तीर्थंकर ऋषभदेव ने सर्वप्रथम इस सिद्धांत की घोषणा की थी कि “मनुष्य अपनी शक्ति का विकास कर आत्मा से परमात्मा बन सकता है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा विद्यमान है जो आत्मसाधना से अपने देवत्त्व को प्रकट कर लेता है वही परमात्मा बन जाता है।“उनकी इस मान्यता की पुष्टि ऋग्वेद की ऋचा से होती है, “जिसके चार शृग – अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य है। तीन पाद हैं – सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचरित्र। दो शीर्ष – केवलज्ञान और मुक्ति है तथा जो मन, वचन और कार्य इन तीनों योगों से बद्ध है उस ऋषभ ने घोषणा की कि महादेव (परमात्मा) मानव के भीतर ही आवास करता है।“
भारत के प्राचीन नगरों से संबंध
जैन मत के अधिकांश तीर्थकरों का जन्म भारत के प्राचीन शहरों में हुआ। ये प्राचीन शहर भारतीय ज्ञान परंपरा सहित सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक चेतना के केंद्र बिंदु माने जाते हैं। उदाहरण के लिए भगवान ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ , भगवान पार्श्वनाथ का जन्म काशी में हुआ, श्री महावीर का जन्म वैशाली में हुआ, भगवान शांतिनाथ जोकि 16वें तीर्थंकर थे, उनका जन्म हस्तिनापुर में हुआ। 19वें तीर्थंकर भगवान मल्लिनाथ का जन्म मिथिला में हुआ।
श्रमण परंपरा
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। भारतीय संस्कृति पावन गंगा के समान है, जिसमें दो महान नदियाँ आकर मिली हैं – श्रमण और वैदिक। इन दोनों के संगम से विशाल भारतीय संस्कृति की गंगा बनी है। प्राचीन साहित्य में जैन धर्म के लिए ‘श्रमण’ शब्द का प्रयोग मिलता है। (जो श्रम करता है, कष्ट सहता है, तप करता है वह ‘श्रमण’ कहलाता है)। श्रीमदभागवत में श्रमणों की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि जो वातरशन श्रमण मुनि है, वे शांत, निर्मल, सम्पूर्ण परिग्रह से सन्यस्त ब्रह्म पद को प्राप्त करते हैं। भूषण टीका में श्रमण शब्द की व्याख्या इस रूप में की गई है – ‘श्रमणा दिगम्बराः श्रमणा वातरशनाः’।
श्रमण ‘दिगम्बर’ मुनि होते हैं। उन मुनियों को ही भागवतकार ने वातरशना, आत्मविद्या में विशारद बताया है। भारत में श्रमणों का अस्तित्व प्राचीन काल से है। सर्वप्रथम ऋग्वेद में श्रमणों का उल्लेख मिलता है। श्री वाल्मीकि रामायण में भी अनेक स्थानों पर श्रमणों का उल्लेख बड़े सम्मान के साथ किया गया है। भगवान राम ने जिन माता शबरी के आतिथ्य को ग्रहण किया था, वह श्रमणी थी। माता सीता के पिता, राजा जनक जिस तापसों को भोजन कराते थे, श्रमणों को भी वैसे ही कराते थे। श्रमण आत्मविद्या में पारंगत थे। वैदिक ऋषि उनसे आत्मविद्या सीखते थे। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार “श्रमण परंपरा के कारण ब्राह्मण धर्म में वानप्रस्थ और संन्यास को प्रश्रय मिला।“ वस्तुतः प्राचीन काल में जैनों को ही श्रमण कहा जाता था।
वैदिक ग्रंथों में जैनधर्मानुयायियों को अनेक स्थलों पर ‘व्रात्य’ भी कहा गया है। व्रतों का आचरण करने के कारण वे व्रात्य कहे जाते थे। संहिता काल में व्रात्यों को बड़े सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। व्रात्यों की प्रशंसा ऋग्वेद काल से लेकर अथर्ववेद काल तक प्राप्त होती है। अथर्ववेद में तो स्वतंत्र ‘व्रात्य सूक्त’ की रचना भी मिलती है।
