राजस्थान के सुदूर जनजातीय क्षेत्रों में वर्षों से चल रहे ईसाई कन्वर्जन के कुचक्र की सचाई अब सामने आने लगी है। आर्थिक प्रलोभन और भ्रामक दुष्प्रचार के जाल में फंसे लोगों में अपनी जड़ों की ओर लौटने की इच्छा प्रबल हो रही है। लोग धीरे-धीरे अपनी संस्कृति, परंपराओं और आस्था को पुन: अपनाकर अपनी वास्तविक पहचान की ओर लौट रहे हैं।
ऐसी ही सुखद अनुभूति देने वाली कहानी है बांसवाड़ा जिला मुख्यालय से 60 किलोमीटर दूर गांगड़तलाई पंचायत समिति के अंतर्गत ग्राम पंचायत रोड़ा के सोडला दूदा गांव की। गांव के 30 परिवारों ने ईसाई मत से सनातन-जनजाति परंपरा में वापसी की है। गांव के एक चर्च को अब मंदिर का रूप दे दिया गया है। इसकी दीवारें अब भगवा हो गई हैं। जहां पहले सलीब स्थापित था, वहां अब भैरवजी की प्रतिमा विराजमान है। चर्च अब भैरव मंदिर बन गया है। हर रविवार की प्रार्थना की जगह अब प्रतिदिन सुबह और शाम भगवान की आरती होती है। ‘जय श्रीराम’ के नारों का उद्घोष हो रहा है। चर्च को मंदिर बनाने से पहले हुए धार्मिक अनुष्ठान के दौरान पूरे गांव में भक्ति का माहौल बना रहा और शोभायात्रा भी निकाली गई। इस शुभ अवसर पर ग्रामीणों ने भक्ति और श्रद्धा के साथ सहभागिता की। अब मंदिर में जल्दी ही संस्कार पाठशाला की स्थापना की जाएगी, जहां बच्चों-युवाओं को हिंदू धर्म की शिक्षाएं और संस्कार सिखाए जाएंगे।
इस परिवर्तन की सबसे खास बात यह है कि इसकी पहल स्वयं उस चर्च के ही पादरी ने की, जो कन्वर्टिड ईसाई थे। अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए, उन्होंने ‘घरवापसी’ कर सनातन-जनजाति परंपरा और संस्कृति को पुन: अपनाने का साहसिक कदम उठाया है। अब वे मंदिर के पुजारी हैं।
पूर्व पादरी गौतम गरासिया बताते हैं, ‘‘हमारे परिवार सहित गांव के 30 परिवारों ने 30 वर्ष पूर्व ईसाई मत अपना लिया था। सभी लोग हर रविवार को प्रार्थना करने के लिए पास के गांव जाम्बुडी जाते थे। करीब डेढ़ वर्ष पहले सोडला दूदा गांव में उनके घर के पास ही उनकी जमीन पर एक चर्च बना दिया गया और उन्हें वहीं प्रार्थना करने के लिए कहा गया। मैं पांचवीं तक पढ़ा-लिखा था। इसलिए मुझे पादरी बना दिया गया। सभी 30 परिवार हर रविवार को सुबह 10 से 2 बजे तक इसी चर्च में बाइबिल पढ़कर प्रार्थना करते थे।’’ उन्होंने यह भी बताया, ‘‘चर्च में ईसाई मिशनरियों से जुड़े परिवार प्रार्थना और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए आते थे। वहां पैसा चढ़ाते थे। बीमार होने पर मन्नत मांगते। दवा के प्रभाव से जब उनकी बीमारी ठीक हो जाती, तो वे चर्च में आकर चढ़ावा चढ़ाते। उनका यही क्रम चलता था। हर वर्ष क्रिसमस यानी 25 दिसंबर को बड़ा आयोजन होता था। इसमें मांस और अन्य भोजन के साथ शराब भी होती थी। इसके लिए प्रति परिवार एक हजार रुपए जमा कराने के लिए बड़े पादरी उन पर दबाव डालते थे। इस कारण उन परिवारों की आर्थिक स्थिति लगातार खराब होने लगी। ईसाई पादरियों द्वारा जनजाति होने के कारण उनसे दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता था। आर्थिक शोषण किया जाता और ईसाइयत के प्रचार के लिए दबाव बनाया जाता था।’’
गौतम आगे बताते हैं, ‘‘ईसाई मत अपनाने के कारण गांव के अन्य परिवार, जो भगत परंपरा को मानते थे, वे ईसाई परिवारों के घर चाय-पानी तक नहीं पीते थे। इन परिवारों को इस बात का लगातार दर्द भी रहता था। कालांतर में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और उसकी प्राण प्रतिष्ठा के समय हुए धार्मिक आयोजनों ने उन पर प्रभाव डाला।’’ इसी के चलते गौतम ने 6 माह पूर्व 30 परिवारों सहित सनातन धर्म को अंगीकार कर लिया था। उन्होंने पूर्व में संचालित चर्च से जुड़ी हुई गतिविधियां बंद कर दी थीं।
