसके कांग्रेस के नेहरूवादी इतिहासकारों ने अमानवीय परिस्थितियों में दो आजीवन कारावास की सजा काट रहे सावरकर को माफीवीर लिखा और जेल की जगह पैलेस में रह रहे कांग्रेस के नेताओं को ‘महान’ लिखा।
गांधी हत्या एक अनसुलझा रहस्य
सच्चाई यही है कि गांधी हत्या की निष्पक्ष जांच अब तक अधूरी है। तथ्य यह है कि नेहरूजी ने पांच बार हत्या के प्रयास से गुजरने के बावजूद गांधीजी को ना कोई सुरक्षा मुहैया करवाई और ना ही उनकी हत्या हो जाने के बाद कोई निष्पक्ष जांच करवाई।
गांधीजी की हत्या आज भी एक अनसुलझा रहस्य है, जिस हत्या के मामले को आरएसएस पर सारा दोष मढ़ कर बहुत ही जल्दी में निपटाया गया। आखिर इतनी जल्दबाजी थी किसे? वैसे हत्या के षड्यंत्र की खबर सरकार तक थी। किसने रोका था कांग्रेस सरकार को, सघन जांच करके नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, विष्णु करकरे, मदनलाल पाहवा, शंकर किस्तैया, गोपाल गोडसे, दिगंबर बडगे को हत्या के षड्यंत्र के आरोप में गिरफ्तार करने से। किसने रोका था गांधी की सुरक्षा बढ़ाने से। जैसाकि कांग्रेसी रिपोर्ट से ही यह बात सामने आई कि कई महीनों से हत्या की तैयारी चल रही थी। चार बार गांधी हत्या का प्रयास विफल हुआ। उसके बावजूद यदि नेहरू की आंखें नहीं खुली तो इसका अर्थ क्या निकाला जाए? हत्या के बाद जैसे दिगंबर बडगे को इस मामले में सरकारी गवाह बनाया गया। थोड़ी मुस्तैदी दिखाकर नेहरू क्या हत्या की पूरी साजिश को नाकाम नहीं कर सकते थे। या फिर उनकी गांधी को बचाने में कोई रुचि ही नहीं थी?
गांधी जी की हत्या के समय आरएसएस नहीं, कांग्रेस थी सत्ता में
आरएसएस तो 1948 में सत्ता में नहीं थी। आरएसएस को दोषी ठहराने वालों को सवाल तो उनसे पूछना चाहिए जो सत्ता में थे। क्या भारत की स्वतंत्र मीडिया ने नेहरू से इस संबंध में कोई सवाल पूछा? क्योंकि जब गांधी जी की हत्या हुई, देश के प्रधानमंत्री नेहरू थे। यह सुना और पढ़ा होगा आपने कि नेहरू का समय पत्रकारिता का स्वर्ण युग था। उस पत्रकारिता के स्वर्ण युग में वह कौन से पत्रकार थे जो सत्ता से सवाल पूछ रहे थे। वे सवाल कभी पढ़ने को क्यों नहीं मिले?
30 जनवरी 1948 को जब गांधी जी की निर्मम हत्या नाथूराम ने की। उस समय आरएसएस की सत्ता तो नहीं थी देश में। केन्द्र की गद्दी पर नेहरू काबिज थे। वे प्रधानमंत्री थे। वे जानते थे कि कुछ लोग गांधी की हत्या का षडयंत्र कर रहे हैं। पहले भी कई बार हत्या का प्रयास किया गया था। फिर नेहरू ने गांधी की सुरक्षा के लिए क्या किया?
किसी पत्रकार ने तो लिखा होगा कि नेहरू की लापरवाही की वजह से गांधी की हत्या हुई, इसलिए असली हत्यारे नेहरू हैं! उस दौर में कुछ पत्रकार ऐसे थे क्या, जो रवीश, अजीत, आरफा, ध्रुव, कुणाल, दीपक, अभिसार, साक्षी की तरह सत्ता में बैठे नेहरू को हत्यारा और तानाशाह लिख रहे थे। इस बात से इंकार कैसे किया जा सकता है कि गांधी की हत्या नेहरू के शासन में हुई। जब इस हत्या को अंजाम दिया गया, उस समय गांधीजी के पास कोई सुरक्षा नहीं थी। वे हत्यारे के सामने निहत्थे और निडर थे।
नेहरू प्रधानमंत्री थे। वे चाहते, तो गांधीजी पर पूर्व में हुए हमलों के बाद सुरक्षा बढ़ाकर उनकी जीवनरक्षा कर सकते थे। लेकिन ऐसा उन्होंने किया नहीं।
कांग्रेस पर क्यों जाता है संदेह
क्या कांग्रेस को वास्तव में गांधीजी की कोई चिंता थी? यदि थी तो उनकी हत्या की जांच के लिए कपूर कमिशन नेहरूजी की मृत्यु (1964) के बाद 1965 में क्यों बना? क्या कांग्रेस नहीं जानना चाहती थी कि गांधी हत्या के तार कहां कहां तक फैले हैं? या वह डर रही थी कि जांच में कुछ ऐसा बाहर ना आ जाए जिसे वह छुपाना चाहती है।
यदि उसने सारी जांच कर ली थी। उस जांच से कांग्रेस संतुष्ट थी फिर हत्या के 17 वर्षों के बाद जांच के लिए कमिशन बनाने का क्या अर्थ था?
यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि 1960 के दशक में कांग्रेस द्वारा आरएसएस को राजनीतिक रूप से कमजोर करने की कोशिशें चल रही थीं। ऐसे में, कमिशन के गठन और इसके निष्कर्ष पर कांग्रेस के राजनीतिक दबाव से कैसे इंकार किया जा सकता है? इसीलिए कपूर कमिशन के निष्कर्ष को संदिग्ध माना गया। उस पर सवाल उठे। वह विश्वसनीय नहीं था। वह कांग्रेस की निगरानी में तैयार कोई दस्तावेज भर बन रह गया।
गांधीजी की वसीयत को नजरअंदाज करना, जांच का दायरा सीमित रखना, और आरएसएस पर दोष मढ़कर कांग्रेस का बचाव करना – जब इन सभी घटनाओं को नेहरूवादी मजबूत इकोसिस्टम के साथ जोड़ा जाता है, तो यह संदेह और गहरा होता है कि कहीं गांधीजी की हत्या के पीछे कोई कांग्रेसी षड्यंत्र तो नहीं था। जिसे आरएसएस का नाम उछालकर ढकने का प्रयास किया गया।
नेहरू का व्यक्तित्व ऐसा था कि वह अपनी सत्ता और विचारधारा को लेकर कोई समझौता नहीं करते थे। गांधीजी का कांग्रेस को सेवा दल में बदलने का विचार नेहरू की महत्वाकांक्षाओं और समाजवादी-केंद्रीकृत शासन की दृष्टि के खिलाफ था। ऐसे में यह परिकल्पना बनती है कि गांधीजी के रास्ते से हटने बाद नेहरू के सामने कोई बाधा नहीं बचती थी। उनके ना होने पर आगे का सारा रास्ता नेहरू के लिए सुविधाजनक था।
क्या नेहरू की सत्ता के लिए खतरा बन गए थे ‘गांधी’
गांधीजी ने अपनी हत्या से पहले, इस विचार को औपचारिक रूप से लिखा। उन्होंने प्रस्तावित किया कि कांग्रेस के सभी सदस्यों को सेवा कार्यों में शामिल होना चाहिए और संगठन को सत्ता की राजनीति से अलग करना चाहिए। उनका मानना था कि यह कदम भारत को एक आदर्श लोकतांत्रिक और समावेशी समाज बनाने में मदद करेगा।
इस मसौदे में उन्होंने लिखा: “कांग्रेस ने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है। अब इसे भंग कर देना चाहिए और इसके स्थान पर एक लोक सेवा संघ की स्थापना करनी चाहिए, जो भारत के लोगों की सेवा के लिए समर्पित हो।”
गांधीजी का मानना था कि कांग्रेस की स्थापना का प्राथमिक लक्ष्य स्वतंत्रता प्राप्त करना था। 1947 में आजादी मिलने के बाद, उनका विचार था कि कांग्रेस को अपनी राजनीतिक भूमिका समाप्त कर देनी चाहिए, क्योंकि सत्ता-केंद्रित राजनीति भ्रष्टाचार और स्वार्थ को जन्म दे सकती है। उनकी इस आशंका को कांग्रेस ने सच साबित भी किया।
गांधीजी ने अपनी वसीयत में सुझाव दिया कि कांग्रेस को एक ‘लोक सेवा संघ’ में बदल देना चाहिए, जो ग्राम स्वराज, अहिंसा, स्वावलंबन, और सामाजिक समरसता जैसे उनके मूल सिद्धांतों पर आधारित हो। यह संगठन सामाजिक सेवा, शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, और खादी जैसे कार्यों पर ध्यान दे। यह गांधी की दिखाई राह थी, जिसे नेहरू परिवार में जन्में ‘गांधी’ कभी देखने को ही तैयार नहीं हुए।
गांधीजी ने हत्या से ठीक पहले कांग्रेस को जो राह दिखाई थी, उसमें सेवा पर जोर, सत्ता से दूरी, ग्राम स्वराज, सामाजिक समरसता जैसे तत्व प्रमुख थे। नेहरूजी कांग्रेस को भंग करने या इसे केवल सेवा संगठन में बदलने के पक्ष में नहीं थे। नेहरू समझ गए थे कि गांधीजी के रहते कांग्रेस को राजनीतिक दल के रूप में चलाना आसान नहीं होगा। नेहरू का सबसे बड़ा डर यह रहा होगा कि गांधी ने लोक सेवा संघ के लिए सत्याग्रह प्रारंभ कर दिया फिर उन्हें राजनीतिक पार्टी के तौर पर कांग्रेस को चलाने के लिए राजी करना बहुत मुश्किल होगा।
नेहरू की लापरवाही की वजह से कथित सत्याग्रह की नौबत नहीं आई। महात्मा गांधी अपनी वसीयत लिखकर चले गए। विडंबना यह हुई कि जो गांधी जी कांग्रेस को सत्ता से अलग एक सेवा संघ बनाने की वकालत कर रहे थे, उनके नाम का इस्तेमाल करके कांग्रेस ने देश पर पांच दशक तक राज किया।
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