जैन मत में श्रमण और व्रात्य शब्दों के समान आर्हत शब्द का प्रयोग भी प्राचीन काल से होता आया है। श्रीमदभागवत में तो आर्हत शब्द का प्रयोग कई स्थानों पर हुआ है। एक स्थान पर भगवान ऋषभदेव के संदर्भ में लिखा है, “तपाग्नि से कर्मों को नष्टकर वे सर्वज्ञ ‘अर्हत’ हुए और उन्होंने आर्हत मत का प्रचार किया।“ मत्स्यपुराण में बताया है कि अहिंसा ही परम धर्म है, जिसे अर्हन्तों ने निरुपित किया है। वस्तुतः प्राचीन ज्ञान परंपरा में ‘आर्हतमत’ और ‘अर्हन्तों’ का उल्लेख मिलता है। ‘श्रमण’, ‘व्रात्य’ और ‘आर्हत’ इन तीनों शब्दों का प्रयोग जैन मत के लिए ही किया गया है। श्रमण परंपरा के प्रतिष्ठापकों में महावीर स्वामी का एक अन्यतम स्थान है।
महिला तीर्थंकर
ऐसा माना जाता है कि तीर्थंकर मल्लिनाथ एक महिला थे। हालांकि दिगम्बर ऐसा नहीं मानतें हैं, जबकि श्वेताम्बर परंपरा में यह माना गया है। अगर यह तथ्य सटीक है तो यह इस ओर संकेत करता है कि भारतीय ज्ञान परंपरा में महिलाओं का भी विशेष योगदान रहा है। हजारों साल पहले भारत में एक महिला को तीर्थंकर का दर्जा देना इसी बात का प्रमाण है। भारतीय ज्ञान परंपरा में अनेक ऐसी विदुषी महिलाएं रही हैं जिन्होंने अपने ज्ञान के प्रमाण प्रस्तुत किए है।
महाभारत कालखंड
तीर्थंकर नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) के विषय में एक ऐतिहासिक तथ्य है। वह भगवान श्रीकृष्ण के चचेरे भाई हैं। भगवान श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव और उनके बड़े भाई समुद्रविजय के पुत्र नेमिनाथ थे। उनकी माता का नाम शिवा देवी था। तीर्थंकर नेमिनाथ का उल्लेख सामवेद में भी प्राप्त होता है।
अहिंसा और जैन मत
जर्मन अध्येता डॉ. हरमन याकोबी ने तीर्थंकर पार्शवनाथ को अहिंसा के सफल प्रणेता के तौर पर माना है। धर्मानंद कौशांबी ने भगवान पार्श्वनाथा पर ‘पार्शवनाथा चा चारयाम’ पुस्तक लिखी है। उन्होंने भी तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अहिंसा के प्रणेता के रूप में स्वीकार किया है। वह यह भी सिद्ध करते है कि भगवान बुद्ध ने भगवान पार्शवनाथ कि परंपरा से ही अहिंसा का पाठ ग्रहण किया था। उसी अहिंसा को पंचशील के नाम से विख्यात कर दिया अथवा उसका नाम अष्टांगयोग दिया।
इस तथ्य के अनुसार अहिंसा का मार्ग भारत में महात्मा बुद्ध से पहले भी प्रचलित था। भगवान बुद्ध को अहिंसा की शिक्षा भगवान पार्श्वनाथ से ही प्राप्त हुई है। भगवान पार्श्वनाथ ने भारत में अहिंसा का बहुत ही विस्तृत प्रचार-प्रसार किया था। महावीर जी का मानना है कि विविध कर्म-बंधनों में बाँधकर दुख देनेवाली हिंसा की प्रवृति न करने वाला, अभय के स्वरूप को समझने वाला साधक सरल होता है। उसमें दम्भ नहीं होता। उसका यह दृढ़ विश्वास होता है कि अहिंसा संसार में सुख बढ़ाने वाली है इसलिए वह उसी के अनुसार आचरण करता है।
रामायण के रचियता
श्री महावीर के निर्वाण के लगभग चार शताब्दियों के बाद राजा विक्रमादित्य के शासन में जैन विद्वान विमलसूरी ने प्राकृत भाषा में ‘पउमचरिउ’ (पदम्चरित –जैन रामायण) की रचना की। इससे प्रतीत होता है कि उस समय रामायण की कथा जनता में अत्यंत लोकप्रिय थी। विमलसूरी ने रामायण का जैन-संस्करण लिखा था।
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