श्री महावीर का जन्म 599 ईसा पूर्व चैत्र शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन, वर्तमान पटना शहर के नजदीक वैशाली (बिहार) में राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिसाला के यहाँ हुआ था। उनके माता-पिता ने उनका नाम वर्धमान रखा। वह जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर हैं। उनसे पहले 23 तीर्थंकर और हुए उनके नाम इस प्रकार हैं : श्री ऋषभदेव स्वामी, श्री अजीतनाथ स्वामी, श्री संभवननाथ स्वामी, श्री अभिनंदन स्वामी, श्री सुमतिनाथ स्वामी, श्री पद्मप्रभ स्वामी, श्री सुप्रश्वंरथ स्वामी, श्री चंद्रप्रभ स्वामी, श्री सुविदेव स्वामी, श्री शीतलनाथ स्वामी, श्री श्रेयांसनाथ स्वामी, श्री वासुपूज्य स्वामी, श्री विमलनाथ स्वामी, श्री अनंतनाथ स्वामी, श्री दरमनाथ स्वामी, श्री शत्रुनाथ स्वामी, श्री कुंतुनाथ स्वामी, श्री अराध्य स्वामी, श्री मल्लीनाथ स्वामी, श्री मुनिसुव्रत स्वामी, श्री नमिनाथ स्वामी, श्री नेमनाथ स्वामी, श्री पार्श्वनाथ स्वामी और श्री वर्धमान महावीर स्वामी।
जैन मत के अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर स्वामी हैं। महावीर स्वामी से पहले और उनके बाद भी जैन मत का भारतीय ज्ञान परंपरा के क्रमिक एवं सतत विकास सहित भारतीय संस्कृति के उद्भव में अभूतपूर्व योगदान रहा है।
भारतीय प्राचीन सभ्यता और जैन धर्म
सिंधु घाटी सभ्यता – योग और भगवान शिव
भारतीय प्राचीन सभ्यता ‘सिन्धु घाटी’ से भी तीर्थंकर ऋषभदेव (भगवान आदिनाथ) का संबंध मिलता है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई में जो प्रतीक प्राप्त हुए हैं, उनमें तीर्थंकर ऋषभदेव के संदर्भ प्रामाणिक रूप में मिले हैं। रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में इसी बात की पुष्टि करते हुए लिखते हैं, “मोहनजोदड़ो की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं और आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के साथ भी योग तथा वैराग्य की परंपरा जुड़ी हुई है।
दरअसल, मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर का संबंध भगवान ऋषभदेव से माना जाता है। यह चित्र इस बात का द्योतक है कि आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व योग साधना भारत में प्रचलित थी और इसके प्रवर्तकों में से एक आदि तीर्थंकर ऋषभदेव भी शामिल थे। अनेक इतिहासकारों और विद्वानों का मानना है कि भगवान शिव ही भगवान ऋषभदेव (भगवान आदिनाथ) हैं। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में प्राप्त उपरोक्त मुहर को पशुपति मुहर भी कहा जाता है। दोनों में अनेक समानताएं हैं जोकि इस बात को पुष्ट करती है। जैसे भगवान शिव का संबंध नंदी यानि बैल से है, वैसे ही भगवान ऋषभदेव का चिह्न भी नंदी है। दोनों का चरित्र एवं वेशभूषा भी समान है और दोनों को ही आदि यानि प्रथम माना गया है। योग और वैराग्य का संबंध भी भगवान शिव से जुड़ा है। इसी तीर्थंकर परंपरा में आगे चलकर श्री महावीर स्वामी को केवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था।
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