गत 7 अप्रैल को नई दिल्ली में जाने-माने लेखक, पत्रकार और साहित्यकार डॉ. सूर्यकांत बाली का निधन हो गया। वे पिछले कुछ समय से बीमार थे। भारतीय ज्ञान-परंपरा, सांस्कृतिक विमर्श और साहित्यिक चिंतन के पटल पर डॉ. सूर्यकांत बाली का नाम एक ऐसे मनीषी के रूप में अंकित है, जिनकी लेखनी ने वैदिक ऋ चाओं की गहनता से लेकर समकालीन भारत की जटिलताओं तक एक सशक्त वैचारिक सेतु का निर्माण किया। वे मात्र एक लेखक या पत्रकार नहीं थे, अपितु भारतीय सभ्यता की आत्मा के सूक्ष्म अन्वेषक और उसके विवेकशील व्याख्याता थे। उनके महाप्रयाण के साथ, चिंतन की एक विशिष्ट धारा का अवसान हुआ है।
जीवन-यात्रा एवं बौद्धिक पृष्ठभूमि
9 नवम्बर, 1943 को अविभाजित भारत के मुल्तान (अब पाकिस्तान में) में जन्मे डॉ. बाली का जीवन स्वयं भारतीय उपमहाद्वीप के ऐतिहासिक उथल-पुथल का साक्षी रहा। विभाजन की विभीषिका और विस्थापन की पीड़ा ने उनके किशोर मन पर जो अमिट छाप छोड़ी, उसने उनकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संवेदनशीलता को आकार दिया, जो उनके संपूर्ण लेखन में प्रतिबिंबित होती है। उनकी शैक्षिक यात्रा विलक्षण थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित हंसराज कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में स्नातक, तत्पश्चात संस्कृत में स्नातकोत्तर और फिर संस्कृत भाषाविज्ञान में पीएच.डी.। शास्त्र और साहित्य के इस अनूठे संगम ने ही उनके लेखन को बहुआयामी और गहन बनाया।
पत्रकारिता: समकालीन यथार्थ से संवाद
डॉ. बाली का सार्वजनिक जीवन अकादमिक दायरे तक ही सीमित नहीं रहा। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। नवभारत टाइम्स में सहायक संपादक (1987) और बाद में स्थानीय संपादक (1994–1997) के रूप में उनकी भूमिका उल्लेखनीय रही। इसके अतिरिक्त, ज़ी न्यूज़ में कार्यकारी संपादक के पद पर रहते हुए उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विमर्श को भी दिशा दी। पत्रकारिता में उनका दृष्टिकोण सतही रिपोर्टिंग से परे था; वे प्रत्येक घटना के पीछे निहित सांस्कृतिक सूत्रों और ऐतिहासिक संदर्भों को समझने और समझाने का प्रयास करते थे। उनके समसामयिक लेख आज भी गंभीर विमर्शों के लिए संदर्भ की तरह उपयोग किए जाते हैं।
वैदिक आख्यान से आधुनिक विमर्श तक
डॉ. बाली की रचनात्मकता का सबसे विशिष्ट पहलू वैदिक साहित्य और महाकाव्यों का आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पुनर्पाठ है:
‘दीर्घतमा’: इस उपन्यास में उन्होंने ऋ षि दीर्घतमा के जटिल व्यक्तित्व और उनके गूढ़ वैदिक दर्शन को एक कथात्मक कलेवर में प्रस्तुत किया।
‘तुम कब आओगे श्यावा’: इस कृति में वैदिक नारी पात्र ‘श्यावा’ के माध्यम से उस युग की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक और लैंगिक संरचनाओं का मार्मिक चित्रण किया गया है। इन रचनाओं में प्राचीन गाथा और आधुनिक संवेदना का अद्भुत संयोजन भारतीय उपन्यास साहित्य में एक महत्वपूर्ण प्रयोग माना जाता है।
महाभारत : धर्म, सत्ता और मानवीय अंतर्द्वंद्व का विश्लेषण