गौतम के पांच बेटे हैं और सभी का विवाह हो चुका है। ईसाई मत स्वीकारने के बाद भी उन्होंने अपने तीन बेटों का विवाह हिंदू परंपरा के अनुसार करवाया था। बाद में पादरियों ने उन पर दबाव डाला तो उन्होंने दो बेटों का विवाह ईसाई रीति-रिवाज से किया।
गौतम कहते हैं, ‘‘मैं हिंदू ही था, लेकिन ईसाइयों द्वारा प्रलोभन और पैसा देकर हमें ईसाई बनाया गया। अब मैं पुन: सनातन धर्म में लौट आया हूं। मैं सभी भटके हुए भाइयों को फिर से सनातन धर्म में लेकर आऊंगा। सनातन धर्म में आकर मुझे आध्यात्मिक और मानसिक शांति प्राप्त हुई है।’’
गौतम और उनके परिवार के इस निर्णय से न केवल उनके जीवन में बदलाव आया, बल्कि आसपास के गांवों में भी जागरूकता का एक नया वातावरण बना। यह बदलाव गांव में एक नई चेतना और आत्म-निर्णय की भावना को जन्म दे रहा है।
गौतम की घरवापसी से ईसाई मिशनरियों में काफी बेचैनी है। वे घरवापसी कर रहे परिवारों पर ईसाई मत न छोड़ने का दबाव भी बना रहे हैं। गौतम बताते हैं, ‘‘घरवापसी से पहले मैंने पादरी को फोन पर बताया कि मैं अब हिंदू धर्म में वापस जा रहा हूं, तो उसने मुझे ऐसा करने से मना किया और कहा कि मैं गलत कर रहा हूं।’’ लेकिन गौतम और उनके साथ घरवापसी करने वाले सभी परिवार अपने निर्णय पर अडिग हैं। यदि ईसाई समाज की ओर से कोई दबाव बनाया जाता है तो वे कानूनी कार्रवाई करने को भी तैयार हैं।
बांसवाड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता विष्णु बुनकर बताते हैं, ‘‘कुछ जनजाति बंधुओं ने आर्थिक मजबूरी के चलते ईसाई मत स्वीकार किया था, लेकिन वे अपने भीतर की सनातन आस्था को नहीं छोड़ सके। वे पूजा-पाठ और धार्मिक कर्मकांड से दूर हो गए, लेकिन उनके मन में हमेशा सनातन की जड़ें बनी रहीं। कुछ समय बाद, उन्होंने अपने धर्म में लौटने का निर्णय लिया। यह घटना दर्शाती है कि आजकल लोग सनातन धर्म के प्रति जागरूक हो रहे हैं और अपनी पहचान को फिर से खोज रहे हैं। दूसरी ओर, पहले ईसाई मिशनरियों द्वारा भोले-भाले लोगों को अंग्रेजी दवाइयों का पाउडर को यीशु का प्रसाद बताकर देकर भ्रमित किया जाता था। वे दावा करते थे कि इस पाउडर को खाने से उनकी बीमारी दूर हो जाएगी। लेकिन अब उनकी सचाई सामने आने लगी है।’’
जनजाति समाज को सतर्क करते हुए हिंदू युवा जनजाति संगठन के जिला अध्यक्ष कमलेश डामोर कहते हैं, ‘‘ईसाई मिशनरियां भारत में सदियों से भ्रम की स्थिति पैदा कर रही हैं। ये भोले-भाले लोगों को धार्मिक और आर्थिक लालच देकर कन्वर्ट करने की कोशिश करती हैं। लोग इन मिशनरियों के चंगुल में न फंसें और अपनी संस्कृति की ओर लौटें। दूदा गांव के परिवारों को ईसाई मिशनरियों ने गुमराह किया था। अब उन्हें अपनी महान संस्कृति का एहसास हुआ और वे अपने मूल धर्म और संस्कृति की ओर लौट आए। हालांकि, उन्हें अपने निर्णय तक पहुंचने में लगभग 30 वर्ष का समय लगा। अब गांव के लोग कन्वर्जन की वास्तविकता को समझने लगे हैं और महसूस कर रहे हैं कि वे केवल आर्थिक प्रलोभनों के कारण अपने मूल धर्म से भटके थे। आज वे अपनी असली पहचान और धार्मिक मूल्यों के प्रति अधिक सचेत हो रहे हैं। यह परिवर्तन आत्म-गौरव को पुनर्स्थापित करने वाला है।’’
टिप्पणियाँ