महाभारत पर उनका कार्य केवल कथा का पुनर्लेखन नहीं, बल्कि एक गहन वैचारिक मीमांसा है: ‘महाभारत: पुनर्पाठ’, ‘महाभारत का धर्मसंकट’। इन कृतियों में उन्होंने धर्म, सत्ता, नैतिकता, नीति-भंग और उसके परिणामों का ऐसा विश्लेषण प्रस्तुत किया, जो समकालीन पाठक को भी आत्म-मंथन के लिए प्रेरित करता है। वे महाभारत को केवल एक ऐतिहासिक वृत्तांत नहीं, बल्कि शाश्वत नैतिक प्रश्नों से जूझता एक जीवंत ग्रंथ मानते थे।
राजनीति और संस्कृति: भारत के आत्मबोध की तलाश
राष्ट्र और उसकी पहचान से जुड़े प्रश्नों पर भी उनका चिंतन अत्यंत मौलिक था: ‘भारत की राजनीति के महाप्रश्न’, ‘भारत को समझने की शर्तें’, ‘भारत के व्यक्तित्व की पहचान।’ इन पुस्तकों में डॉ. बाली ने भारत को केवल एक भौगोलिक या राजनीतिक इकाई के रूप में नहीं, बल्कि एक सतत प्रवाहमान सभ्यतागत इकाई के रूप में देखने का आग्रह किया।
पत्रकारिता में इतिहास का पुनर्सृजन
‘नवभारत टाइम्स’ में प्रकाशित उनका स्तंभ ‘भारतगाथा’ पत्रकारिता और इतिहास-लेखन के बीच एक अनूठा समन्वय था। इस स्तंभ के माध्यम से उन्होंने भारत के जटिल ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक पड़ावों को अत्यंत सहज, प्रवाहमयी और रोचक शैली में प्रस्तुत किया, जिसने उन्हें व्यापक पाठक वर्ग में लोकप्रिय बनाया। यह स्तंभ आज भी ऐतिहासिक घटनाओं को सुलभ ढंग से समझने के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
एक युगद्रष्टा चिंतक
डॉ. सूर्यकांत बाली का संपूर्ण कृतित्व एक अनवरत बौद्धिक यात्रा का प्रतीक है, जो अतीत की गहराइयों से वर्तमान के द्वंद्वों और भविष्य के संकेतों तक विस्तृत है। वे उन विरले भारतीय मनीषियों में से थे, जिन्होंने परंपरा और आधुनिकता के मध्य कृत्रिम द्वंद्व स्थापित करने के बजाय संवाद और समन्वय की एक सशक्त धारा प्रवाहित की। उनकी लेखनी हमें सिखाती है कि भारत को खंडित दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि एक समग्र, गतिशील और बहुआयामी जीवन-धारा के रूप में समझा जाना चाहिए। आज वे सशरीर हमारे मध्य नहीं हैं, किंतु उनकी कृतियां और उनका गहन चिंतन आने वाली पीढ़ियों के लिए सदैव पथप्रदर्शक बने रहेंगे।
उनके निधन से उत्पन्न बौद्धिक रिक्तता निश्चित ही लंबे समय तक अनुभव की जाएगी, परन्तु उन्होंने ज्ञान का जो आलोक प्रज्ज्वलित किया है, वह सदैव हमारा मार्गदर्शन करता रहेगा। साहित्य और संस्कृति के फलक से ऐसे नक्षत्र के विदा होने की पूर्ति अत्यंत कठिन है। पाञ्चजन्य परिवार की भावभीनी श्रद्धांजलि।
हिंदी और संस्कृत के मूर्धन्य ज्ञाता
“प्रख्यात लेखक, साहित्यकार डॉ. सूर्यकांत बाली जी के देहावसान का दुःखद समाचार है। डॉ. सूर्यकांत बाली ने अपने प्रखर राष्ट्रवादी चिंतन से हिंदी साहित्य का पोषण किया। उनकी रचनाओं से साहित्यिक व पत्रकारिता के क्षेत्र में नई रोशनी आई। हिंदी और संस्कृत भाषा के वे मूर्धन्य ज्ञाता थे। डॉ. बाली की विद्वता के प्रति आदर व सम्मान से मैं नतमस्तक हूं। उनकी स्मृति में भावपूर्ण श्रद्धांजलि समर्पित करता हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि दिवंगत आत्मा को सद्गति प्रदान करें। उनके परिवारीजन एवं मित्रों को मेरी गहरी संवेदनाएं। ईश्वर शोकाकुल परिवार को यह दुख सहन करने की शक्ति प्रदान करें। ॐ शान्तिः॥”
-दत्तात्रेय होसबाले
सरकार्यवाह,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
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